Friday, March 7, 2014

दरवाज़े के अन्दर का दौर.... ना मंजूरी की दुनिया...

उनके घर में किसी को भी उनको लेकर मंजूरी नहीं थी मगर इसके बावजूद भी उनकी जिद उनके अंदर एक आग की तरह दौड़ती रही ये बिल्कुल रगों में बहते खून की तरह था जिसका हल्का सा भी छलकना आँखों के सामने दुनिया रचने के समान होता। वो कुछ भी नहीं छोड़ सकते थे।वो सभी कुछ आत्मा और सांसो की तरह उनके अंदर हमेंशा बलबलाता रहता था।

उनका नाच ही उनका दुश्मन बन गया मगर दूसरी और वही उनकी धड़कन थी। कैसे उससे चूक जाए ? कैसे उसे फाड़कर फैंक दे और कैसे उससे मुँह मोड़ ले इतना आसान नहीं था। अपनी जिन्दगी से निकाले 5 साल उनके लिए कोई बोझ नहीं थे कि जब चाहे किसी के कहने पर भी उसको उतार दे ना मंजुरी में जीना उनको कबूल था। मगर वो नहीं जानते थे की कितना बड़ा नाटक उनके घर में उनके ही खिलाफ चल गुजरेगा।

उनका यूँ स्टेजों पर नाचना या जब चाहे मोहल्ले के गली-कूचो और शादियों के हॉलो में गायब हो जाना किन्ही बन्दीशों की माफिक ठेस देने लगा था। पल भर के लिए ये कोने उनके लिए क्या बन गए थे? ये कोई नहीं जान सकता था। उनकी ज़िन्दगी के ये बीते पाँच साल अब खाली उन्ही कि जिन्दगी के गवाह नहीं थे बल्कि एक मन्जूरी की तरह कई नाचते पाँच-पाँच सालों के गुनाहगार बन गए थे। उनका कर्ज है उन जगहों पर जिनको उन्होनें रातों को जगाया है भरोसा था उन आँखों पर जिनको उन्होनें बिना शब्द दिये सपने दिखाये है।



देखते-देखते उन्ही छुपे कोनो में साथियों की तादात अच्छी खासी हो गई थी। हर कोई अपना-अपना साथी और लड़ने वाला साथ ले आया था। कभी उसी से बहस करता तो कभी तो उसी के साथ घंटो रियाज़ करता। बोझ उनके दिल पर हर रात का और जगाहों का ज्यादा बड़ गया था। ये कोने उन आँखों को भी अपनी ओर खींच लाये थे जो दिन की दौड़-धूप में काम की रेज़गारी में कहीं उलझ जाते थे। उन हाथ-पैरों को वहाँ पर शुकून के कई पल मिलने लगे थे। जिनको कहीं ठहरने का मौका भी नहीं मिलता था। बल्कि वे अवसर बनने लगे थे जिनका कोई मोल नहीं था। कि ये किसी स्टेज के भागीदार है भी या नहीं।

बस, अपनी किसी पढ़ाई को कोई पूरी करने आता तो उसका स्वाद चखने। यहाँ पर कोई भी किसी स्टेज की भूख लिए नहीं आता था। कोई देखने चला आता, कोई सुनने, कोई चोरी-छुपे का खेल खेलने, कोई शामिल होने तो कोई रात के ख़त्म होने के खौफ से। जैसे वो खुद ही चले आया करते थे। रात यहाँ पर कोई काली नहीं होने देना चाहता था।

माहौल गर्म हो गया ता। घर में सभी चीज़ें बेहताशा बिखरी पड़ी थी। कोई तुफान जैसे दस या पंद्रह मिनट पहले ही होकर गुजरा है। उनका एक गाने पर नाचना गज़ब हो गया था। "औरतों की तरह उस गाने पर नाच रहे थे" ये लाइन उनकए घर कई ना जाने कितनी ईंटों को उखाड़ चुकी थी। उनकी समझ का यहाँ पर कोई हकदार नहीं था और न ही कोई दावेदार था। कुछ देर तक तो वो यूहीं सब कुछ ताकते रहे। मुँह से पहला शब्द कौन सा निकाले ये सोचने में उन्हे तकरीबन आधा घंटा लगा।

उनके हाथों में वही टेपरिर्कोडर था जो उन्हे उस गाने पर नाचने पर मिला था। शुक्र है वो इसे अपने साथ ही लेकर चले गए थे। इसलिए इसकी जान सलामत थी। नहीं तो आज इसकी सबसे पहले आत्मा बाहर होती।

वो सकबके से वहीं पर बैठ गए। कोई बहुत कड़ा फैसला उनके कानो में गूंजा, "हम यहाँ से मकान बैचकर जा रहे हैं दक्षिण पुरी में रहेगें। वहीं पर चलने की सोचों।"

एक पल के लिए सब कुछ रूक सा गया था। सब कुछ जैसे उल्टी कढ़ाइ की तरह बदसूरती में बदल गया हो। हाथ में पकड़ा टेपरिर्कोडर किसी इंच की भांति लगने लगा था। लगता था जैसे इसी से अपना नुकसान हुआ है। शौर इतना ज्यादा था की पड़ोसियों के घर में आने के सारे दरवाज़े खुल गए थे। वे तो जैसे वहीं पर खड़े यही सोचते रहे की आखिर नराज़गी किस बात की है।

वो सब कुछ शांत करते हुए अपनी बीवी के पास गए। कुछ पूछने के बदले उन्होनें सब कुछ मानने की फरमाइश रखदी। उन्हे भी नहीं मालुम था कि बात अब सिर से पार हो चुकी है। नाच बटा हुआ है ये नज़र आने लगा था। इस बँटवाने में सबसे पहले उनका घर, परिवार, वो कोने और सबसे पहले वे खुद ही फँसे थे। ये घर उस बँटवारे में शामिल तो होना नहीं चाहता था। मगर किसी ने जैसे हाथ पकड़कर खींच लिया था। ये घर उस बँटवारे में शामिल होना नहीं चाहता था। उनकी बीवीभी उस बँटवारे के खिलाफ नहीं थी। उनके पती नाच सिखाते हैं या नाच नाचना जानते हैं वे इससे परहेज़ नहीं करती थी। वे तो खौफ़ खाती थी उससे जिसमें नाच को समेंटा गया था। इस हालात में उनको कतई पसंद नहीं था कि उनका पती नाचे। आसपास के लोग क्या सोचेगें इसी डर के कारण वो किसी भी बात को समझने के लिए तैयार ही नहीं थी। वे रोए चले जार रही थी और यहाँ से चले जायेगें ये भी कहे चले जा रही थी। और वो बस, अपने घर की उखड़ती दिवारों व इन्टों को सही-सलामत बनाये रखने की कहे चले रहे थे। कुछ ही समय के बाद घर का सारा माहौल शान्ति में तबदील हुआ। वो अपने हाथों में रखे उस टेपरिर्कोडर को टेबल पर रख कर बिखरा हुआ समान उठाने लगे। घर के बाकि लोग भी उनके साथ इसी काम में जुट गए। बर्तन, कपड़े, तस्वीरें, जूते और झाड़ू सब कुछ तितर-बितर हो रखा था। बातें काफी कठोर रही होगीं। यही वो जमीन देखे महसूस किये चले रहे थे।

खाना खाते समय उनकी बीवी उनकी तरफ में देखते हुए बोली, “आपको लोग अलग-अलग नामों से पूकारने लगे हैं। मुझे ये बिलकुल भी नहीं भाता, मुझे गुस्सा आता है।"

ये कहकर शान्त हो गई और फिर थोड़ी देर के बाद बोली, “ मैं नहीं चाहती की कोई हमारे घर पर उंगली उठाये। चलो अब खाना खा लो, पता नहीं की दिन में आज कुछ खाया भी होगा या नहीं। भरे पेट नाचते तो पेट में दर्द हो जाता।"

बात का कोई छोर तो नहीं था लेकिन इस बात अन्त जरूर पता था। उन्होनें सारी बातों को समझते हुए उन्हे वहीं रोक और उस लाये टेपरिर्कोडर को चला दिया। उसमें रेडियो भी था। मिट्टिया रंग का वो टेपरिर्कोडर था और उसमें एन्टीना भी था। उसमें उन्होनें रेडियो को बन्द करके वही गाना चला दिया जिसपर वो नाचे थे। उनपर एक वही तो कैसेट थी जो उन्हे तोहफे में मिली थी। उनकी लड़कियाँ उसके गाने पर नाचने लगी। उनकी बीवी भी हँस रही थी उनकी लड़कियाँ अपने पापा को उठाती लेकिन वो किसी और ही धून में थे। टेपरिर्कोडर की वो आवाज़ कम थी लेकिन पूरे कमरे में गूंज रही थी।

वो उसे देखते रहे, बाहर चाहें कुछ भी हो रहा हो लेकिन उनके अन्दर क्या पक रहा है वो समझना मुश्किल था। वो वादा कर चुके थे की वही करेगें जिससे उनके घर पर कोई उंगली न उठा सके।

रात काफी हो चुकी थी, इतना सन्नाटा था कि कुत्ते भी भौंकने लगे थे। सारे रास्ते और गलियाँ डरावनी हो गई थी। वो अपना रेडियो अपने कुर्ते में दबाये उन्ही गलियों में से निकल रहे थे। चप्पलों की आवाज़ से उस रेडियों की आवाज़ बहुतों को सुनाई दे रही होगी। गाना पहली बार तो नहीं सुन रहे होगे लेकिन यूं गलियों में से कभी गाने की आवाज़ नहीं आई होगी।

आज की रात तो बहुत ही गज़ब बितने वाली थी। आज हाथों की ताली और जमीन की थप-थप से आगे निकल जायेगें। वो ये सोच-सोचकर मन ही मन मुस्कुरा रहे थे। आज वो शादी का हॉल संगीत की आवाज़ के साथ खेलेगा और वही उसकी संगनी बनेगी। शादी के हॉल में उन्होनें अपना कदम रखा ही था कि सभी उनकी ओर लपके। सबको तमन्ना थी उस टेपरिर्कोडर को देखने की और छुने की। जिसको अभी तक किसी दुकान में ही देखा था वो आज अपने हाथो में होगा। उसकी आवाज़ सुनने की लरक बेहद उजागर हो चुकी थी। अब तो न तो कोई गाना भूलेगा और न ही कोई ताल गवायेगा।

अंधेरा गहरा था यहाँ किसी को क्या दिखता? लेकिन आज तो अंधेरा भी कोई रोक नहीं सकेगा। उसे छुने में जो मज़ा है वो तो लेना ही होगा। उन्होनें उस टेपरिर्कोडर को सबके बीच में रख दिया। यहाँ इस हॉल में उसकी आवाज़ काफी गूंज रही थी। ऐसा लगता था की जैसे सारा हॉल ही नाच रहा है और दीवारें गा रही हैं। सभी वहगी गाना सुनना चाहते थे जिसकी वज़ह से ये टेपरिर्कोडर आज उनके बीच में इस सभा में आया था। सभी ने उसी गाने को सुनने की इच्छा जताई और वो गाना लगा दिया गया।

दिन चाहें कहीं का कहीं खो रहा हो मगर ये रातें जाग रही थी। अपने दिलों में पाली जा रही थी। सुनशान 1986 की ये रातें किसी भी तरह की आवाज़ों को अपने में समेंटने की ताकत रखती थी। जिसमें चाहें को कोई सम्मोहित करले या फिर कोई माहौल रचा ले। इस दौर में कोई भी आवाज़ न तो शौर थी नहीं हल्की परत। इस वक़्त तो हर आवाज़ सुनी जाती, उसमें खोया जाता और उसे जगाया जाता। सभी उसमें लीन होने की इच्छा से रातों को जाग रहे थे।

हॉल आज बेहद रोशन था, उसमें अब ऐसा कोई गाना तलाशा गया जिसपर पंद्रह लड़को को नचाया जा सके। रेडियो ही इस दुविधा को हल कर सकता था। आवाज़ चाहें कैसी भी आये लेकिन वो गाना मिल जाये जिसपर नचा जा सके। रात के बारह बजे के बाद में रेडियो जैसे लोरियाँ सुनाते थे। पुराने गानो की लड़ी चल रही थी। एक चैनल पर राजकपूर जी की अवारा फ़िल्म चल रही थी तो दूसरे पर दा इवनिंग टू पैरिस तो तीसरे पर सत्यम,शिवम, सुन्दरम के गानों की वर्णमाला नाच रही थी।

लगता था जैसे आज रात तो पूरी गानें खोजने में ही निकल जायेगी। किसी भी गाने पर पाँव ही नहीं उठ रहा था। काफी देर तक तो सभी इसी धून में कैद थे, हर कोई उस टेपरिर्कोडर के कान ऐठने में मग़्न था।

सभी जैसे उस ज़रा से डिब्बे में तसल्ली तलाश रहे थे। सभी ताकत लगा दी जाती मगर शुकून नहीं मिलता। आखिर में वही गाना लगा दिया गया।

गाना गूंजा, "सनम तू बेवफा के नाम से, मशहूर हो जाये।"

दबादब कूदने वाले पाँव इस नर्म गाने पर कैसे थिरकने वाले थे ये किसी को नहीं मालुम था। लेकिन कोई बात नहीं गोला तैयार कर दिया गया।

"इस गाने में डांस चेहरे से होता है। गाने में जो भी बोल और लाइनें आ रही है उसमें खाली आपके हाथ, और चेहरे के भाव से ही गाने को रचा जाता है।"

वो ये बोलकर चुप हो गए। लेकिन किसी के समझ में नहीं आया था। वो तो गाने की ताल पर तैरना चाहते थे। वे बिना अब कुछ बोले, गोले के बीचों-बीच खड़े हुए। गाना चलना शुरू हुआ। सभी उनको नाचता हुआ देखना चाहते थे। वो अब सबके बीच में मग़्न होने की चाहत में थे।

उनका चेहरा छत की तरफ था, और आँखे घूम रही थी। गाने के शुरू होते संगीत पर उनका चेहरा ऊपर की तरफ ही रहता। जैसे ही गाने में शब्द शुरू होते तो उनका चेहरा वहाँ पर सभी के चेहरों से टकराता, आँखे यहाँ-वहाँ मटकती और उसी के साथ उनकी कमर हवा में घूमती। बलखाना और हाथों से सभी को अपनी ओर इशारा करना इस गाने की ताकत थी। गाने में नख़रा वहाँ पर बैठे सभी में हँसी पैदा कर रहा था। और वो इस नख़रे से खेल रहे थे।

"सनम तू बेवफा के नाम..... से मशहूर हो जाये"

ये इस गाने की पंच लाइन थी। वो इस लाइन पर जमीन में एक पाँव बिछाये और दूसरा पाँव मोड़कर उसके घुटने पर अपने हाथ की कोहनी रखकर सभी को अपने नख़रे से रिझाने का काम करते। किसी की भी आँख यहाँ उनपर से एक पल के लिए भी झटकती नहीं थी। जैसे मुँह खुले रह गए थे सभी के। कोई उनकी कमर, कोई आँखें, कोई चेहरा तो कोई उनकी मुद्राओं को देखता रहता। वो नाचे जा रहे थे, कभी-कभी तो उनकी आँखें यहाँ पर बैठे सभी की आँखों से टकराती तो कभी लगता की वो यहाँ पर है ही नहीं। कुछ मुद्राओं में तो वो अपनी आँखें बन्द करके बस, घूमते जाते। उस वक़्त में कुछ और भर दिया था उन्होनें।

यहाँ पर शायद ही किसी ने ये गाना पहले कभी सुना होगा। लेकिन आज इस रात के पंद्रह मिनटो ने इसे इतना जगा दिया था कि किसी के दिल के अन्दर से इसका निकलना आसान नहीं होगा। जब भी इस गाने को कोई अपने मुँह से भी गायेगा तो उनकी मुद्राए उसमें झलकती नज़र आयेगी। बस, आँखों के सामने वही नाचते नज़र आयेगें।

कितनी देर हो गई है?, यहाँ पर कब तक बैठना है?, यहाँ से कब भागना है? ये सब भूल चुके थे। अब किसी को चौकीदार के आने का भी डर नहीं था। गाना ख़त्म हुआ और सबको होश आया। अपने आप ही दूसरा गाना चल गया था, "ओ खिलोना, जानकर तूम तो मेंरा दिल तोड़ जाते हो।"

इस गाने की पहली लाइन पर उन्होनें अपना चेहरा ज़रा सा बिगाड़ा और अपना जिस्म खुजाते हुए बाहर आ गए। सभी उनके इस रूप को देखकर बहुत हँसे। जो शामियाना यहाँ सबके दिलो-दिमाग में उन्होनें लगा दिया था। वो इतना गुम हो गया था कि सबको उसको अन्दर से बाहर खींचना था। जिसमें साथ निभाया उस दूसरे गाने की पहली लाइन ने।

रात अभी ख़त्म नहीं हुई थी, यहाँ से कोई जाने वाला भी नहीं था। ये रात अभी बहुत से गुल खिलाने वाली थी। रात जितनी गहरा रही थी उतना ही आवाज़ में ज़ोश आने लगा था।

लख्मी

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