Saturday, April 23, 2011

उनके कमरे की सफाई

पिछले दिन मेरे पिताजी अपने उस कौने की सफाई कर रहे थे जो कभी कभी लगता है जैसे ये कौना उनके घर का हिस्सा नहीं है और कभी लगता है कि ये कौना ही उनका घर है। इन दोनों के बीच मे वे कभी इधर खिसकते हैं तो कभी उधर।

समय जैसे चमक रहा था उसके ढकने में।
समय ज़ंग खाया था ऊपर-नीचे के तलवे में।
समय सूखा था मोहर की पड़ी महरूम सी डब्बी में।
समय उछल रहा था छोटे काग़जो के टुकड़ो में।
समय चिपका था तले से लगे पेपरों में।


उन्हे अपने ही कौने के भीतर से कुछ पाया। कितना अजीब सा लगता है कि जब अपने ही घर मे कुछ अपने से बिछड़ा हुआ मिल जाये तो हम उसे पाया बोल देते हैं। जैसे वो मेरा नहीं था बस, मुझे पा गया है। इस पाने मे शायद कुछ और भी अहसास है। जैसे है मेरा मगर आज लगा है जैसे मुझे पहली बार मिला है। वे अपने हाथों के गिलास को अपने बगल मे छुपाते हुए उस पन्ने को बीनने लगे जो शायद कई सालों से बिखरा पड़ा था। छिदरा सा वे आज अपने पूरे होने का अहसास करने वाला हो जैसे - वे खुश हो रहा हो जैसे। वे उस बिखरे हुए को बीनने कर किसी बच्चे की लग गये उसे मिलाने जैसे उनका ही पौता अपने पज़लगेम के बिखरे हुए टूकड़ों को मिलाता है। फिर बिखेरता है, फिर मिलाता है - यही वे तब तक करता जाता है जब की सही अनुमान न हो जाये की अब हुआ पूरा। वे भी आज इसी रिद्धम में जुट गये।

समय अकड़ा था फाइलों में अड़े काग़जो में।
समय अटका था गुड़मुड़ी पड़े काले कार्बन पेपरों में।
समय रंगा था स्टेम्प की ख़ुरदरी लाइनों में।
समय टिका था टिकट पर पड़े अँगूठाई निशानों में।
समय ठुसा था नीली सी पन्नी में भरी बिलबुको में


कई टूकड़े तो अब भी नही मिले थे -
"आज बिशन ने वो पैसे दे दिये जो उसे लिये थे। पर मुझे लग रहा है कि उसने मुझे ज्यादा पैसे दिये है कल उससे मिलना है। रामा अपनी रकम ले गया है। मैंने सबका कर्जा उतार दिया है।"

कई ऐसी लाइने उसमें बिखरी पड़ी थी। ये खत्म होने वाला सिलसिला नहीं था जैसे। पूरी अटेची को बहुत जोर लगाकर खींचा और उसके एक – एक बिखरे हुए पन्नों को समेटने लगे। एक – एक चीज को ऐसे देखते जैसे कोई सुनार अपनी अलमारी साफ करते हुए चमकीली को भी मीढ़ कर देखता है कि ये क्या है? वे आज किसी बहुत बड़े जौहरी की भांति थे।

समय छन गया था चूहों की कुतरी पनशनी, कागज़ों के छेदो में।
समय सम्भाला था रजिस्टरों और फाइलों के ऊपर बधीं छोटी-छोटी डोरियों में।
समय गूँज रहा था फाइलों और रजिस्टरों में लिखे अलग-अलग नामों में।
समय धूँधलाया था गत्तों के कवरपेज पर लिखे नामों से उड़ती गाढ़ेपन कि चकम में।


एक और पन्ने को पढ़ने की कोशिश हो रही है।
“500 रूपये 3 टका पर लिये हैं - जिसे शादी पर देना है। “........." तारीख में। “......” , “.....” उससे लेने हैं।"

उनका कोई अपना ठिकाना नहीं है और न ही वे किन्ही से दूर जाना चाहते। वे लड़ाका नहीं है, वे रोमांच मे जीना पसंद करते हैं। शायद जहाँ पर रोमांच न हो वे उसे बनाने की कोशिश मे हो। कुछ तलाशना या अपने ही कौने मे कुछ मिल जाने को वो पाना कहकर उसे ऐसे नवाज़ते हैं जैसे वो बरसों से कहीं खोया हुआ था लेकिन अब पाकर उसने खुद को नहीं लौटाया है बल्कि उस अवधि को दिखाने की कोशिश की है जो उससे बना है उसका नहीं है शायद।

समय फैला था बिलबुक से काटी गई पर्चियों में।
समय ख़ुद को दोहराया सा था कुछ सरकारी महकमों के दस्तावेजों में।
समय बेबसा सा था रजिस्टरों से आज़ाद होती बाईडिगों में।
समय जिज्ञासू था अलग-अलग पन्नों पर लिखी अर्जियों में।


उनका अपना लिखा हुआ :
“मैंने खुद से लिया हुआ पैसा किसी को नहीं दिया है। मगर मैं आपकी दी हुई वो अधिकारी छोड़ रहा हूँ जो आप सबने मुझे अपने भरोसे पर दी थी। जितना भी जिसका निकलता है वो मैं दे दूगाँ लेकिन अभी मेरे पास नहीं है।"
अपनी उस जगह से दूर वो चल दिये। अब हर रोज़ जाते हैं, वहाँ नहीं जहाँ शायद उन्हे बुलाया जाता है। बल्कि उस "वहाँ" जिसे वो खुद चुनते हैं। वहाँ की हर चीज़ यहाँ तक की हवा और रोशनी को भी।

समय मान था उधार चुकाते शब्दों में।
समय पाबंद था उनमें पड़ी तारीखों में।
समय भीड़ था कई अलग-अलग पन्नों में छपे हस्ताक्षरों के प्रतिबिम्बों में।
समय ताकत था अन्दर कई नामों के अन्तराल बने रिश्ते में।
समय ज़िद था कई जाने-पहचाने नियमों में।
समय जिम्मेदारी था इसमे समय को महफूज़ रखने में।
समय कल्पना से भरा था उन ख़तों मे लिखे शब्दों में।


“हर बार पैसा चाय की केतली में रखा होता था। जिसके बारे में घर मे सबको पता था। सबके हाथ उसमें जाते थे। लेकिन ये नहीं मालूम था की उन हाथों में हरकत क्या थी।"

वो यहीं है, यहीं रहते हैं, यहीं काम करते हैं, यहीं खाना हैं लेकिन यहाँ पर आराम नहीं करते। यहाँ को सोचते हैं मगर जीते नहीं हैं। "वहाँ" को रचते हैं और "वहाँ" मे खो जाते हैं।

लख्मी

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