Tuesday, March 15, 2011

दैनिक जीवन का मॉडल

शहर आज क्या हैं? जिसमें शामिल होते ही चटखभरी दिनचर्या से हमारी मुलाकात होती है। जो चुम्बक की तरह हमें अपनी तरफ खीचती है। उसकी हर सुबह उन्नत वर्तमान के नये परिवेश में ले जाती है। कई चीजें आँचल बनकर आँखों के सामने होती हैं। शहर को जैसे ख़बर की तरह, हर एक नज़र को दे दिया हो। किसी न किसी श्रोता की प्रतीक्षा में धुंदली रेखाएँ माहौल में विराजमान रहती हैं। मन की चेष्टाएँ धूप की तरह अस्तिव में बिखर जाती है।

भीड़ क्या है? शहर में घुम रह शहरियों का कारवाँ? जो न कहीं रूकता है और न ही लगातार चलता है। ये अपनी ही परछाई से टकराते हैं। दर्द जानते हैं मगर उसका अहसास खो बैठे हैं। अगर घर बैठे ही डाकिया बिना पते के ही संदेश दे जाता तो कितना बड़िया होत। फिर हम अपनी ही पहचान के मोहताज नही होते। शहर Springtime ( बहार ) का मजंर है जिसे किसी एक तस्वीर में जीने की आदत नहीं है। ये बहुसंख्यक नज़रों दे जीवन का रस पान करना चाहता है। सड़के सुमसान है कभी दिवारों पर सजे दिवान हैं। कभी कहीं लोटकर आने के लिये अपने क़द्रदान है कभी।

कोई धूमिल सा अधूरापन लिये रास्तों पर चलता है। किसी की ज़िंदगी में बसा किसी का स्वरूप भीतर से बाहर का निकास देता है। कभी पूर्ण क्षमताओं से टकराती जिंदगानी नज़र से नज़र मिला कर बातें करती हैं। तो कभी खुद को रोक कर दृश्यो को सुनने का मन करता है यहाँ कुछ गण्तिय उदहारणों की आवश्यकता है। जैसे सब कुछ इक्वल ( = ) नहीं है।

अंनत समिकरणों में उलझी जीवन की गुत्थियां है। जिन्हे सुलझाने का भी समय नहीं मिलता। ठीक उस तरह जिस तरह शरीर भी सवालों और रोजमर्रा के प्रभावो में शाखाओं की भांति खुद में व्यस्त रहता है। इस व्यस्तता को प्रतिदिन अनूभव किये को और यथार्थ के अहसास से भी समझने-सोचने की कोशिश की तो आम और खास के बीच बने सभी बने फाँसले को देखा। जिसमें स्वयं को चिराग लेकर खोजने की आवश्यकता है। उजाला क्षण भर है और अंधेरा काली रात का हम ख्याल, रात जिसके तले स्वपन पनपते है। परछाईयाँ पड़ाव डालती है। फिर सवेरा हो जाता हैं। एक नई उम्मीद में। किसी आक्रमकता में फिर किसी तारे के जमगाने कोशिश होगी। शहर की रफ़्तार में अनेकों जीवन शैलियाँ मचलने लगती हैं। हम ज़िंदगी बने शख़्स मिलते है फिर अंजान में छूकर निकल जाते हैं। हम क्या चाहते हैं? कुछ मांगते ही क्यों है? रोजाना भोर होते ही रात इस उजाले के सामने आसपास ही कही अदृश्य हो जाती है। या फिर उसे आसमान निगल जाता है। शहर कहता है जरा धीरे बोलों, "दिवारों के भी कान होते है" मगर शहर के इस जुमले के तात्पर्य को चुपचाप होकर सुनने वाली मूद्रा बदल देती है। शहर की सांस आज जोर-जोर से चल रही है। कौन इसका हमदर्द है? कौन इसका सुख-मुख है? शहर में जिस तरह से रोमांचकारी जीवन बसा है।

समय आधार है। जिसकी वज़ह से चट्टानों का सिना भी चेतना की अवस्था में जाता है। हमारे इस रोजमर्रा पर कोई तो छाप है? जो निशान छोड़ जाती है। जिसका वर्णन पत्थर है और अहसास मोम है।

कहीं सब कुछ समझ आ जाने वाले नियम रूप है तो कहीं मूश्किलें है तो कहीं हैरानी से लबालब भावनात्‍मक पहलू के बयान है। चाहें वो विराम चिन्ह हो या सार्वजनिक निर्देशो से मुख़ातिव होकर भटक जाने का विचार।

जगह में अदृश्य चीजों की गंद (महक) जैसे किसी तस्वीर को सामने से गुज़र जाने का पता चलता है। कुछ लय है, कुछ लय के बाहर और कुछ आकार भी हैं, उसके बाहर भी। सब का आकार सबके पास भी है और सब अपने आकार को खोज भी रहें। लगता है की ये अंनतता ही हमारी आँखों के साने स्थिरता बना जाती है। जिसे दूर तक देख पाना शायद काबू में नहीं मगर अंदाजा लगा सकते हैं
शब्दों से बनी अनेकों बयानों की वर्णमाला अदखुली कल्पनाओं का वर्णन क्या है?

हम शहर को अपने शरीर का अंग मान ले तो शहर और हमारे बीच रिश्ता बनता है? कम से कम ये क्षमताओं का टिकट तो मिल जाता है। जो चीजों से रू-ब-रू होने के बाद उनकी उत्तेजनाओं को शरीर में लेना और छोड़ना होता है। ये चक्र चलता रहता है। रोजाना के चिन्हों, ईलेक्ट्रोनिक सिंगनलों की कस-म-कस से निकलने के बाद क्या नज़र आता है? तब शौर, शौर नहीं होता वो एक आवाज, गूंज बन जाता है। जिसे को सुनने में किसी छवि का हस्ताक्षर मिलता है? जीवन के हलातों से उपजी विपरीत परीस्थितियाँ को बॉडी का स्वभाविक रवईया गायब कर देता है। क्यों कि हमारी कल्पनाओं का मॉडल होता है और वास्तव में होता है। उसके बड़ने की प्रक्रिया मौजूद हलात से टकराती है

राकेश

2 comments:

रवि रतलामी said...

समय की एक बढ़िया परिभाषा मुझे बस्तर के दूरस्थ गांव में गर्मियों के दिन दोपहर को मिली थी जब सल्फ़ी पीकर लोग पेड़ों की छांव में अपने अपने खटिया पर ऊंघ रहे थे. हवा गर्म थी, मगर पसीने को तो सुखा दे ही रही थी...

Goldylahare said...

BAHUT SUNDAR ....