एक बार मेरे साथी ने मुझसे एक सवाल किया की लेखन में “अनुभव” और “कल्पना” के बाहर
क्या है?
मैंने उसके सवाल का तुरंत तो कोई जवाब नहीं दे पाया मगर उसके इस सवाल ने
मुझे कुछ सोचने कहिए या जो भी मैं लिखने की कोशिश करता हूँ उसको दोबारा से देखने का
मौका जरूर दिया कि हम किसी के कहे ‘बोलों’, ‘उसकी कहानी’, ‘उसके अनुभव’ और ‘किसी कल्पना’ में जब जाते हैं तो उससे जुड़ने के या उसमें शामिल होने की हमारी सोच क्या होती है? हमारी भागिदारी और हमारा संवाद क्या
होता है उससे?
मैंने ये सवाल जब खुद में महसूस किया तो समझ में आया की मैं जिन यादों और कहानियों में घूम
व तैर रहा हूँ असल में वो उस क़िरदार की भी नही है जो मुझे सुना रहा है और उसकी भी नहीं है
जो सुन रहा है। तो वो कहानी या बात किसकी है और मैं या वो उन कामनाओ में कैसे उतर रहे हैं? अब तक की बातों और मिलन में
ये सवाल बार – बार दिमाग में घूम रहा था कि आखिर मैं उन बातों और ज़ज़्बातों को किस
तरह से खुद में उतारूँ जो कि मैं खाली उसी को लिखने न लग जाऊँ या
फिर कहीं वो बात ही न कह पाऊँ जो कि उस कहानी का सबसे असरदार पहलू
बनकर उभरी थी। सुनने वाला और सुनाने वाले के बीच ये रिश्ता कभी बनने लगता है तो कभी टूट जाता रहा
लगने लगा। लेकिन ज़ज़्बातों की एक लम्बी सी बिसात चलती रही जो आज़ाद थी हर लिखने और सोचे
जाने के रिवाज़ से।
मैं जब भी किसी ऐसे शख़्स से बात करने के लिए बैठा जो बीती हुई बातों को अपने जीवन में
हल्के तौर पर लेकर चलता है तो इस सवाल ने ज़्यादा जोर
पकड़ा। इस हालात में मैं उस शख़्स के बेरूखेपन और याद रखने के अहसास से बखूबी मिल रहा
होता हूँ। जो मैं उसे हल्केपन के हवाले भी नहीं कर सकता था और ना ही उसे उसके जीवन के बोलों उतार
व फसा सकता था। इस वक़्त के लिए मुझे
किसी तीसरी ज़ुबान की जरूरत पड़ती नज़र आती। जो
की मेरे पास में नहीं थी और न ही उसके पास में। कही,
सुनी
और बोली बातें उस तीसरी ज़ुबान के लिए बनती नहीं है
लेकिन कई ज़ज़्बातों और जीवन के भारी वज़नदार रिवाजों के बीच में अपनी जगह बनाने के
लिए तीसरी ज़ुबान को उतारा व सोचा जा सकता है। वैसा ही मैं कुछ करने
कि कोशिश में जुट जाता।
इस तीसरी ज़ुबान में मैं
कुछ समझा या वो कुछ बोला, खाली यही नहीं होता। इसके
अलावा कुछ और भी है जिसे सोचना बेहद जरूरी महसूस होने लगता।
सुनने के बाद में जब मैं लिखने पर आता तो कुछ समझ के आकंड़े खुलने लगते। लेकिन साथ ही
साथ कुछ बिखरने भी लगता। जिसको मुझे समेटना पड़ता। तब लगता है जैसे - लिखना असल में अपनी ही अभिव्यक्ति तो गढ़ने के समान है। अक्सर जब हम किसी के
जीवन में उतरते हैं तो हमारे साथ में अहसास बनकर कोई न कोई जरूर होता है। चाहें वो
हमारी स्वयं ही की छवि हो या फिर
खुद के होने का अहसास। वही अहसास हमें या तो उस कहानी के भीतर ले जाने वाला बनता है या फिर
वहाँ उस दुनिया के बीच में छोड़ देने वाला, नहीं तो अपने शब्दों - बोलो से हमें उस दुनिया के अन्दर
बुलाने वाला। मगर इन सभी सूरतों में वो अहसास हमेशा अदृश्य ही बना रहता है।
देखकर और सुनकर, इनके बीच की दूरी और अन्तराल में इस अनोखे खेल को महसूस किया जा सकता है। हम और
हमारी नज़रों का पलड़ा हमारे स्वयं के शरीर और सोच के पैंबन्दो में रचा
जाने लगता है। जिसमे हम फिर अपने को छोड़ देते
हैं। मैं अक्सर ये खुद के साथ में महसूस करता हूँ।
यहाँ इस लेखन को सोचते हुए दो अलग – अलग तरह की धारायें उभरने लगती हैं।
पहली - खुद को छोड़ देना।
दूसरा - अपने से बाहर हो जाना।
“खुद को छोड़ देना” ऐसा महसूस करवाता है जैसे मैं उस
दुनिया में बिना अपनी अवधारणाये, अपने वस्त्र, अपने चलन, अपना अनुभव और अतीत और अपने नज़रिये सब कुछ कहीं पीछे छोड़ आया हूँ। अब जो भी कुछ नज़र आ
रहा है उससे मैं अवगत तो नहीं हूँ लेकिन उससे मिलने में मुझे मेरे “मैं” का अहसास बखूबी हो
रहा है।
“अपने से बाहर हो जाना” स्वयं के स्वरूपों और तमन्नाओ में हर
वक़्त गुंदता रहता है और अपने को छोड़ देना,
खुद को ही रचने के समान होता जाता है।
कभी - कभी हम ये कहकर उस रचे
गये माहौल में खड़े हो जाते है कि
"उन्होनें अपने शब्दों से दुनिया बना दी थी।"
और
कभी
- कभी इन कहे गये बोलो में
राहें उनके जीवन की ही होती है उनके दाखिल होने की होती है, उनके बहने की होती है पर उनपर गोते हम खाने लगते हैं।
क्या हमें ज्ञात है कि ये दोनों सूरतें अपने में क्या संजो पाती हैं?
वक़्त का फिसलना - किसी समय के चिन्हो को
पैदा करना भी होता है।
दृश्य का छूटना - जगह के बनने के अवशेषों
को ज़िन्दगी देने के समान होता है।
इन दोनों ही स्थितियों में हम बखूबी खिलते हैं।
लख्मी
2 comments:
कबीले तारीफ़ चिंतन ..बड़े ही सूक्ष्मता से गहन चिंतन के साथ लिखा गया शानदार लेख
Shukriya Sathiyon
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