लोगों ने जीवन देती इस खुरदरी, सपाट, मिट्टीदार, गरम भूमी को अपने खून से सींचा है। आंदोलन भरे दौर आये और चले गये। लोग जीये और वो किसी तारे की तरह चमके फिर बादलों मे छूप गये। पर इस जीवन धरातल के ऊपर कोई पक्की बुनियाद ही नहीं बन सकी जिसके जोर से किसी इंसान को उसका अस्तिव प्राप्त हो पाता। फिर भी सहास लेकर इंसान अपने को हर तरह के समय के मुताबिक ढ़ालने की कोशिश करता है। वो किसी की ज़िन्दगी में अपनी मौजूदगी के निशान बनाने की कोशिश करता चला रहा है। समाज में रहकर उसे ज़िन्दगी को जीने कोई एक ढंग मिलता है। लेकिन इस ढंग को वो आत्मनिर्भता से जीना चाहता है। जिससे सब रिश्तों और समाजिक जिम्मेदारियों में रहकर वो अपने जीवन के ऐसे मूल अनुभव जोड़ सके जो उसके स्वरूप से ज़िन्दा किये जा सकें। तभी आसमान में जगमगाते ये तारे बोलते हैं जरा ध्यान लगाकर सुनें......
राकेश
राकेश
3 comments:
सुनने से तो सब कुछ समझ में आ जाता है,पर सुनता कौन है?
शुक्रिया चर्चा मंच के साथियों। समय समय पर हमारी पोस्ट को अपने बीच लाने के लिये।
और शुक्रिया बलमान जी आपका भी। हम चाहते हैं कि आप ऐसे ही नियमित हमारी पोस्ट पढ़े और अपने सवाल हमें भेजें।
आजकल कौन रिश्तों और सामाजिक संबंधों पर ध्यान देता है...सब एकाकी होते जा रहे हैं...
Post a Comment