काफी दिनों से शहर मे ऐसे घूम रहा था जैसे कुछ तलाश रहा हूँ। लेकिन इस घूमने के बाद जब सोचता तो साफ लगता की तलाश मे हो रही चीजें, गुजर रही बातें सबको खुद से जोड़ रहा हूँ। काफी घूमने के बाद मे थोड़ा खुद को तोड़ने की इच्छा हुई। सवाल उभर रहा था खुद से कि सफ़र को अगर खुद के साथ न जोड़ा जाये तो वे क्या चिंह खोलता है रास्ते और शहर को सोचने के? क्यों किसी को दोहराया जाये और क्यों किसी को याद किया जाये? क्या दोहराना याद करना होता है? या याद मे रखना एक दिन दोहराने मे तब्दील हो जाता है?
दिन और दोहपर मे घूमते हुए आज ये गाना अचानक याद आया। “जीनव के सफ़र में राही - मिलते हैं बिछड़ जाने को।
और दे जाते हैं यादें तन्हाई मे तड़ पाने को"
असल मे याद नहीं आया बल्कि लगा जैसे ये इस सफ़र के लिये ही बना था। चेहरे लगातार बदल रहे थे जिनको याद में रखना कोई जरूरी नहीं था। लेकिन कभी किसी मोड़ पर उसे दोहराया जरूर जाया जा सकता था। दोहराने की उम्र बहुत कम होती है। इसकी जगह दिमाग में बहुत कम होती है। जैसे ये ट्रांसफर होने के लिये बना है। बिलकुल उन यात्रियों की तरह जो बस में चड़ते हैं और गेट के पास ही खड़े हो जाते हैं।
पूरे दिन में आज इतने लोगों की छूअन ले चुका था की अब तक कितने अक्श मेरे होने को बना रहे हैं ये सोचना और कल्पना आसान नहीं था। ये खाली मेरे अंदर कितने चेहरें बस गये हैं, ये नहीं था बल्कि मेरे बाहर चलते शहर की मात्रा कितनी घनी हो गई है इसको सोचना मेरे लिये बहुत महत्वपूर्ण हो गया था। बगल से निकलने वाला, टकराने वाला, कुछ पूछने वाला, कुछ बताने वाला, साथ मे बैठने वाला, मुझे सुनने वाला, मुझे देखने वाला। इनके चेहरों को याद रखना जरूरी नहीं है। बल्कि ये क्या चिंह छोड़ जाते हैं उन चिंहों को दोहराना ही सफ़र है।
कभी-कभी लगता जैसे लोगों को याद रखा ही कब जाता है? वे किसी वक़्त के साथ दोहराने के लिये कुछ समय ठहराव लेते हैं। कोई काम, खेल, रास्ता, अदा और बैचेनी की चाश्नी में घुले कुछ चेहरे मटमैले हो जाते हैं। चेहरा याद ही कहाँ रहता है। याद तो वो चाश्नी रहती है। जिसको बार-बार चटखारे लेकर दोहराया जाता है।
ये गाना - मुझे मुझसे बहुत दूर ले गया था। लगता था की शहर को खुद मे डालने के लिये इसे गा रहा हूँ। उन दृश्यों को इसकी तस्वीर बना रहा हूँ जो मेरी आँखों से दूर होते ही शहर मे घुल जाती है। या हवा हो जाती है। जिनको दोबारा से पकड़ा नहीं जा सकता। हाँ, उसके जैसे दिखने वाले दृश्य से पिछले का अंदाजाभर लिया जा सकता है।
घुलते हुये इस शहर मे जब हम बेनाम और अंजानपन से चेहरों से दूर कर रहे होते हैं तब अपने भीतर भी उनको किसी वक़्त से भिड़ा रहे होते हैं। ये भिडंत क्या है? क्या ये देखने वाले की कशमकश है या उसकी तेजी है?
घूमना अब भी जारी है -
लख्मी
5 comments:
शानदार है
हर शहर की एक धडकन होती है,जो महसुस की जा सकती है,कुछ लय होती है, कुछ मिजाज होती है ....कुछ यादे होती है जिनसे हम जुडे रह्ते है..और जब हम किसी शहर को देख्ते है नजदिकियो से तब सामने आती है वो...यादे..
Achchha likh rahe hain jnaab.
अद्भुत है हमारे भारतीय और निराले हैं इनके प्रयास,
ब्लॉग की दिनिया बड़ी सुन्दर है, मैं अकेला नहीं हूँ,एक से एक जोधा भरे पड़े हैं मेरे देश में. .. बधाई.
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प्रियंक ठाकुर
www.meri-rachna.blogspot.com
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