एक दिन मेरी थकान मुझसे बोली, तू मुझे लेकर जायेगा कहां?
मैं थोड़ा हिचकिचाया, थोड़ा हैरान हुआ - मेरी थकान मुझसे बात कैसे कर सकती है। क्या वो भी बोल सकती है। कुछ पल की शांति ने शायद ये किया होगा? शायद मेरे कान बज रहे होगें। वो तो मुझे मारती है, मेरे शरीर से उसकी दुश्मनी है, उससे मेरी रोज लड़ाई होती है। पर मैंने कभी उसे जीतने नहीं दिया। और अंत में मैं उसका कातिल बन गया।
पर वो तो मरती ही नहीं, बस शांत हो जाती है। आज वो बोली, "तू मुझसे जीतने का घमंड करता है। फिर भी तू रोज डरता है। तु सिर्फ इतना बता की क्या तू अपनी थकान को खुद चुनता है?"
मैं कहां सुस्ताऊंगा को चुनता हूँ,
मैं कहां ताजा होऊंगा वो चुनता हूँ
मैं कहां खो जाऊंगा वो चुनता हूँ
मैं कहां मिल पाऊंगा वो चुनता हूँ।
ऐसा क्या है जो मैंने छोड़ दिया, इस सवाल ने इन सबका रास्ता मोड़ दिया,
लख्मी
5 comments:
आदरनीय राकेश खैरालिया जी ,आपकी सभी रचनाये बेहद अच्छी व् किसी न किसी विषय को उठाती है सौभाग्य से पढने को मिल गयी ,आपने निवेदन है की एक मार्ग दर्शक के रूप में (एक प्रायस "बेटियां बचाने का ")ब्लॉग में जुड़ने का कष्ट करें
http://ekprayasbetiyanbachaneka.blogspot.com/
शुक्रिया मलकीत सिंह जी,
हम जरूर पढ़ेगे और एक पाठक बनेने की कोशिश करेगें।
राकेश
bhut badhiya ji.i like it.join my side.
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं |
शुक्रिया हमारे सभी पाठको को और आशा करते है कि आप सभी की दिपावली बहुत मजेदार और उड़ान मे रही होगी
एक शहर है
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