Thursday, March 20, 2014

दस किलोमीटर की दूरी

घर से जंगल और जंगल से घर उनके लिए कभी दूर ही नहीं रहा। वे भागे - भागे वहाँ की ओर चले जाते थे। रात चाहें कितने ही पहर में होती हो लेकिन सुबह का आलम उनको पूरा पता होता। ये भूख थी जो उनकों वहाँ तक ले जाती थी। खाली नज़रों का मामला नहीं था। ये कसक थी जो उनके अन्दर रह-रहकर वलवलाती थी। वो जंगल से दस किलोमीटर की दूरी पर रहते थे। लेकिन जैसे ये फासला कुछ नहीं था उनके लिए।

यहाँ कोई किसी को जानता था नहीं था, हाँ भले ही यहाँ आये सभी एक ही जगह से थे। सभी बस, एक - दूसरे को ताकते रहते थे। हर निकलने वाला शख़्स अपना ही पड़ोसी मालुम पड़ता लेकिन उसको पहचानना थोड़ा मुश्किल था। गलियाँ, चौबारें, रेनबसेरे और यहाँ के साँझे इलाके सभी में एक रस़ था, जिसे पाने के लिए दिल चाहता था। उनको यहाँ पर आये केवल अभी तीन ही महीने हुए थे और वो अपनी कोई जगह तलाश रहे थे। जिसके लिए वो ना जाने कितनी ही दूरी तय कर लिया करते थे। ये जगह रहने के लिए नहीं थी, ना ही सोने के लिए, ना ही काम के लिए और ना ही बतियाने के लिए। ये तो कुछ और चाहत से तलाशी जा रही थी।

वो खुद से भाग रहे थे मगर अकेले नहीं थे। ये ही उनकी सबसे बड़ी ताकत थी। यहाँ की हर जगह अपनी तरफ खींचती थी, हर जगह खुली पड़ी थी। गली पर कोने का मकान, उधड़े पड़े पार्क, लोगों के बिना खाली पड़े चौपाल। ये सभी हिस्से अपनी ओर खींचते। अव्वल तो ये जगह इतनी बसी भी नहीं थी के उनके हिस्सो को किसी नाम से पूकारा जा सके। यहाँ पर घर, घर नहीं थे, गली, गली नहीं थी और यहाँ के पार्क, ये पता नहीं था कि वो पार्क है या दुकान लगाने वालों के लिए ठिया। बस, ये ही तय कर पाना मुश्किल था।

इतना होने के बावज़ूद भी वो ऐसी जगह तलाशते जहाँ पर उनकी आवाज़ किन्ही और आवाज़ों से मिलती हो। जहाँ पर वो कुछ बोले और उस बोले हुए को कोई बड़ाने वाला या काटने वाली कोई तो आवाज़ हो। जहाँ पर वो किसी नई आवाज़ को रच सके। किसी की आवाज़ से मिला सके या वो उस आवाज़ से अपनी आवाज़ की तेजी को पहचान सके। कान तो सुनना जानते थे जो बिना कुछ सोचे-समझे बस, कुछ सुनने पर उतारू होते लेकिन उन्हे हर वक़्त कोई आवाज़ कैसे सुनाये। ये उन्हे तिल - तिल कसोटता था। इसलिए वो उस आवाज़ से मिलने चले जाते जिसे सुनने के लिए वो जगह – जगह घूमते थे। वो जहाँ पर रहते थे उस जगह में किसी भी आवाज़ को सुनना न के बराबर था। यहाँ पर आने के बाद जैसे सभी अपनी आवाज़ कहीं छोड़कर आये हो। कभी-कभी तो वहाँ पर लगता था जैसे दम ही घूंट जायेगा। दिन का कोई तो वक़्त हो जहाँ पर ये अहसास हो की हम ज़िन्दा है। ये अरमान तो कोई भी अपने में रख सकता है। तो वो क्यों नहीं रखते?




सुबह के ये दो घण्टे उनके पूरे दिन और रात की खामोशी को मिटाने के काम में आते। जिससे वे बेहद खुश थे। और अपने पीछे वो सबको दौड़ाते थे। ये पूरी टोली थी लेकिन वो अकेले थे। कई जगहों से खुद को धकेलकर वो तरह – तरह की ताज़गी का मज़ा लेने पर वो हमेंशा तत्पर रहते। वो जंगल उनके लिए वो जगह बना जिसको वो शब्दों में जाहिर नहीं कर सकते थे। जिसे कभी सोच नहीं पाते थे और जिसके बारे में वो कभी किसी को समझा भी नहीं पाते थे। बस, वहाँ पँहुचकर वो खुद से बाहर चले जाते थे। जिसका उन्हे पक्का अहसास था। वो जंगल सही मायने में उनके लिए टूटे - फूटे शब्दों में कहे तो उसके मायने किसी अभ्यास की जगह से कम नहीं थे। उनके लिए वो लीन होने की जगह भी कही जा सकती है। जहाँ पर वो अपने को ताज़ा करने के लिए भागे फिरते थे।

ये दस किलोमीटर का रास्ता उनका कैसे कट जाता ये बताना उनके लिए थोड़ा मुश्किल होगा। क्या - क्या बनता जा रहा है वो देखते - देखते चलते चले जाते थे। दो को जगाते - दो को उठाते और भागे फिरते। एक रेस़ सी रोज़ाना सुबह जमीन में पाँव मारती हुई निकती थी। रात हो या सुबह, यहाँ कोई भी किसी की नज़रों से छुपकर कुछ नहीं कर सकता था। आँखों में नींद हो तो कोई कुछ करे। ये जगह तो जैसे हर दम जागी रहती थी।


सवेरे - सवेरे ये जंगल पूरा भरा रहता था। जिसमें वो भी शामिल थे। हाँ मगर वो यहाँ पर वो किसी को जानते नहीं थे। लेकिन यहाँ के हर माहौल के हिस्सेदार जरूर बन गये थे। कोई खेतो में से चोरी छुपे सब्जियाँ तोड़ने आता था तो कोई खाली बैठने, कोई जानवरों को चराने आता था तो कोई सरकार नया क्या करवाने वाली ये कहने। इसी धुन में ये रोज़ चमकता था।

जहाँ पर एक तरफ स्कूल बनाया जा रहा था वहीं दूसरी तरफ, पार्को - पार्को घूमकर नाटक करने वालो का भी जोर था। नाटक मण्डलियों को देखकर लोग ऐसे भागे - भागे दौड़ जाते थे की क्या कहिये। ये भी सभी को जमा करने का सबसे बड़ा हथियार था। चेहरे पर रंग पोतकर अपनी कहानी बताने वाले कुछ लोग कहीं पर जम जाते और बातें शुरू हो जाती। कभी गली में ही इसके जलवे नज़र आते तो कभी किसी घर के सामने। कभी बस स्टेंड की तरफ तो कभी भीड़ के सामने और जहाँ पर भीड़ नहीं होती थी वहाँ पर ये मज़मा जमाने के लिए हमेंशा तैयार रहते।

इन मडण्लियों में अदाकारी करने वाले कभी पहचानने में नहीं आते थे। ये ही इनका सबसे बड़ा पाठ होता था। जिससे मिलने की इच्छा शायद कोई ना जताता हो लेकिन बिना पहचान में आने वाले बन्दे से लोग बेधड़क अपनी उलझने बताते कभी नहीं चूकते थे। शायद वे तब कभी नहीं हो पाता जब उस अदाकारी करने वाले को पहचान जाते। उस वक़्त में तो किसी को ये तक नहीं मालुम होता था कि इस अदाकारी के चेहरे के पीछे कौन सा शख़्स है? बस, नाटक के ख़त्म होने के बाद ही सारी उलझने सामने आती थी नहीं तो ये कभी नहीं मालुम किया जा सकता था कि ये बाकी समय कहाँ होती हैं? कोई भी किसी को कुछ छुपाते हुए चलना चाहें तो चल सकता है।

ये सारा उस भीड़ का असर होता जिसका कोई उद्देश्य यहाँ पर लोगों को पता होता। नहीं तो बस, लोग भीड़ में शामिल होने चले आते और माहौल का पूरा मज़ा लेकर वापस अपने - अपने कोनों में घुस जाते। खाली यही तो भीड़ नहीं थी जो इस जगह की थी। कहीं पर पर्चियाँ भरने की लाइने थी, कहीं पर रोज़गार के लिए हुज़ुम था, कहीं पर समान ढोहने वालो की रेज़गारी तो कहीं पर इन मनोरंजनो के माहौल थे। लोग इस सब में अपने तार जोड़ते चलते।

वो सबको लेकर वहाँ पँहुच जाते, इस वक़्त में किसी के चेहरे पर कोई नकाब नहीं होता। सब कुछ साफ – साफ समझ में आता। कहानी के बारे में भी और उस कलाकार के बारे में भी वो कौन है और कैसा मुँह बनाकर पैश आ रहा है। वो छुपकर ये सब देखते रहते। उनके साथ उनके साथी भी। ये तड़प उनको इस पार्क से तब लगी कि वो कौन हैं? जो उनके यहाँ पर नाटक करते हैं और लोगों को एक ही पल में जमा कर लेते हैं। ये कहाँ पर सीखते हैं?

ये सवाल असल में पर्दे के पीछे के हिस्से को देखने के होते। जो हर शख्स देखना चाहता है कि आखिर में जो हो रहा है वो पर्दे के पीछे कैसे तैयार होता है। वो भी अपने साथियों की फौज़ लेकर वहाँ पर दौड़े चले जाते थे।

नाटक चालू है, चार लड़के और दो लड़कियाँ है, दोनो लड़कियाँ बीच में खड़ी हैं और लड़के बैठे हैं। वो कुछ गाना गाते हुए घूम रहे हैं। शायद ये नाटक पानी पर है। वो पानी के ऊपर गीत गा रहे हैं। वो लड़कियाँ अपने बगल को कुछ ऐसे करती हुई घूमती जैसे ही उनके हाथों में कोई मटका या बाल्टी है। और गोल – गोल घूमती जाती। वो लड़के उनको रोकते और कुछ बताने की कोशिश करते। उसके बाद में नाटक दोबारा से चलता। कभी - कभी वो सभी हाथों को ऊपर की तरफ में करके नाचते और फिर सभी नीचे की तरफ में बैठ जाते।

कुछ देर तो वो इसी को देखकर बेहद खुश होते। उसके बाद में वो सभी को जंगल के कोने वाले हिस्से में ले जाते और उसी देखे हुए को दोहराते। सभी ने उस नाटक को बड़े ही ध्यान से देखा था शायद, तभी किसी को कुछ भी कहने की जरूरत नहीं पड़ी थी। सभी उसी तरह से करते जाते। जैसा की वो देखकर आये थे। लेकिन ये प्रोग्राम ज्यादा देर तक चल नहीं पाता था। जिनके ये खेत थे उनको अक्सर लगता था की यहाँ पर लोग सब्जियाँ तोड़ने आते हैं। तो वो हाथ में लठ उठाये सबको मारने चले आते थे। फिर क्या था दोबारा से दौड़ लगानी पड़ती। मगर मन में वो सारी की सारी अदाकारी जमा हो जाती जो आज देखी थी। अब तो वो कहीं पर भी उसे कर सकते थे।

रोज़ शाम में ये नाटक दिखाया जायेगा ये उनको भी पता था और यहाँ इस जगह में भी सबको पता होता। ये कोई फ़िल्म तो नहीं थी जो रात में अपनी रोशनी से सबको अपनी तरफ आने पर मजबूर करदे या ये कोई सरकारी काम तो नहीं था जो बिना बताये किसी जगह पर बैठ जाये तो लोग खुद – ब – खुद उसकी तरफ में भागे चले आयेगे। ये तो नाटक था, नुक्कड़ नाटक जिसे करने से पहले पूरे इलाके में जा - जाकर ये कहना पड़ता था कि ये क्यों हो रहा है और कहाँ हो रहा है? तब कहीं जाकर लोग आते थे और अगर आ भी जाते तो उनको रोकना बहुत ही तेड़ा काम मालुम होता था। किसी एक का भी मन ऊब जाये तो सारे उसके पीछे - पीछे चल देते थे। इसलिए उनको जमाये रखना पड़ता था। वैसे ये उठकर चले जाने दौर सन 1982 से शुरू हुआ था उससे पहले तो यहाँ पर सभी इनको ऐसे देखते थे जैसे ये सब उनके लिए, उनके बच्चों के लिए और हर किसी के लिए बहुत जरूरी है। जब लोग बैठे सब कुछ ध्यान से सुनते और देखते थे तो वो मंजर बहुत ही सुहावना लगता था। ये दौर बहुत महत्वपूर्ण था कि इस दौर में सब कुछ अपने लिए है ये सोचकर अपनाया जाता। कुछ भी बेकार का नहीं है। इसी सोच को दिमाग में रखकर लोग ये खोज़ने चले आते की इसमें जरूर उनके लिए, उनके परिवार के लिए, काम के लिए या बच्चों को कुछ दिखाने के लिए है। पूरे माहौल में वो उसी को पकड़ने के लिए मौज़ूद रहते।

नाटक कलाकार ये सब जैसे जानते थे। वो भी चेहरे पर रंग पोतकर जब पार्क या गली के बीच में उतरते तो बच्चों और बड़ो को अपने गोले में आने का न्यौता देते और नाटक में उन्हे शामिल कर लेते। कुछ ही देर में बस, नाटक कलाकारों की आवाज़ ही सुनाई देती वो तो नज़र आना ही बन्द हो जाते। उनको घेर लिया जाता। एक के ऊपर एक चड़ने की कोशिश करता। लोग काँधों के ऊपर काँधा चड़ाकर देखते। बच्चो को अपने काँधों पर बिठाकर सब दिखाने की कोशिश करते। कुछ लोगों के बीच के गेप में से देखते तो कुछ साथ में रखे समानों पर चड़ जाते। यहाँ पर कोई भोंपू तो नहीं था जो दूर तक आवाज़ को पँहुचा सके, यहाँ पर बस, अपनी ही आवाज़ की तेजी थी जिसे इतना तेज़ करना होता था की सबके कानों में वो आसानी से उतारी जा सके।

उनको भी शौक लग गया था इस अदाकारी का। शायद किसी को लगे या ना लगे लेकिन उनके मन में इसको लेकर तार जुड़ने लगे थे। जब भी कोई नाटकर कहीं होने वाला होता तो वो सब कुछ छोड़ - छाड़कर वहाँ जाने को अमादा हो जाते। उनपर तो जैसे भूत सवार था। जिससे वो बिलकुल भी नहीं कटराते थे। कुछ भी करने को तैयार थे। पढ़ाई करना तो उस वक्त में था नहीं। स्कूल तो इस वक़्त में यहाँ पर बनाये जा रहे थे। तो किसी को कोई जवाब देने की जरूरत नहीं थी की कहाँ जा रहा है और पूरा दिन कहाँ था? ये सब सवाल तो बस, कहीं छुप गये थे।

वो अपने चेहरे पर पॉउडर लगाकर अपने घर में ही पूरे नाटक को दोहराया करते। शीसे के सामने खड़े होकर वो कभी दिहाड़ी पर काम करने वाला आदमी बनते तो कभी कम्पनी का मालिक तो कभी किसी बेटी का बात और कभी राशन की दुकान का मालिक। इस सब क़िरदारो को वो अपने चेहरे के भाव से खेला करते थे। मगर वो बात कभी नहीं ला पाते थे जो वो देखकर आये थे। मगर फिर भी दरवाजा बन्द कर वो पूरा वही माहौल बनाने की कोशिश करते जैसा वो देखकर आये थे। ये सब गुपचुप ही हो रहा था और जब वो ठीक से उस बात में उतर नहीं पाते तो भाग पड़ते जंगल की ओर, और वहीं से सब कुछ देखा करते जहाँ उन्हे सब कुछ दिखता था मगर उन्हे कोई नहीं देक पाता था। न जाने कितनी ही बार तो वहाँ से फिसले हैं लेकिन उन्हे उस वक़्त दर्द कहाँ होता था। वो तो रात में मालुम होती थी मगर वो भी रात दर्द के सपनों में नहीं उन चेहरों में खोई रहती। दर्द कहीं गुम हो जाता। चाहे कुछ भी हो लेकिन इसमें उन्हे इतना दिली शुकुन मिलता कि वो किसी को भी पकड़कर बता देना चाहते थे। हर वक़्त अपने साथियों में वो यही बताते रहते की इस बार वो कहाँ गये थे ये नाटक देखने और वहाँ पर क्या हुआ था। उनकी इन्ही बातों से उनकी गली में जैसे बातों के ठिकाने बनते चले जाते। लोग कुछ देखना चाहते थे और वो कुछ बताना। ये दोनों जब एक साथ चलती थे तो बस, बातें और किस चीज़ पर होना चाहिये नाटक ये निकलने लगता था।

इस दौरान बातों के अलावा था ही क्या किसी के पास, अपने किलोमीटर के सफर से लोग जब वापस आते तो बस, कहीं पर बैठना चाहते थे और अगर जहाँ पर वो बैठे हैं वहाँ पर ये नाटक मडण्ली चल रही हो तो क्या कहने। उसी धुन में वो खोना चाहते थे।

इस बार नाटक दहेज़ पर होने वाला था, पार्क भी चुन लिया गया था। सबको जैसे पता चल गया था कि ये कौन सी जगह पर होने वाला है। लोग उसी की तैयारी में लग गये थे। पार्क की मिट्टी पर पानी का छिड़काव कर दिया गया। बीच की जगह छोड़कर बाकी के हिस्से पर दरी और खाट बिछा दी गई। एक गोल से आकार में उस समा को रच दिया गया। कलाकार पहले आये या ना आये लेकिन देखने वाले पहले ही चले आये थे। सभी बहुत ही सलीखे से पूरे पार्क को घेर लिए। पास में बैठने वाले ज्यादा थे और दूर से देखने वाले कम। लेकिन इसकी कोई लड़ाई भी नहीं थी। सभी बेहद चुपचाप थे। बस, सब इतना जानते थे की उन्हे नाटक के मज़े लेने है। जो वो कहीं से भी ले सकते हैं।

ये नाटक किसी फ़िल्म की कहानी से कम नहीं था और ना ही किसी फ़िल्म से। तो क्यों न इससे दिल बहलाया जाये और साथ – साथ कुछ सीखा भी जाये। ये सोचकर यहाँ पर भीड़ जमनी शुरू हो जाती। औरतें, मर्द, बच्चे और बुर्ज़ुग सभी इसी की ताल में रंग जाते।

कुछ समय के लिए यहाँ पर कुछ भी सुनाई नहीं देता था सिवाये उन कलाकारों के चिल्लाकर अदाकारी करने के। सारी आवाज़े से खामोश हो जाती। किसी का रोना, किसी का हँसना और किसी का कुछ बताना सब कुछ उन आवाज़ों को बिना रोके चलते जाते। पर सब कुछ रच गया था। वो कहानी और नाटक के कलाकार उस भीड़ को जहाँ ले जाना चाहे, जो कहना चाहे और दिल में कुछ डालना चाहे वो सब कुछ मुमकिन सा लगता। कोई भी बाधा नहीं होती। नाटक कब शुरू होता औत कब ख़त्म ये किसी को भी पता नहीं होता था। सारी कहानी यहाँ सबको समझ में आती थी।

आज नाटक के बाद में कुछ बातें रखी गई थी। अगला नाटकर नई जगहें बनाने पर होने वाला था और उससे अगला बाल मजदूर पर। तो उसके लिए बहुत सारे साथियों की जरूरत थी। वो पूरे नाटक में उस बात को रख चुके थे। पहले तो किसी के भी कुछ समझ में नहीं आया था। ये नहीं की होने क्या वाला है बस, यही की नाटक में वो क्या कर सकते हैं? कुछ देर के बाद में भीड़ उनकी तरफ बड़ी। बहुत सारे लोग उस मण्डली में जुड़ने के लिए तैयार हो गये।

ये पहली बार हो रहा था इस जगह में जब कोई अपने साथ मिलने के लिए कह रहा था। कई माहौल यहाँ पर आये और चले गये। आज भी आते रहे है और चले भी जाते हैं लेकिन कोई अपने साथ ले जाने की बात किसी ने नहीं कही थी तो भीड़ जैसे सतके में आ गई थी। लेकिन उनको पता था कि ये मौका कभी मिलेगा जरूर। वो बिना कुछ कहे ही उसमें जुड़ गये।

अब कुछ भी छुपकर देखने की जरूरत नहीं था और न ही दरवाजा बन्द करके कुछ बनने की। अब सारे चेहरे के भाव बेधड़क चेहरे से खेलने के लिए बाहर आ चुके थे। जंगल का वो कोना जहाँ पर चार दोस्त छुपकर कुछ बनने की चाहत रखते थे वो सरेआम हो गया था। जंगल तो बहुत पास में आ चुका था। एक दम पास में। वो जब चाहते वहाँ पँहुच जाते। बेहद आसानी से और बहुत दिल से।

वो अकेले रहते थे तो उनका घर भी अब उस मण्डली के लिए अभ्यास की जगह बन गया था नहीं वो वहाँ से हर कहानी इस जगह के कोनों में जाती। कहानी के अहसास और क़िरदार यहाँ पर पैदा होते और अपनी दुनिया बाहर में छोड़ आते। ये घर चिड़िया के घौंसले की तरह हो गया था जो कुछ उम्र के बाद में खाली हो जाता है। खाली रहने का आसरा ही नहीं रहता वो कुछ पल ठहरने का ठिकाना बन जाता है। अपना है लेकिन अहसास में कुछ और है। खुद ने बनाया था लेकिन खुद के लिए नहीं। अपनो का है लेकिन अपने कौन है ये तय नहीं है। सब कुछ खुद की तस्वीर में जुड़ जाता है। ये चाहत पल चुकी थी।

आज उनका पहला नुक्कड़ नाटक है और वो आज पहचानने में नहीं आ रहे हैं। 

लख्मी 

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