अनुभव तब तक अनुभव बना रहता है जब तक कि उसमे सोच का स्वाद न मिला हो। बिना सोच और कल्पना के अनुभव बहुत "मैवादी” हो जाता है। उसके बाद में बस, मेरा जीवन – मेरी कहानी बनकर वो धोंस जमाने का काम करता है। जिससे बहस करना उतना ही मुश्किल हो जाता है जितना की उसमे खुद को तलाशना।
अनुभव जितना "मैंवादी" होता जाता है उतना ही उसमें अभिव्यक़्ति का सवाल पैदा होने लगता है। मगर ये अभिव्यक़्ति करना वो नहीं होता जो खुद को तराशने के जैसा हो। वे महज़ नाटकिये रूप धारण करके कहीं जमने का अध्याय बनाने की कोशिश मे रहता है।
असल में, अभिव्यक़्ति करना खाली अनुभव की पौशाक मे होता ये तय नहीं होता। पिछले वक़्त दे दौरान लिखा : - जगह के बनने के अहसास मे कुछ भी अनुभव मे नहीं रहा। खुद कि अभिव्यक़्ति अगर "मैं" मे नहीं होती वे दूर खड़े होकर देखने वाला, सुनने वाला और धीमा जत्न करने वाला के रूप मे भी उभरती जाती है।
अनुभव अगर "मैंवादी" से बाहर नहीं निकल पाता तो खुद को रचना और खुद को व्यक़्त करना कहानी के हिस्से बनाता जाता है। जिसको रंगा जा सकता है लेकिन उसे तराशा नहीं जा सकता।
अनुभव, कई अनेकों कहानियों का एक अच्छाखासा जमावड़ा होता है। जिसको दोहराते हुए चलना और उसको नये पुराने चेहरो मे बयाँ करते रहना हि उसको मजबूत करता जाता है।
काफी वक़्त पहले एक साथी ने एक बहुत आसान सा सवाल पूछा। लेकिन जब उसको सोचना शुरू किया तो वो हर बंदिश से बाहर उड़ जाने को ज़ोर देने लगा।
उसने पूछा, “अतीत, अनुभव और कल्पना के बाहर क्या है? अगर हम लिखते हैं तो इन तीनों धाराओं से बाहर क्या ला पाते हैं?, अगर हम कुछ बनाते या रचते हैं तो इन तीनों अहसासों से अलग क्या तलाश पाते हैं खुद में?”
ये तीनों शब्द असल मे एक मटके की तरह बन गये और जो भी चीज़ बोली या लिखी जाती वे सीधा उसी मे जाकर गिर जाती। ऐसा लगता जैसे हम खुद को कभी सोच ही नहीं पायेगें। बस, इन तीनों को भरने का काम कर रहे हैं और ये काम बहुत ज़ोरों से चल रहा है। अब तक न जाने कितने पन्नों और कितने शब्दों की ये किताब तैयार भी हो गई होगी। ये वे मटके बन गये जिनका फैलाव चाहें न दिखता हो लेकिन इसकी गहराई बेहद अंदर तक है।
इनको सोचने के लिये पहले एक शब्द को उठया : "अनुभव"
अनुभव, अनुभव कई गहरी और अंतहीन परतों अपने साथ लिये चलता है। जो कभी रट्टा और किसी का दिया हुआ ज्ञान नहीं बनता। जिसमें खुद को बनाने से ज्यादा खुद को फ्रैम देने नाम जुड़े और छुपे होते हैं। इंसान इसको अपनी ताकत और बलबूता मानकर जीता है। बड़े-बड़े दाव इसके होने से खेल जाता है और खुद को कहीं खड़ा कर पाने और मौज़ूदगी का अहसास मानकर छाती चौड़ी करता है।
फिर एक सवाल अचानक से आता है - अनुभव के बाहर क्या है?
उसके बाद मे सवालों की झड़ी लग गई। लगा जैसे अनुभव से बाहर जाने से पहले इन सवालों को अलग नहीं किया जा सकता।
कोई अपने अनुभव में कहाँ, कैसे और क्यों आता है? कितने समय के लिये आता है?
क्या अपने सारे अनुभव में वो होता है?
अनुभव क्या है? - क्या जो उसने सीखा है अब तो उसका चिट्ठा है?, जो उसने पाया या खोया है उसका डेटा है?
अनुभव और अतीत मे क्या फर्क होता है?
अनुभव मे अतीत की छवियाँ होती है या जूझने का मिक्स अहसास?
अनुभव की भाषा क्या है?
अनुभव क्या खुद के साथ हुआ या बीता कोई वाक़्या है या कई वाक़्यों की ज़ुबान है?
अनुभव जीवन की कोई कहानी है या खुद के बनाये मुद्दों से बहस का कोई स्वाद है?
अनुभव खुद का तोड़ है या फिर खुद का जोड़?
अनुभव खुद के जीवन?
अनुभव दुहराव मे जाता है तब क्या होता है?
इसमें इंसान कहाँ होता है? जीवन कहाँ होता है?, कल्पना कहाँ होती है?, सपने कहाँ कहाँ होते हैं? और छुटे हुए हमरागी कहाँ होते हैं?
मिलने की भाषा मे होता है या छुट जाने के वियोग मे?
अनुभव कोई अलमारी है या फटी हुई जेब?
ये खुद से पूछे जाने वाले वे सवाल बन गये जिनको भूलकर दम लिया जाता है और भागने के लिये कुछ बुना जाता है।
लख्मी
1 comment:
बहुत उमदा लेखन... मुझे पता है मैं ब्लोगर की ज़ुबानी बोल रहा हूं . पर क्या करे दोस्त दस्तूर यही है मेरा अनुभव यही कहता है। अनुभव- अनुभव खास कर हमारे बीच एक जबान लिए खड़ा रहता है जिसमें अतीत, कल्पना और अनुभव से बाहर के सवाल को खुद में टटोल पाना भी एक अनुभव को सामने लाता है जिसकी अच्छी खासी मिसाल को आपने अपने शब्दों में ही व्यक्त किया है
(अनुभव अगर "मैंवादी" से बाहर नहीं निकल पाता तो खुद को रचना और खुद को व्यक़्त करना कहानी के हिस्से बनाता जाता है। जिसको रंगा जा सकता है लेकिन उसे तराशा नहीं जा सकता।)
अनुभवों की इस भीड़ में उतरकर अच्छा लगा।
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