फिर से एक बार प्रगति मैदान में एक किताब को लेकर गया। सोचा की वहीं पर कोई जगह देख कर पढ़ा जाए। अपनी जगह से दूर और अपने आप से कुछ अलग। जहां से लोग अजनबी होकर भी खुद को छोड़े हुये से दिखते हो। शायद ऐसी कई जगहें होगी। पर इस समय मैंने चुना प्रगति मैदान को।
प्रगति मैदान में घूमने के
बाद में एक जगह मिली जो वहाँ के कर्मचारियों के कमरे के पास में थी। मैं वहाँ पर किताब
को लेकर बैठ गया। वहाँ पर मौजूद कर्मचारी मुझे गहरी निगाह से दिख रहे थे। यहाँ से वहाँ
भागते हुये नोजवान और लोगो से दूर मैं आखिर यहाँ बैठा क्यो हूँ। हाथ में एक बैग है
और उसे खोल कर बस यहाँ से वहाँ देख रहा हूँ। उनकी निगाह मुझ पर ही थी। जैसे मैं यहाँ
के नेचर से बाहर का हूँ। नेचर ही नहीं हूँ।
पहले तो मैंने बस यहाँ से वहाँ
देखता रहा। मैदान में नौजवानो का जैसे मेला सा लगा था। लड़कियां लड़के थोड़े से बुजुर्ग
और बच्चे। इस जगह को जैसे अपना लिए थे। जैसे ये पूरी जगह उनकी ही थी। घूमना यहाँ पर
मना नहीं है।
सब के घूमने से दूर एक मैं
ही था जो किताब हाथ मे लेकर बैठा था। वो सारे कर्मचारी मुझे देख रहे थे। कुछ समय की
खामोशी चल रही थी हमारे बीच में। कर्मचारी मुझे पहचानने की कोशिश कर रहे थे। मैं कौन
हूँ?, यहाँ पर क्या कर रहा हूँ?, जैसे बिना मेरी इजाजत के मेरी तलाशी ली जा रही थी।
पर इससे ज्यादा मुझे फर्क नहीं था।
कुछ देर आराम से मैंने किताब
को पढ़ा। मेरा पहला पन्ना खत्म ही हुआ था की तभी एक कर्मचारी आया और मेरी पास में खड़ा
हो गया। पहले तो मुझे देखता रहा। मैं भी उसे अनदेखा करके किताब मे लीन रहा।
एक ही मिनट के बाद मे वो बोला,
“भाई साहब।“
मैंने उसकी ओर देखा और कहा,
“क्या है सर?”
वो बोला,
“आप कहीं और जाकर बैठ जाइए?”
मैंने पूछा,
“क्यो?”
वो बोला,
“आप यहाँ पर नहीं बैठ सकते। ये बैठने का स्थान नहीं है?”
मैंने बहुत ही विनम्र होकर
कहा, “पर मैं तो आराम से किताब पढ़ रहा हूँ?”
वो बोला,
“वो तो दिख रहा है। मगर यहाँ पर के जगह पर ज्यादा देर तक नहीं बैठ सकते। हाँ,
घूमते रहिए।“
मैंने हँसकर पूछा,
“मैं घूम घूम कर किताब नहीं पढ़ सकता मगर। क्रप्या मुझे बैठने दीजिये।“
वो नहीं माना और बोला,
“बैठना है तो आप किसी पार्क में जाइये या घूमते रहिए। आप बस उठ जाइए।“
मैं उठ गया और उससे पूछा,
“आप मेरे बैठ कर किताब पढ़ने को क्या कोई जुर्म मानते है?”
वो बड़े कड़ेपन से बोला,
“मैं नहीं मानता मगर आप यहाँ से जाइए।“
मैंने पूछा,
“यहाँ पर कोई ऐसी जगह है जहां पर मैंने बैठ कर पढ़ सकता हूँ?”
वो बोला,
“मुझे नहीं मालूम।“
मैंने पूछा,
“आप इतना गुस्सा क्यो हो रहे है?”
वो बोला,
“मैं अपनी ड्यूटि कर रहा हूँ।“
मैंने पूछा,
“किसी को बैठ कर किताब पढ़ते हुये हटाना क्या आपकी ड्यूटि में आता है?”
वो ज़ोर से बोला,
“हाँ आता है।“
मैंने ज्यादा बात न करते हुये
वहाँ से जाना ही मुनासिब समझा। मैंने जाते जाते बस पूछा,
“क्या मैं सामने जो पार्क दिख रहा है वहाँ पर बैठ सकता हूँ?”
वो बोला,
“अपना कोई आईडी दिखाये।“
मैंने कहा,
“वो तो मैं अपने ही शहर में लेकर नहीं घूमता।“
इस पर वो बोला,
“शहर अपना है ये कैसे बताओगे फिर? आप जाइए और आईडी ले आइये फिर बैठ जाना।“
मैं उसकी ओर देखता रहा और मुसकुराता
हुआ बाहर निकल गया। सोचा ये कोई कर्मचारी नहीं है ये हमारे टीचर हैं। जो हमे सीखा रहे
है।
शहर अपना है ये कैसे बताओगे
आप?
राकेश
2 comments:
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