मचान पर से सारे कपड़ों को खिंचकर नीचे बिखेर लिया। दोपहर का लिया हुआ भी कूण्डा भी साथ में ही रखा था। वो सारी सलवारों के नैफे छू-छू कर देख रही थीं। कहीं इसमे तो नहीं, कहीं इसमे तो नहीं! साथ वाली शकीला बाजी ने आकर पूछा "अरी नूरी तू ये क्या कर रही है?”
कपड़ो को टटोलते हुए नूरी ने एक नज़र शकिला बाजी पर डाली और फिर लग गई नैफो में कुछ तलाशने। शकिला बाजी ने पास में रखा कूण्डा हाथ में उठाते हुये कहा, "अरी नूरी ये तो बहुत अच्छा लग रहा है। क्या जुम्मा बाजार से लाई"
"ना भाभी दोपहर में ही बर्तन वाले से लिया है।" कई दिनों से पुराने कपड़ों का गट्ठर बंधा पड़ा था। तो सोच रही थी के कोई बर्तन वाला आ जाये तो इन्हे देकर कोई बड़ा सा बर्तन ले लुं। दोपहर में एक आया था पूरी गली में आवाज लगाता हुआ फिर रहा था मैनें उसे रोका और पूछा कि क्या क्या बर्तन लाया है?
उसने कहा, "बाजी सभी कुछ है।"
"आटे के कूण्डा है?”
"हां है।"
"कितने कपड़ो मे देगा?”
"सात जोडी से कम नही दूगां।"
"अरे ओ भईया पाचं जोडी मे देना
हो तो बता।"
"अरे बाजी आप भी चलिये अच्छा
दिखाईये।"
"इधर आजा भईया गली मे"
ये कहकर नूरी ने मचान पर से कपड़ों का पूढ़ला उतारा। छोटे-बड़े पैन्ट-कमीज, कच्छे-बनियान वो इधर-उधर करती हुई उन्होनें अपने कपड़ों की छटाई की। कौन से घिस रहे हैं? कौन से फट रहे हैं उन्हे ही निकाला जाये थोड़ी मस्क्कत के बाद में पाचं जोड़ी कपड़ों का जुगाड़ हो पाया। उस पर भी बर्तन वाले के नख़रे। इनकी छोटी मोटी बहस शुरू हो गई।
"अरे कैसा है बहन जी ये तो घिसा हुआ है।"
"अरे भईया अभी से घिस गया अभी पिछले महिने ही सिलवाया है।"
काफी ना-नुक्कड के बाद बर्तन वाले ने वो कपड़े रख लिये और नूरी के हाथों में चमचमाता कूण्डा पकड़ाकर उसमे बाहर की गली मापी। नूरी खुश थी की उन्होनें इतने कम कपड़ों में इतना बढिया कूण्डा ले लिया। उन्होनें वो कूण्डा गली में खड़ी होकर सलमा की अम्मी, सुम्मी की अम्मी, रेशमा की अम्मी और भाई को दिखाया। देखा भाभी कितना अच्छा कूण्डा है और कितने कम कपड़ों में दे गया।
"अरी हां नूरी तूने तो सही ले लिया हमसे तो कपड़ों का ढेर ले जाता है और उसपर भी नख़रे करता है।"
नूरी माथे पर सलवट लाते हुये " बाजी मुझे भी यूं ही ना दे गया निरा दिमाग चाट गया मेरा भी।"
सुम्मी की अम्मी कूण्डे को हाथों में लेकर जाचते हुये बोली, "अरी तो क्या हो गया चीज भी तो बढिया दे गया।"
कुण्डे को अपने हाथों में सम्भालते हुये फिर से बोली, "शायद साकिब उठ गया है रोने की आवाज लग रही है?”
ये कहते हुये अपने घर में चली गई। और शाम के कामकाज में लग गई। बच्चे खेल रहे थे साकिब पानी की बालटी में लगा हुआ था। नूरी काम से निबटा कर अपने पैसों को गिन रही थी। कितने बचे और कितने खर्च हुए। सो रूपये में से दस रूपये बच गये थे। नूरी खुश थी क्योकि आज डबल खुशी का दिन था। एक तीन सो रूपये पूरे होने की खुशी और दूसरा कम कपड़ों में कूण्डा लेने की। जैसे ही भाभी हाथ में दस रूपये दबाये मचान की तरफ में सलवार को उतारने पलकी जिसके नैफे में वो पैसे जमा करती थी। ये देखकर तो उनके पैरो तले से जमीन ही खिसक गई। क्योकि सलवार वहां पर नहीं थी। नूरी ने दोपहर का कूण्डा लेने का वाक्या दिमाग में दोहराया तो याद आया की वो सलवार तो बर्तन वाला ले जा चूका है। "हाय अल्ला ये क्या कर दिया मैने?”
ये सोचकर वो बाहर की तरफ में भागी उन्होनें कई गलियां भागते-दौड़ते नापी की कहीं वो बर्तन वाला यहीं कहीं घूम रहा हो? मस्जिद की तरफ, असलम की तरफ, सुखी सब्जी वाले की तरफ सब तरफ में देखा सबसे पुछा पर वो बर्तन वाला कहीं नहीं मिला नूरी सिर को पकडकर आ गई।
कपड़ो को टटोलते हुए नूरी ने एक नज़र शकिला बाजी पर डाली और फिर लग गई नैफो में कुछ तलाशने। शकिला बाजी ने पास में रखा कूण्डा हाथ में उठाते हुये कहा, "अरी नूरी ये तो बहुत अच्छा लग रहा है। क्या जुम्मा बाजार से लाई"
"ना भाभी दोपहर में ही बर्तन वाले से लिया है।" कई दिनों से पुराने कपड़ों का गट्ठर बंधा पड़ा था। तो सोच रही थी के कोई बर्तन वाला आ जाये तो इन्हे देकर कोई बड़ा सा बर्तन ले लुं। दोपहर में एक आया था पूरी गली में आवाज लगाता हुआ फिर रहा था मैनें उसे रोका और पूछा कि क्या क्या बर्तन लाया है?
उसने कहा, "बाजी सभी कुछ है।"
"आटे के कूण्डा है?”
"हां है।"
"कितने कपड़ो मे देगा?”
"सात जोडी से कम नही दूगां।"
"अरे ओ भईया पाचं जोडी मे देना
हो तो बता।"
"अरे बाजी आप भी चलिये अच्छा
दिखाईये।"
"इधर आजा भईया गली मे"
ये कहकर नूरी ने मचान पर से कपड़ों का पूढ़ला उतारा। छोटे-बड़े पैन्ट-कमीज, कच्छे-बनियान वो इधर-उधर करती हुई उन्होनें अपने कपड़ों की छटाई की। कौन से घिस रहे हैं? कौन से फट रहे हैं उन्हे ही निकाला जाये थोड़ी मस्क्कत के बाद में पाचं जोड़ी कपड़ों का जुगाड़ हो पाया। उस पर भी बर्तन वाले के नख़रे। इनकी छोटी मोटी बहस शुरू हो गई।
"अरे कैसा है बहन जी ये तो घिसा हुआ है।"
"अरे भईया अभी से घिस गया अभी पिछले महिने ही सिलवाया है।"
काफी ना-नुक्कड के बाद बर्तन वाले ने वो कपड़े रख लिये और नूरी के हाथों में चमचमाता कूण्डा पकड़ाकर उसमे बाहर की गली मापी। नूरी खुश थी की उन्होनें इतने कम कपड़ों में इतना बढिया कूण्डा ले लिया। उन्होनें वो कूण्डा गली में खड़ी होकर सलमा की अम्मी, सुम्मी की अम्मी, रेशमा की अम्मी और भाई को दिखाया। देखा भाभी कितना अच्छा कूण्डा है और कितने कम कपड़ों में दे गया।
"अरी हां नूरी तूने तो सही ले लिया हमसे तो कपड़ों का ढेर ले जाता है और उसपर भी नख़रे करता है।"
नूरी माथे पर सलवट लाते हुये " बाजी मुझे भी यूं ही ना दे गया निरा दिमाग चाट गया मेरा भी।"
सुम्मी की अम्मी कूण्डे को हाथों में लेकर जाचते हुये बोली, "अरी तो क्या हो गया चीज भी तो बढिया दे गया।"
कुण्डे को अपने हाथों में सम्भालते हुये फिर से बोली, "शायद साकिब उठ गया है रोने की आवाज लग रही है?”
ये कहते हुये अपने घर में चली गई। और शाम के कामकाज में लग गई। बच्चे खेल रहे थे साकिब पानी की बालटी में लगा हुआ था। नूरी काम से निबटा कर अपने पैसों को गिन रही थी। कितने बचे और कितने खर्च हुए। सो रूपये में से दस रूपये बच गये थे। नूरी खुश थी क्योकि आज डबल खुशी का दिन था। एक तीन सो रूपये पूरे होने की खुशी और दूसरा कम कपड़ों में कूण्डा लेने की। जैसे ही भाभी हाथ में दस रूपये दबाये मचान की तरफ में सलवार को उतारने पलकी जिसके नैफे में वो पैसे जमा करती थी। ये देखकर तो उनके पैरो तले से जमीन ही खिसक गई। क्योकि सलवार वहां पर नहीं थी। नूरी ने दोपहर का कूण्डा लेने का वाक्या दिमाग में दोहराया तो याद आया की वो सलवार तो बर्तन वाला ले जा चूका है। "हाय अल्ला ये क्या कर दिया मैने?”
ये सोचकर वो बाहर की तरफ में भागी उन्होनें कई गलियां भागते-दौड़ते नापी की कहीं वो बर्तन वाला यहीं कहीं घूम रहा हो? मस्जिद की तरफ, असलम की तरफ, सुखी सब्जी वाले की तरफ सब तरफ में देखा सबसे पुछा पर वो बर्तन वाला कहीं नहीं मिला नूरी सिर को पकडकर आ गई।
2 comments:
बहुत मर्मस्पर्शी कहानी...
सुन्दर प्रस्तुति...
आपका मैं अपने ब्लॉग ललित वाणी पर हार्दिक स्वागत करता हूँ मैंने भी एक ब्लॉग बनाया है मैं चाहता हूँ आप मेरा ब्लॉग पर एक बार आकर सुझाव अवश्य दें...
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