Monday, March 19, 2012

उड़ान के भीतर

हम अपनी उड़ान कैसे चुनते हैं?

कोमल जी, “उड़ान और खुशी चुनने का मौका कहाँ मिलता है? यहाँ पर दिन रात थकने मे ही निकल गये लेकिन कभी ऐसी थकान नहीं मिली जिसमे खुशी मिली हो। सब कुछ दिया, कुछ नहीं रखा अपने पास पर परिवार को ये ताना कसना अच्छी तरह से आता है कि तुम हो कौन? काश की ये मैं खुद ही पुछ लेती अपने आपसे तो मैं कब की वहाँ से चली आती। मुझे पूरा मौका मिला था अपनी दुनिया चुनने का। पर मैं समझ क्यों नहीं पाई, ये मैं सोचती हूँ॥ मैं नहीं थकना चाहती घर के कामों मे, मैं भी बाहर जाना चाहती हूँ, काम करना चाहती हूं, नौकरी करना चाहती हूँ, मैं भी जब घर आऊं तो लगे की दुनिया देखकर आई हूँ। यहाँ पर आने के बाद मे कई किताबे पड़ी, उसमें लगा की मैं इसके अन्दर बस गई हूँ। पिछले कई साल मुझे पता भी नहीं था की मैं क्या पढूँगी? बाहर जाने का मतलब ये नहीं है मेरे लिये कि मैं कहीं कैद हो गई हूँ पर बाहर जाने का मतलब मेरे लिये बहुत जरूरी है। कहीं मेरे बच्चे भी मुझे उन लोगों की तरह न देखें जो मेरी मदद करने के बहाने मुझे पागल कह चले जाया करते थे। मैं पागल नहीं बनना चाहती। मैं भी दिखाना चाहती हूँ मैं अपनी जिन्दगी, अपना काम और अपनी थकान खुद से चुनूं।"



शामू चाचा, “मेरे लिये मेरी उड़ा और मेरी थकान तो अब बनी है, पहले तो मैं ऐसा था की समय को अपनी मुट्ठी मे बंद कर लिया करता था और दबादब ढोलक बजाता रहता था। सब मुझसे पूछते थे की शामू कितना बजा है तो मैं कहता था की कुछ नहीं बजा, अभी तो बजेगा। और सब लोग हँसने लगते थे। पर मैं अपने हाथ से टाइम को छूटने नहीं देता था। पर अब मुझे सोचना होता है कि मैं क्या करूंगा, तब सोचना होता है कि कौनसा समय, कोनसा काम और कोनसी जगह चुनू जिसमें मैं घंटो रहकर अगर थकू तो पता ही न चले। मैं समय को तो अब भी जकड़ा हुआ है, पर साला लगता है कि समय ने मुझे जकड़ लिया है, पर बेटा निकल जाऊंगा में इसके हाथों से, कोई नहीं पकड़ सकता मुझे। कोई नहीं।"


मुकेश भाई, “जिस काम या चीज़ मे मेरा बिलकुल कंट्रोल न हो, उसे करने मे मज़ा आता है। बस ड्राइविंग करते समय सोचता था की दिन में 10 चक्कर मारने के बाद में 200 रूपये मिलते हैं तो क्या मैं जल्दी जल्दी नहीं कर सकता। स्पीड़ तो मेरे हाथ मे होती थी तो उसे बड़ा दू और लंच से पहले के 5 चक्कर तो फटाफट मार लू और फिर घर मे जाकर आराम करूं। बहुत बार कोशिश की ये सब करने की, बहुत मजा आता था सवारी भी ऐसी मिलती थी की बंदा टाइम पर पहुँचा देता है लेकिन जब मैं स्पीड बडा दिया करता था तो गाडी मेरे कंट्रोल से बाहर हो जाती थी, पीछे बैठी सवारी को इसकी भनक भी नहीं होती थी मगर मैं अन्दर ही अन्दर डर रहा होता था। ये डर ज्यादा दिन तक मैं झेल नहीं पाया। छोड़ दी मैंने वो नौकरी, लेकिन अब लगता है कि एक बार फिर से वो डर महसूस करूं।"


बिमला जी, “उड़ान ही तो चुननी है तभी तो अपने जीने के तरीके पर सोचना चाहती हूँ॥ मैं दूसरों के जीवन से और काम से बाहर निकलना चाहती हूँ ताकी मैं क्या करूंगी और कैसे करूंगी सोचूं। कब तक करू मैं किसी के लिये। मुझे तो बदलकर रख दिया है, मै क्या हूं साला पता ही नहीं चलता। मैं भी अपना कुछ बनाऊं नहीं तो झुलसकर रह जाऊंगी और पता भी नहीं चलेगा। अपना शौक, अपना खाना, अपना पहनना सब कुछ अपने हाथ मे लेकर मैं बाहर रहना चाहती हूँ।"


श्याम लाल जी, “मैं चाहे बैठे - बैठे थक जाऊं पर मुझे ये न लगे की मुझे लोग ऐसे देख रहे हैं कि मैं निकम्मा हो गया हूँ॥ मेरा मन नहीं लगता एक जगह पर जमे - जमें। पहले की बात कुछ और थी, कि जिम्मेदारी करते करते लगता था की मैं थक भी जाऊ तो भी ठीक है, उसमे कई चेहरों की हंसी छुपी थी पर अब लगता है कि मैं निकल जाऊं। शाम में आऊं। लोग पूछे मुझसे की मैं कहाँ से आया हूँ, कहाँ जा रहा हूँ। नहीं तो लगता है कि आप गायब हो गये हो, गायब हो जाओं अच्छा है पर किससे गायब होओगे? अपने से गायब हो गये तो ठीक नहीं है, ये तो आंख का अंधा होने के जैसा होता है। उस बात से गायब हो जाओ तो तुम्हे कहती है कि तुम अब किसी काम के नहीं रहे। ये सबसे बड़ी बेज़्जती की बात है।"

लख्मी

2 comments:

संगीता पुरी said...

सीमा के अंदर ही रहना होता है ..

Anonymous said...

सीमा के अंदर ही क्यों रहना होता है... जबकि मुझे लगता है की सीमा लांघकर ही हम वो पाते हैं जिसके लिये सीमा के अंदर तरसते रहते हैं... हमें शायद हर समय, हर वक्त हर माहौल में ये चुनौती लेनी चाहिये की हम उन सबसे बाहर निकल कर जीये जिनकी हमसे उम्मीद कि जाती है...