Thursday, January 19, 2012

गुमनाम खत - पेज 02

अब तक इस ख़त की लाइनों में जीवित सांसो को महसूस करने की भूख मेरे शरीर को हिलाने लगी थी। जैसे आर्लम लगाये समय सांसो के साथ डांस कर रहा हो। मन हुआ इसे यहीं बन्द करदूं, फिर सोचा की मैं क्यों ना पढूँ इसे? इसलिये की मैं इसमे डूबना नहीं चाहता था या इसलिये की मैं किसी के इतने निजी मे आज तक गया नहीं था या फिर मुझे निजी होने मे घबराहटें थी।

कितने झोल मे जिन्दगी बसर करती है अपने उन सभी रिद्दमों से जो उसे हर भाव से रूबरू करवाते हैं। झोल जिन्दगी के नमूने हैं जिनसे रात और दिन के खेल का अंत होता है। झोल – किसी को वो नहीं रहने देते जैसा वो दिखता है या उसे कोई जैसे देखना चाहता है। ये उसके होने मे बसा है। एक पल को तो लगा की ये दास्तान या बोल मेरे ही घर के किसी छुपे कोने से है। लेकिन एक पल मे जब मेरे झोल खुलने लगे तो मैंने इससे दूरी बना ली और कट्टर बन उसे कोसने लगा जिसे मैं जानता ही नहीं हूँ। मैं ही क्या ऐसा कोई भी करता। अकेले मे नजदीक और भीड़ में सामुहिक हो जाने के खेल आसान और समझदारी वाला है इसे कौन नहीं खेलना जानता?

एक पूरी रात तुम्हारी हर बात को याद करके मैं खूब हसं रही थी। तुम्हारे उस कुएँ वाले किस्से को याद करके जब तुम अपने घर से साबून की छोटी सी टिकिया चुराकर नहाने गई थी और अपनी सारी सहेलियों से तुमने उस साबून को छुपाया हुआ था। तुम्हारे लिये वो बहुत महंगा साबून जो था। तुम्हारी बहन ने वो खुद के लिये खरीदा था। मगर तुम्हे उसके सफेद रंग से प्यार हो गया था। तुम भी ना अम्मा! पागल ही थी। कुएँ का पानी बहुत ठंडा था और तुम्हे नहाने की जल्दी थी। जल्दी जल्दी के चक्कर मे तुमसे वो साबून फिसलकर कुएँ के किनारे बनी एक पोखर मे गिर गया था। एक पल को वो तुम्हारे परेशान होना और एक पल के लिये तुम्हारा वो खुश होना दोनों मेरे समझ से बाहर था। लेकिन मुझे हंसी ही आए चली जा रही थी। उस पोखर मे तुम उतरी और उस साबून को निकालने लगी, बहुत ढूंढा था तुमने लेकिन वो मिला नही। तकरीबन 2 घंडा ढूंढने के बाद भी वो जब नहीं मिला तो तुम चुपचाप चली आई। घर मे ऐसे रही जैसे तुमने कुछ किया ही नहीं। ये सब तो ठीक था मगर तुम तो दूसरे दिन भी उस पोखर मे घूस गई थी उसे ढूंढने के लिये। क्या अम्मा तुम ना सच ही में पागल ही थी। भला वो मिलता तुम्हे? गल नहीं गया होगा, ये भी नहीं सोचा था तुमने।

उस लोटे पर किसी का नाम लिखा था क्या अम्मा जिसे तुम रोज देखती थी? मैं पूछ नहीं रही बस, ऐसे ही जानना चाहती हूँ।

तुम्हारा वो कमरा जिसकी दिवारों पर बस तुम्हारे लिखे कुछ अक्षर ही दिखाई देते थे। आड़े तेड़े, अधूरे, मिटाये हुए, एक के ऊपर दूसरे को चड़ाये हुए सारे शब्द ही थे। मगर किसी का नाम नहीं था। वो शब्द मुझे कभी समझ मे नहीं आये थे। वो क्या तुम्हे पसंद नहीं थे, पसंद थे, सुने थे, तुम्हे चिड़ाते थे, डराते थे या तुमने अपने कमरे को अपने लिये एक किताब बनाया हुआ था जिसे तुम ही लिखती थी और तुम ही पढ़ती थी। इतना शौर था तुम्हारे उस कमरे में आज भी है, बस दिवारें सपाट रही है, मुझे पता है क्यों - मगर उन सफेद पुती दिवारों के पीछे वो शब्द चिल्लाते हैं मैंने उनकी आवाज सुनी है। मैंने अपने कमरे को, वो आवाज सुनने वाला बनाने की बहुत कोशिश की लेकिन बना नहीं पाई। मैंने भी अपने कमरे को बोलने वाला बना दिया था। तुम एक पल भी उस कमरे मे रुक नहीं पाई थी। लगता था जैसे तुमने उसे अपना लिया है। तभी दूरी बना ली थी। मैं तुममे खुद को देख रही थी। शायद ये मेरी गलती है।

मैंने अपने दोस्तो के बीच में एक बार इस कमरे का जिक्र किया था। वो आपको प्यार मे डूबी और दुखी होने के ही बारे मे कहते रहे, शायद इससे ज्यादा वो समझ नहीं सकते थे। दोस्ती, प्यार और अफ्येर के बीच के फासले को वो शायद कभी समझ नहीं सकते थे। तीनों मे होती बातें, हरकतें, आदतें, डूबना एक ही तरह से होता है मगर अहसास का फासला इसमे महीन सी दूरी बनाता है वो शायद इनसे अंजान है।

मैं तुम तक पहुँचना चाहती थी, इसलिये इन सब को समझने की कोशिश मे थी। बैचेनी, तड़प, लरक इनका वास्ता जब जीवन से पड़ता है तब ये बदलती है, नहीं तो समझने का फासला बन नहीं पाता। ये मेरे दोस्तों के पास मे नहीं था। सच कहूँ, मेरे किसी दोस्त ने मुझे तुम तक पहुँचाने का रास्ता नहीं दिखाया था। ये मैंने खुद चुना।


लख्मी

4 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छी पोस्ट।

शिवा said...

अच्छी रचना ...बधाई

Anonymous said...

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abhinav pandey said...

आपके ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ.. बहुत ही अच्छी रचना...


सुनहरी यादें