खुश रहने के लिये आखिर करना क्या पड़ता है? क्या खुद को भुला देना ही खुशी है? या खुद को हमेशा याद मे रखना ही खुशी के समान है? मेरे दोस्त अक्सर इस बात से बहस करने के लिये हर दम खुद को आज़माते रहते हैं। लेकिन इसका हल उतना ही नाज़ुक और महीम होता है जैसे तेज़ पानी की धार मे कई बुलबुले जन्म लेते हैं और खत्म होते जाते हैं। इस जीवन की गुणवत्ता को खुशी के अहम झरोखो से होकर देखने की लालसा खुशी का पर्दा कहलाती है।
ये बात कोई खुशी की परिभाषा नहीं है और न ही उसकी कोई चादर। ये तो वो अहसास है जो जीने मे कभी कटूरता ले आते हैं तो कभी सम्पर्ण की बात कहते हैं मगर हाँ, इस बात में कई अनंत जीवन के रूप शामिल होगें।
शहरी चेहरों पर गुदी कई ऐसी व्याख्याएँ अपनी छाप छोड़ती जाती हैं जैसे जो शायद किसी एक ही जुबान से निकलने के बाद में अनेकों जीवन के आधार की अभिलाषी हो। ये होना कोई जादूई खेल नही हैं बल्कि ये उस दमखम से खुद को पैश करना और करते जाना है जिसको कोई कभी न कभी अपना ही लेगा ये रिद्धम इसी दौर में जीती है। जैसे - इसका जीवन फिल्म के उन डायलॉग की तरह होता है जो फिल्म मे किसी मतलब के नहीं होते हैं लेकिन फिर भी किसी के जीवन में किसी पीटे वक़्त को दोहराने के लिये जुबानों पर आ ही जाते हैं।
जीवन के अनेकों अहसासों मे सबसे ज्यादा दूरी किस अहसास से हो जाती है और किसको हमेशा पाने की रेस में रखा जाता है? लेकिन, इससे भी ज्यादा जरूरी ये बात दिमाग मे अपनी निगेबाँह छोड़ती है कि क्या हम हर वक़्त उसी चीज़ की या अहसास की तलाश मे रहते हैं जिसके स्वाद को हमने सिर्फ छुआ या महसूस किया है? क्या हम हर स्वाद को पाने की लालसा पाल सकते हैं? क्या हमारा अपना कोई स्वाद बनता है उसकी परख क्या है?
ये अपने को समझने की बात नहीं है बल्कि उस रफ़्तार को छेड़ने की कोशिश है जिसको हम रेस कहते हैं और सारी तलाशों को उसके मोड़ बनाकर जीते हैं। खेर, ये मोड़ क्या कहते हैं और कहाँ पर ले जाकर छोड़ देते हैं इसका खामियाज़ा किसी के कब्जें मे नहीं है। ये तो अपने मनमुखी द्वार से बनते हैं और अपने साथ किसी वक़्त की गहरी छाप को ले जाते हैं।
सवाल अब भी वहीं पर जमा रहता है - खुश रहना क्या है?
खुश रहना उस उल्लास की तरह क्यों है जो महज़ किसी अवसर का अभिलाषी है? खुश रहना उस भेंट की भांति क्यों है जो किसी और से मिलती है? खुश रहना उस विज्ञापन की तरह क्यों है जो तीन घण्टे के बीच मे आती है? खुश रहना क्यों चाहता है कोई?
इस बात के कई जवाब होगें लेकिन खुश रहने की चाहत बनाना यानि किसी ऐसे स्वाद की तरह बढ़ना जो मन पसंद है।
मेरी एक दोस्त मिली उसका एक बात का जवाब सुनकर मैं दंग रह गया - जो बहुत सरल था। जिसमे कोई बनावट नहीं दिखी मुझे। उसी से ये समझ मे आया की जीवन की नीति क्या है?
उससे मैंने पूछा, “तुम डरावनी फिल्में ही क्यों पसंद करती हो?”
वो बोली, “क्योंकि मुझे बहुत डर लगता है।"
ये एक लाइन मुझे बहुत सरल बना गई। मेरा एक साथी जिसे लिखने का बहुत शौक है। उससे एक बार सवाल किया मैनें, “तुम अगर बहुत मेहनत करके, रात भर जागकर कोई लेख लिखो तो किस गुट मे उसे पढ़ना चाहोगें?”
उसने मुझसे कहा, “उसमें जो लेख को कहानी की भांति सुनता है। जो खुद नहीं लिखता।"
इन दोनों जवाबों में दोबारा "क्यों" कहने का सवाल ही पैदा नहीं हो पाया। ऐसा लगा की जीवन साथी, संगत और आसपास को एक बार फिर से सोचने की पैदाइश हो रही है। ये वो आसपास नहीं है जो पसंद और न पसंद से बना है बल्कि ये वो है जो बहस से जन्मा है।
खुशी होना और खुश होना - इसी रिद्धम के बीच की धरा है जिसमें शख्सियत और जीवन का खेल है। कौन कहाँ पर रूक जायेगा?
लख्मी
ये बात कोई खुशी की परिभाषा नहीं है और न ही उसकी कोई चादर। ये तो वो अहसास है जो जीने मे कभी कटूरता ले आते हैं तो कभी सम्पर्ण की बात कहते हैं मगर हाँ, इस बात में कई अनंत जीवन के रूप शामिल होगें।
शहरी चेहरों पर गुदी कई ऐसी व्याख्याएँ अपनी छाप छोड़ती जाती हैं जैसे जो शायद किसी एक ही जुबान से निकलने के बाद में अनेकों जीवन के आधार की अभिलाषी हो। ये होना कोई जादूई खेल नही हैं बल्कि ये उस दमखम से खुद को पैश करना और करते जाना है जिसको कोई कभी न कभी अपना ही लेगा ये रिद्धम इसी दौर में जीती है। जैसे - इसका जीवन फिल्म के उन डायलॉग की तरह होता है जो फिल्म मे किसी मतलब के नहीं होते हैं लेकिन फिर भी किसी के जीवन में किसी पीटे वक़्त को दोहराने के लिये जुबानों पर आ ही जाते हैं।
जीवन के अनेकों अहसासों मे सबसे ज्यादा दूरी किस अहसास से हो जाती है और किसको हमेशा पाने की रेस में रखा जाता है? लेकिन, इससे भी ज्यादा जरूरी ये बात दिमाग मे अपनी निगेबाँह छोड़ती है कि क्या हम हर वक़्त उसी चीज़ की या अहसास की तलाश मे रहते हैं जिसके स्वाद को हमने सिर्फ छुआ या महसूस किया है? क्या हम हर स्वाद को पाने की लालसा पाल सकते हैं? क्या हमारा अपना कोई स्वाद बनता है उसकी परख क्या है?
ये अपने को समझने की बात नहीं है बल्कि उस रफ़्तार को छेड़ने की कोशिश है जिसको हम रेस कहते हैं और सारी तलाशों को उसके मोड़ बनाकर जीते हैं। खेर, ये मोड़ क्या कहते हैं और कहाँ पर ले जाकर छोड़ देते हैं इसका खामियाज़ा किसी के कब्जें मे नहीं है। ये तो अपने मनमुखी द्वार से बनते हैं और अपने साथ किसी वक़्त की गहरी छाप को ले जाते हैं।
सवाल अब भी वहीं पर जमा रहता है - खुश रहना क्या है?
खुश रहना उस उल्लास की तरह क्यों है जो महज़ किसी अवसर का अभिलाषी है? खुश रहना उस भेंट की भांति क्यों है जो किसी और से मिलती है? खुश रहना उस विज्ञापन की तरह क्यों है जो तीन घण्टे के बीच मे आती है? खुश रहना क्यों चाहता है कोई?
इस बात के कई जवाब होगें लेकिन खुश रहने की चाहत बनाना यानि किसी ऐसे स्वाद की तरह बढ़ना जो मन पसंद है।
मेरी एक दोस्त मिली उसका एक बात का जवाब सुनकर मैं दंग रह गया - जो बहुत सरल था। जिसमे कोई बनावट नहीं दिखी मुझे। उसी से ये समझ मे आया की जीवन की नीति क्या है?
उससे मैंने पूछा, “तुम डरावनी फिल्में ही क्यों पसंद करती हो?”
वो बोली, “क्योंकि मुझे बहुत डर लगता है।"
ये एक लाइन मुझे बहुत सरल बना गई। मेरा एक साथी जिसे लिखने का बहुत शौक है। उससे एक बार सवाल किया मैनें, “तुम अगर बहुत मेहनत करके, रात भर जागकर कोई लेख लिखो तो किस गुट मे उसे पढ़ना चाहोगें?”
उसने मुझसे कहा, “उसमें जो लेख को कहानी की भांति सुनता है। जो खुद नहीं लिखता।"
इन दोनों जवाबों में दोबारा "क्यों" कहने का सवाल ही पैदा नहीं हो पाया। ऐसा लगा की जीवन साथी, संगत और आसपास को एक बार फिर से सोचने की पैदाइश हो रही है। ये वो आसपास नहीं है जो पसंद और न पसंद से बना है बल्कि ये वो है जो बहस से जन्मा है।
खुशी होना और खुश होना - इसी रिद्धम के बीच की धरा है जिसमें शख्सियत और जीवन का खेल है। कौन कहाँ पर रूक जायेगा?
लख्मी
2 comments:
सराहनीय प्रस्तुति.बहुत सुंदर
khush rahne ke liye jaruri hai ki hum dusron ki khushi ka khyal karen.
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