आज साकेत
सैनिक फार्म के नजदीकी लगे आर्मी केंप को देखा। वहाँ पर कई सैनिक थे जो आ जा रहे थे।
उन्हे देख कर लगा की ये सेना के लोग नियम और कानून को निभाते हुये भी आज़ाद रहते हैं।
इस खुले शहर की तरफ आते हैं, अपनी खुवाइशो और मान सम्मान के परचम लिए जगह जगह के पड़ावो को बदलते हुये शायद
इन के लिए कभी भी समय से आगे निकाल जाने का जुनून एक ताकत बन जाता है।
शहर भी कुछ
इसी तरह से अपने ढांचो को बुनता रहता है। हर सपनीली नागरी से जाग कर भी सोया सा ही
मालूम होता है, दिन
प्रतिदिन जागती सच्चाईयों से परिचित होकर भी विचलित करने वाली परिकल्पना कहाँ से आती
है और क्यो आती है ये गायब ही रहता है।
हमारे आगे
एक रफ़तरों से भरा महोल का बहाव है और इस की दिशाएँ भी अलग अलग हैं। इस के बीच हमे टेसी
से निकलती सच की परछाइयों को कैसे कैसे सोच सकते है? और सोच के साथ जुड़ी हर बनावट को समझने की क्या कोशिशें
कर सकते है? जो हमारे आसपास नजदीकी और हम से जुड़ी हो।
कोई इंसान
जो कहीं होकर भी होने का एहसास करने की चुनौती से जूझता है। वो क्या है? आपकी छाया क्या है? आप का रूप क्या है? आपके होने के संकेत क्या हैं?
ये उन सैनिको के लिए नहीं था। वे तो थे, और उन्हे दुनिया देख सकती थी।
राकेश
1 comment:
bahut khubsurat or gahra
Post a Comment