उन्हे बेहद डर लगता था। हर तेज आवाज पर वो चौंक जाते
थे। चाहे वो आवाज़ दरवाजा जोर से पिटने की हो या फिर लिफाफे में हवा भर कर उसे
फोड़ने की या फिर किसी बम या पटाखे की। वो इन सभी आवाज़ों से खौफ़ खाते थे। जब तक
इस तरह की कोई भी आवाज उनके कानों में पड़ती रहती उनकी आँखों में नींद की परत कभी
नहीं उतर पाती। अपने कानो को वो जोरो से भीच लिया करते। मगर फिर भी आवाज़ों से
उनका पाला कभी नहीं छूट पाता था।
अपने मन को बहलाने के लिए वो पड़ोस के घर में हमेंशा
घुसे रहते थे। उनकी सीट जैसे पड़ोसी के घर में पहले से ही बुक रहती थी। कभी - कभी तो वो
वहीं पर नींद की झपकियाँ ले लेते थे और जब आँख खुली तो हमेंशा की तरह अपनी माँ की
बगल में सोये हुए होते। जिससे उन्हे ये कभी नहीं पता चल पाता था की वो नींद में
चलकर आये हैं या उन्हे कोई अपनी गोद में झुलाता हुआ लाया है। हाँ कभी - कभी उनके
गालों पर किसी न किसी के निशान छपे रहते थे। कभी कपड़े की सिलवटें जैसे तो कभी कुछ
बलखाती डोरियों जैसे। जिन्हे वो जब भी छुते तो उन्हे दर्द तो नहीं होता था लेकिन
अपने गालों को छुने में कुछ अलग सा महसूस होता। वो उठने के बाद उन्हे सहलाते ही
रहते।
रोजाना की तरह वे अपने घर में सोये हुए थे। उनके कमरे
में गोलियाँ चलने की काफी तेज आवाजें आ रही थी। न चाह कर भी वो उन आवाजों को
अनसुना नहीं कर सकते थे। धड़ा -
धड़ गोलियाँ कहीं दागी जा रही
थी और लोगों के करहाने की आवाज़ें उन्ही आवाजों के घोल में मिली थी। लगता था की
जैसे किसी बहुत ही बड़े ग्रोह से लड़ाई चल रही है। उनकी नज़र उनके दरवाजें पर दौड़
जाती। मगर ऐसा लगता था की दुनिया में खाली अब वही बचे हैं बाकि तो सब शिकार हो गये
हैं। दीवारें आज थर – थरा रही थी। बर्तनों के एक – दूसरे से टकराने का शौर कमरे की शान्ती को और भी
खौफनाक बना देता। अबकी बार तो आवाज़ तो और मजबूत थी। उस एक ही आवाज़ ने बाकी सारी
आवाज़ों को दबा दिया था। अब तो छोटे - छोटे पटाखों के जैसे लड़ियों की
आवाज़ तेज होने लगी जिसमें लगता था जैसे आदमियों के मरने की गुंजाइशे बड़ रही हो।
वे अपने हाथों को अपने तकीये के नीचे घुसाने लगे। इधर – उधर हाथ घुसाने के बाद उन्हे कुछ मिला नहीं। ये सपना
काफी खतरनाक था वो कुछ तलाशते रहते लेकिन कुछ मिलता नहीं। पूरे पसीना - पसीना हो
जाने के बाद में वो अपना बिस्तरा छोड़कर खड़े हो गये। वो हमेंशा अपने सिरहाने
सब्जी काटने वाला चाकू लिए सोते थे। ताकी उन्हे कभी डर न लगे। जिससे वो चैन की
नींद सो सके। लेकिन उनके लिए हथियार लेकर सोना सपने को जंग के मैदान में तब्दील कर
देता और वो तैनात होते वहीं किसी कोने में अपने हाथों में चाकू पकड़े।
वो उन आवाज़ों से बेइन्तहिया घबरा रहे थे। चाहकर भी वो
चिल्ला नहीं सकते थे और अगर चिल्लाना भी चाहते थे तो आवाज़ ही नहीं निकलती थी।
अपने हाथों में चाकू पकड़े वो काफी देर तक बैठे रहे। उनकी आँखे दरवाज़े पर टिकी थी
और कान चारों तरफ घूम रहे थे।
उनकी आवाज़ धड़ाके से बाहर फूटी, “डाकू अम्मा
डाकू।"
वो डाकू से डरते थे। हालाकीं आज तक उन्होनें डाकू देखे
नहीं थे। लेकिन ये सिलसिला डाकू बनकर घोड़े पर बैठने के जैसा था। जो माथे पर काला
टीका लगाता है, लम्बे घोड़े पर बैठता है, गोलियाँ
चलाता है, सब उससे डरते हैं। वो सबको मार सकता है और वो घर में
नहीं रहता। ये सबके लिए जैसे बहुत ही करीबी हुआ करता था। इस सिलसिले में उन्होनें
जो देखा था वो सारा कुछ डाकू के ही जिक्रों से सुनकर देखा था। चाहें वो कोई फ़िल्म
हो, चाहें वो कोई कहानी, चाहें वो कोई किताब का पाठ हर
किसी में डाकू मिला होता।
उन्होनें भी जितनी अभी तक फिल्में देखी थी वो सभी
डाकूओ के नाम से ही जानी जाती थी। इस मार – धाड़ से भरी फ़िल्मो के राज में हर फ़िल्म के विलन को
डाकू के नाम से ही जाना जाता था।
उनके घर में कई टीवी आज जैसे खुले पड़े रहते हैं। लेकिन
आज भी वो फ़िल्मो को विलन को डाकू ही कहते हैं। सारी भंयकर आवाज़ों से तो वे जैसे
पार पा चुके हैं लेकिन सिरहाने में आज भी उनके चाकू रखा होता है। इतने करंट के
झटके लगे हैं कि वे आज खुद ही एक करंट की दुकान बन गये हैं। सन् 1990, 1992, 1995 और सन् 1996 में खरीदी गई
फ़िल्मों की कैसिटें उनके घर की अलमारी में भरी पड़ी हैं। हर चीज को खोलकर वो अपने
हाथ आज़माने के लिए हमेंशा तैयार रहते हैं। अपने जमाने के मास्टरों में उनकी गिनती
होती थी। सन 1993 का दौर उनके लिए हर बुलंदी को छु जाने के समान था।
उनका कोई मास्टर नहीं है और न ही उनकी कोई क्लास। वो खुद ही कई झटकों के शौर में
रहकर खुद की आवाज़ बना पाये हैं।
इस जगह के कई घरों में उन्ही की करीस्तानी के टीवी रखे
हैं। रंगीन टीवी से खेलने का शौक कई आँखों को फ़िल्म की दुनिया का शिकार बना चुका
है। लड्डू खाने वालों की भीड़ उनके घर के बाहर महीने में दो बार तो हमेंशा जुड़ी
रहती। असल में ये लड़्डू हुआ करते थे किसी एक और कारिस्तानी के। कारिस्तानी तो
जैसे उनकी ज़िन्दगी का एक अंग बन गई थी। हर वक़्त बीस इंच के डिब्बे में घुसे रहते
थे और उस बीस इंच को कुछ न कुछ बनाने के मुहीम में हमेंशा जगमगाये रहते। कभी उसमें
रंग भरते तो कभी, स्पीकर लगाते तो कभी उसमें रेडियो ही लगा देते और कभी - कभी तो उस
बीस इंच को पच्चीस इंच का बनाने के लिए न जाने क्या - क्या करते।
उनके घर में पहली बार बहुत बड़ी भीड़ जमा हुई थी। कुछ
ऐसा था जिसे उन्होनें अपने हाथों से बनाया था। जिसे देखने के लिए उनकी गली के लोग
तो किसी को अपने आगे ही नहीं आने देना चाहते थे। सभी उसे देखने के लिए कुछ यूं चले
आते जैसे किसी नई नवेली दुल्हन का चेहरा देखने आ रहे हो। कुछ तो था जो बेहद चमक
रहा था, एक छोटे से बोक्स में दो बल्ब जल रहे थे और वो किसी
आवाज़ पर चमक रहे थे। जिसे देखना तो दिल को मोह रहा था। हर किसी के बस, का नहीं था
ये। लेकिन वो भी इसी लाइन को छेदकर निकले थे। पहली बार उन्होनें एक टीवी बनाया था, जिसमें
रेडियो भी था और आवाज़ पर नाचने वाले बल्ब कभी। वैसे पहली बार कुछ बनाकर दिखाने
का रिवाज़ तो था नहीं लेकिन ये जो बनाया था वो किसी एक के लिए नहीं था। जो छुपाया
जाये औत दिखाया ना जाये। ये उनके हाथ की कारिस्तानी थी लेकिन खुद के लिए नहीं थी।
उन्होनें वो भरी गली के बीच में रख दिया। वो एक टेबल
पर रखा था और वहीं पर उनकी माँ उसके गले में माला डालती और उस टीवी को पूजा करती।
उसका प्रसाद पूरी गली में बाँटा जाता। जैसे प्रसाद दूर – दूर तक जाता इस काम की बातें भी जोरों पर बाहर की तरफ
में निकलती।
मौसम अब रात के बदलने लगे थे। देर रात तक जागना और गली
में भीड़ लगाये रखना ये तौबा हो गया था। जब देखो किसी न किसी गली में ये धमाड़ - चौगड़ी ने
रातों की नींद छीनली थी। जहाँ टीवी पर मस्त फ़िल्म देखने वाले होते वहीं पर दो
पहरेदार भी खड़े नज़र आते। उनका यहाँ पर कोई काम नहीं था लेकिन कुछ बड़ी और भंयानक
शौर के बाद में ये तब्दीली यहाँ पर देखने को मिल ही जाती थी। शौर होते तो सही, माहौल जमते
भी थे मगर जैसे देखने वालों के अलावा किन्ही और की भी इजाजत लेने की फरमाईशे करनी
होती। इन फरमाइशों में किसी को कोई तकलीफ नहीं थी और ना ही कोई बैर था मगर ये दौर
कहीं खिसक रहा था जिसका अभी यहाँ पर किसी को अन्दाजा नहीं था।
सन् 1990
की रातें तो असल में काली ही
होने लगी थी। जब किसी को बिजली की जरूरत नहीं थी तो नहीं थी। लेकिन जब वो आ गई तो
जैसे वो सब की जान ही बन गई। बिना उसके तो किसी को चैन ही नहीं पड़ता था और अगर वो
चली जाये तो बस, ऐसी -
ऐसी बददुआयें निकलने लगती की
अभी किसी को मार ही डालेगीं। हर बददुआ में किसी की जान लेने की ताकत होती। जैसे वो
कोई शब्द ही कोई तीर हैं जो दाग़े जा रहे हैं। कुछ – कुछ में थोड़ी नर्मी होती लेकिन वो भी सुई जैसे पतली
चुभन जैसी। और अगर रात में फ़िल्म के दीवानों को वो छेड़ दे तो समझों खैर ही नहीं।
कोई कहता, “या मोमबत्ती लगा दे टीवी में ताकी कुछ दिख जाये।" उससे पहले, “नाश जाये कमीने का हर रोज़ का हो गया है इसका तो, दो - दो घन्टे जब
बिजली काटनी ही है तो दी काएको?”
तो दूसरी कहती, “मैं तो कहती
हूँ, हैजा हो जाये कमीने को।"
बिजली वाला वहीं पर बैठा - बैठा इन
बातों के खामियाज़े भुगत्ता तो जरूर होगा। क्या पता उसका खाना बिखर जाता हो या उसे
करंट लग जाता हो या फिर कुछ और। लेकिन कुछ होता होगा।
यही समय था जब पहरेदारों का गलियों में घूमना शुरू हुआ
था। हर जगह पर एक ना एक पहरेदार नज़र आ ही जाता। हर माहौल, हर जगह और
रातों को तो जैसे कैद करने की चाह में हर कोई नज़र आता। बिना किसी का नाम जाने ही
उसके बारे में पता करने की कोशिशें शुरू हो जाती। लेकिन जो पहले से ही बन गया था
उसको तोड़ना आसान नहीं था। बस,
उस बने - बनाये तो
देखते रहने का काम कितने को पास दे दिया गया था। चाहें वो शादी के हॉल हो, चाहे सरकारी
शौचालय या फिर सरकारी की खुद से बनाये कोई कोने या फिर गली के अन्दर के हिस्से। हर
रात ये माज़रा कहीं न कहीं बिखरा पड़ा रहता।
अन्जान भाई जी अपनी कलम और पैचकश दोनों को एक साथ
उठाते थे। कलम नये ढाँचो के चित्र बनाने के लिए और पैचकश उनको आकार देने के लिए।
लेकिन मार कहीं न कहीं जरूर खाते थे। जो वो बनाना चाहते थे वो कभी अकेले के लिए
किया गया प्लान नहीं होता था उसमें हमेंशा पचास जनो को सोचकर कोई बात समझी जाती।
पर जहाँ पर मार खाते थे वो था समानों का जुगाड़ करना। अभी तक टीवी सेन्टर और गली
के अन्दर जो वो माहौल बना पाये थे वो तो किसी न किसी जमें आधार पर हो गया था लेकिन
ये थोड़ा पैचिदा था। एक बड़े माहौल की कल्पना उनके दिमाग में घर कर गई थी। वो
चाहते थे एक कोना ऐसा बने जिसमें हर वक़्त लोग जमा रहे हैं और नई – नई बातें करे नई – नई फिल्में देखकर। जिसमें कोई भी चाहें कितना ही दूर
क्यों न बैठा हो लेकिन उसे सब कुछ दिखाई दे। चाहें कोई कुछ अपना संगीत क्यों न
बजाये लेकिन वो सबको सुनाई दे।
वो सात रातों के लिए अपने घर और मोहल्ले से गायब हो
गये थे। किसी को कुछ नहीं पता था कि वे कहाँ चले गये हैं। उनके घर में उनको लेकर
बहुत परेशानी हो रही थी। असल में किसी को कुछ पता नहीं था कि वे दिन में कहाँ - कहाँ जाते
थे। बस, लोग इतना जानते थे की वो रात में कहाँ होते थे। हर जगह
पर उनके बारे में पुछताछ की,
उन लोगों के पास भी गये जिनके
लिए वो टीवी बना रहे थे और वहाँ पर भी गये जहाँ पर वो रात में बैठकर गाने सुना और
सुनाया करते थे। किसी भी जगह पर उनके बारे में किसी को पता नहीं था। दो दिन – तीन दिन – चार दिन करते - करते पूरा हफ्ता जैसे गुज़र गया
था।
किसी को भी ये आस तो नहीं थी कि वो नहीं आयेगें। कहीं
लम्बे चले गये होगें लेकिन आ जायेगे। इस टीवी की बिमारी में बावला कर दिया था
उन्हे। न जाने कैसी - कैसी सोचते रहते थे। हर वक़्त ये बनाना है - वो लाना है
जिद्द उनके दिमाग पर छाई रहती थी। पता नहीं कहाँ होगें? हर रोज़ कभी
दिन में तो कभी रात में ये बातें एक झटके से उछल पड़ती थी फिर कुछ ही देर में
खामोश हो जाती। किसी ने उनके घर पर आकर कहा कि आप पहरेदारों को क्यों नहीं कहते
क्या पता ये तलाश लाये उन्हे। मगर इस दौरान तो पहरेदारों से बात करना भी जुल्म
माना जाता था। इनकी तो ना दोस्ती अच्छी और ना दुश्मनी, ये लाइन पूरे
इलाके पर छाई हुई थी।
ये वक़्त सारी अवधारणाओ को तोड़ने का था। इस वक़्त
सबसे ज्यादा जरूरी कुछ और हो गया था। जिसका पता करना बेहद जरूरी था। किसी को
असलियत में कुछ नहीं पता था। वो गली के बाहर खड़े पहरेदार के पास गये और उन्हे
सारा मामला समझाया। वो पहरेदार उन्हे अपने साथ ले गये। कुछ समय तो यूहीं उनके साथ
आते - जाते बीत गया। पूरे छ: दिन बीत गये थे। एक शाम उन्हे
चौकी पर बुलाया गया। चौकी पर जाने वाले वो अकेले ही नहीं थे। उनके साथ में पूरी
गली थी। एक भीड़ इधर से उधर की तरफ में चलदी थी। वो चौकी में अपने घुटनों तक पैंट
को चड़ाये बैठे थे। आँखें सुर्ख लाल हो रखी थी। लगता था जैसे ये कितनी रातों से
सोये नहीं है। ये जागना फ़िल्म चलते टीवी के सामने बैठने के समान नहीं था। ये
आँखें वहाँ पर लाल होती थी लेकिन ये रंग कुछ और था। अपनी नींद के बारे में किसी को
कुछ ना बताते हुए वो अपनी गली वालों के पास में आये।
सामने से लम्बा - चौड़ा पहरेदार आया और बोला, “ये एक दुकान
में था, कुछ चुरा कर भाग रहा था हमने पकड़ा। अब बताओ इसके साथ
क्या किया जाये?”
यहाँ कोई भी कुछ कह नहीं पाया। यहाँ इनके आगे किसी की
ज़ुबान खुलना आसान भी नहीं था। जो भी वहाँ से बोला जाता वो सो टका सच माना जाता।
चुप रहने में ही लोग अपनी भलाई समझते। वो सबको बड़ी गहरी नज़र से देख रहे थे। किसी
को कुछ न कहते हुए वो बस, सबके ताकते रहे। एक पहरेदार ने उनकी कॉलर को पीछे से
पकड़ा और उठा दिया।
वो फिर से बोला, “तीन दिन से दुकान बन्द पड़ी थी।
ये उसी में था। जब भाग नहीं पाया तो उसी में बन्द हो गया। ये तो लटकेगा अब लम्बा।"
वो पहरेदार
सबको डरा रहा था। हर लाइन में उनके खिलाफ कुछ होता और एक नया इल्जाम होता। जो यहाँ
पर हर किसी के लिए ताज़ा होता। लेकिन पूरा माज़रा क्या है वो किसी को नहीं पता था।
बस, सब चुपचाप सुने जा रहे थे।
वो बोले, “मैं बन्द नहीं हुआ था, मैं तो
कबाड़ी की दुकान में था उसने कुछ समान बाहर फैंक रखा था मैनें उससे उस समान को ले
जाने की बात की उसमें कहा ले जा। मैं तो वो समान ले जा रहा था। समान में एक टीवी
का बोक्स भी था। वो भी मैं ले आया। उसमें मैंने बस, रोश्नी करके कुछ रखा था। इनको
लगा मैं किसी दुकान से ये उठाकर लाया हूँ।"
वो पहरेदार बोला, “बहुत बोल रहा है।"
बात का कोई हल नहीं निकला - बात वहीं पर
अटक गई थी। बातों ही बातों में कई पिछले साल इल्जाम बनकर उभरने लगे थे। लगता था
जैसे पिछले सालों के शौर में इनकी भी आवाज़ शामिल की जा रही थी। ये सारा एक खेल था
जिसमें किसी ऐसे शख़्स की तलाश रहती थी जिसपर उंगली उठाई जा सके। यहाँ पर आये सभी
ये बात बहुत अच्छे से जानते थे। तभी तो इस चौखट पर अपने पाँव रखने से भी लोगों को
चिड़ महसूस होती थी। जबरन आ बैल मुझे मार क्यों अपनाना जाये। वो घर पर तो आ गये थे
लेकिन अब माहौलों में ये तीर जैसी नज़रें अपना दबदबा दिखाने लगी थी। माहौल उनकी
नज़रों के माध्यमों में खो जाने की कगार पर था।
धीरे - धीरे सब कुछ शांत हो चुका था।
लेकिन गली में लगी फ़िल्म में डाकुओ की एक लम्बी फौज़ थी। उनकी सबसे पंसदीदा
फ़िल्म लगाई गई थी। "मेंरा गाँव – मेंरा देस" वो उसमें
पँहुच चुके थे। शायद किसी घोड़े पर बैठे थे। मगर बहुत सारे लोगों के बीच में।
1 comment:
हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शनिवार (11-04-2015) को "जब पहुँचे मझधार में टूट गयी पतवार" {चर्चा - 1944} पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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