आवाज़ें रोज़ मेरा अपहरण करती है और ऐसी जगह पर ले जाकर छोड़ देती है जहाँ पर पहले से मौज़ूद छवियों से मेरा कोई समाजिक रिश्ता नहीं होता। सिर्फ आवाज़ों के साथ रिश्ता बनाना और उनको कोई मतलब देना ही नहीं है। सुनना खुद के साथ एक रियाज़ और प्रयोग है जो बिना किसी रिश्ते के बुनता जाता है।
आज सुनने के साथ एक खास तरीके से मुलाकात हुई - इसमें खुद की परिक्षा लेने के जैसा अहसास था। खुद को सुनना और खुद के अन्दर कई तरह की आवाज़ों को महसूस करके आसपास को सुनना। दोनों के बीच में एकांत और शोर का मेल – जोल था।
किसी आवाज़ तक पहुँचना क्या होता है? और उस आवाज़ तक पहुँचना जो बहुत तरल और हल्की होती है लेकिन उसका खिंचाव अपनी चरमसीमा पर होता है? बहुत धीमी आवाज़ मगर बहुत ऊंची। एक मिनट कानों को जोर से बन्द करके सुनने की कोशिश की। लगा जैसे खुद के अन्दर बैठे और खोये चित्रों को झिंझोर रहा हूँ। मैं सोच रहा था की इन सबको अगर भूल जाऊँ या छोड़ दूँ तो क्या हासिल कर पाऊँगा?
एक तस्वीर उभरती हुई मेरे चारों ओर घूम रही थी। जिसका मेरी याद के साथ और मेरे आज के साथ कोई नाज़ुक या कठोर रिश्ता नहीं था। ऐसी आवाज़ जो घुमावदार है जो मेरी सांसो के शोर को अपनी आवाज़ बना लेती है और उसके जरिये मेरे शरीर में सफ़र करती है। कुछ ही पल मे महसूस हुआ की मेरे अंदर चलती कई सारी हलचलें मेरी नहीं थी, उन्हे किसी ने अपहरण कर लिया था। मेरी आँखों में बसी तस्वीरें मेरे होने को झुठला रही थी।
मुझे खुद ही सोचकर एक खास तरह का अहसास होता की आवाज़ें - ये आवाज़ें क्या हैं और क्या वे अकेली हैं या सिर्फ सुनकर, सोचकर और कहने तक ही हैं या फिर उनके ऊपर कुछ करने के जैसा। क्या ये जीवन को समझने में कोई मदद नहीं करती?
वे आवाजें जो हम कमरे के भीतर सुनते है वही आवाज़ें, वही जगह, वही टाइम और वही सवाल हमारे साथ रहता है लेकिन स्थान अगर बदल जाये तो? कुछ देर के लिये मैं छत पर चला गया। सोचा की यहाँ पर मैं अपनी सोच की कैद से बाहर निकलकर कुछ नया पिरो पाऊँगा? छत पर जाने के बाद में लगा की आवाज़ कभी अकेली नहीं होती। आवाजें छत तक आने में कई और आवाज़ों का सहारा लेती हैं और शेम्पू के बुलबुले की भांति कोई आकार लेती हुई छत तक आती हैं। ऊपर की ओर आते-आते एक धमाका करती हैं। मगर इस धमाके में वे अपना दम नहीं तोड़ती बल्कि एक बड़े आकार में शामिल हो जाती हैं। इसी में सारा समझना, रिश्ता, पहचान छुपा होता है। ये आवाज का ब्लास्ट हो जाना असल में खुद के साथ कोई कनेक्शन होने के समान ही था।
मगर सिर्फ हमारे सवाल और हमारे समझने के साथ समझोता ही नहीं थे। आवाज़े खाली सुनने और समझने के साथ रिश्ता नहीं बनाती। बल्कि आवाजों का ठहराव, परत और तेजी किसी वक़्त को इस तरह जोड़ देती है जिससे की वे उसकी राहगीर बन जाती हैं।
ये सफ़र की तरह बढ़ता चलता है -
लख्मी
1 comment:
आपके ब्लॉग पर आ कर अच्छा लगा ...
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