समाज़ मे "मैं" की आकृति ज्यादातर सिमटने के समान ही बनी रहती है जब तक वे खुद को "मैं" की कठोर और मूलभूल लकीरों से हटकर नहीं सोच पाता। वैसे एक बार को जब हम समझते हैं की जब भी "मैं" अपने खुद के अहसासों से बाहर जाने की कोशिश करता है तो उसे तिरछी नज़रों से टकराकर किसी घेरे मे आना पड़ जाता है।
मेरे "मैं" मे प्रतिरूप मे खाली एक ही रूप को सिमटना नहीं है पर फिर भी वो क्यों दरवाजे पर अकेला खड़ा दिखाई देता है? लोगों की खिचयाने वाली नज़रें, कहीं किनारे होकर बतियाने की या बातें बनाने की कोशिश क्यों "मै" को किसी किनारे करने की लालसा मे दिखाई देती है?
“मैं" के रिश्ते उसके रूप नहीं होते पर फिर भी वो उन्ही मे क्यों अपनी अकृति को बनाये चलता है?
हम हमेशा रोल और रूप के ही द्वंध मे रहकर अपनी छवियाँ बनाते जाते हैं। इस सभी छवियों मे मेरे जीवन और रोजाना मे कुछ महत्व है जिसके आधार पर मेरे काम और रिश्ते बन गये हैं। "मैं" अगर काम और रिश्तों से बाहर जाकर कुछ बनाना या सोचना चाहे तो क्या उभार पाता है?
"मैं" एक अभिव्यक़्ति से होकर निकलता है और साथ ही साथ अभिव्यक़्ति को बनाता भी है। लेकिन काम का लेवल "मैं" के महत्व और आकृति को बनने मे और बिगाड़ने मे बहुत तेजी से क्रियाये करता है। ये सारा खेल समाज और मोहल्ले से देखा जाता है।
हर "हम" और "मैं" की एक खास अहमियत है। जिससे किसी न किसी जीवन की मांग और उसके साथ नाता खोजने मे वो कभी लड़ता है तो कभी एक नई और ताज़ी बहस को बनाता है। हर जीवन खुद को दोहराने के शब्द की मांग करता है। जिसके साथ तरीके की राहें भी जुड़ी होती है। बस, इतना सोचने की जरूरत होती है की उस "हम" मे और "मैं" मे कितनी खुलकर बोलने की आजादी है। कभी - कभी "हम" भी भिचा और पिचका हुआ महसूस होता है और कभी - कभी "मैं" भी खुला और ताज़े होने का अहसास करवाता है।
यहाँ पर सवाल उभरता है -
हम क्या है और मैं क्या हूँ
लख्मी
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