Monday, July 28, 2014

बैठने की कोई रोक नहीं


लोग गली - गली ये देखते हुए घुमते कि कौन सी ऐसी जगह है जहाँ कुछ पलों का आराम किया जाये मगर एक रोज का नहीं हर रोज आया जाये? कहाँ पर कोई रौनकदार सभा बैठी हैं? कहाँ पर शौर है? कहाँ पर लोग बुलायेगे और कहाँ पर बैठने में मज़ा आयेगा? लेकिन यहाँ सारी जगहें एक ही आकार और रूप लिए ही थो थी। कभी - कभी तो आँखें कहीं रूक भी जाती लेकिन ये जबरदस्ती खुद को कहीं जमाने का समान होता। मन तो जैसे कुछ और ही तलाश रहा होता था।

एक माहौल से दूसरे माहौल से लोग अगर अपने पाँच पाँच मिनट भी दे जाते तो दूसरा दिन भी वहीं की तरफ ही अपने पाँव कर लेते। जहाँ एक बार पाँव जमा दिये तो समझो जमा दिये। सारी जगहें तो यहाँ पर ऐसी ही थी कि किसी को भी को कहीं पर भी रूकने की कोई मनाही नहीं थी। जमने और बैठने की कोई रोक नहीं थी और कोई जगह खुद के लिए तलाशने की कोई रोक-टोक नहीं थी। तभी तो कदम कहीं पर निचावले नहीं रहते थे। जैसे पाँव में पहिये लगे थे। भागे फिरते थे कहीं के होने जाने के लिए। ये दौर बना रहता था एक - दूसरे को बुलाने का। चाहें दो या चार पल ही साथ निभाने के लिए ही सही लेकिन एक दूसरे के अन्दर की इस लरक को लोग बखूबी पहचानते थे।

इस दौर में तो जैसे धर्म का ही प्रचार किया जाता था। जो भी इस दौरान नई जगह या नया माहौल अपने पाँव जमाता लोग उसे अपना कहकर अपनी ग्रफ्त में कर लेते मगर असल में वो ग्रफ्त उस जगह और माहौल के लिए कैदखाना नहीं बनती थी। बस, जो होता था वो था नज़र और दिलो - दिमाग में अपनी बात, काम और कर्मों को जैसे उतारा जाये? वही बिना आना-कानी शायद कानों तक चला भी जाता।

ये दौर शायद सुनकर और सुनाकर निकल जाने वाला नहीं था। जो भी दृश्य, शब्द और गुट आदमी के बाहर आ जाता तो वो अपना ठिकाना खुद ही बना लेता, जम जाता और बहुत जल्दी जगह में ठहराव पा लेता। उसके बाद में हर कोई उसके नीचे या ऊपर अपने आशियाने तैयार करता। एक से दूसरे के अन्दर तैरने के तरीके खुद से बना लेता। जैसे इस पल में सभी खाली नइया की तरह से इस समा के समन्दर में खड़े होते और कोई भी माहौल उनके लिए किसी खास तरह से चप्पू का अभिनय निभाकर उन्हे कहीं दूर ले जाने की कोशिश में रहता। शायद ये हो भी रहा था। जो सब के लिए बेहत्तर था, आखिर घूमता कौन नहीं चाहता था?, कौन नहीं था जो तैरना चाहता था? और कौन नहीं था जो खुद से, काम से और बने - बनाये इस माहौल से दूर नहीं जाना चाहता था? ये दूर जाना, खुद में खोना बेअसर था। बिलकुल अनमोल के समान जिसका कोई मोल नहीं होता। जमीन से जुड़े रहना, अपनी जमीन को सकेरना, बनाना और ताज़ा रखना ये सभी के अन्दर पल रहा था और नये माहौल बनने की ताज़गी उनमें वलवलाती रहती।


कुछ माहौल तो बने हुए मिल भी जाते लेकिन वो क्या कुछ ही समय के होते या वो बने हुए रहते थे ये देखने की लरक लोग खुद में लिए भागे फिरते। यहाँ पर सब जानते थे की कहीं न कहीं कुछ बना हुआ है जिसे देखने की इच्छा मन में जाग चुकी है।

उन्ही मन के अन्दर बसी जगहों में, मन के बाहर निकलती जगहों में, बने हुए माहौलों में पलती जगहो में और तलाशने में आती जगहों में एक जगह ये भी थी। भले ही ये अभी बनी नहीं थी बनने की कग़ार पर थी। लेकिन इस जगह के बनने के अन्दर के मर्म पहले से ही अपने बनने के खूंटे गाड़ चुके थे।

शामरात और हर दो दिन छोड़कर यहाँ बैठने देने का हासिया समझ में उतारना पड़ता। कोई इसे दीन धर्म मानकर सुनता, कोई वक़्त के निकल जाने पर, मोई मनोरंजन तो कोई पहली बार तो कोई आखिरी बार के इशारे में। लेकिन सुनते सभी थे। कहने तो ये पढ़ने, बैठने और बतियाने की जगह के रूप में निखारी जा रही थी। लेकिन इस निखरने से पहले ही यहाँ पर बातें तो कुछ और ही चल गुज़री थी। जो अपनी दुनिया पकड़ाने के बहाने अपनी ओर आने पर मजबूर करती। सबके सब जैसे बिना पाँव उनकी तरफ खिंच रहे थे। इस खिंचने का यहाँ पर सबको खूब पता था। पर अगर कोई खुद को बाँधे भी तो क्यों?

ये जगह के अहसास को पाना की जिद्द थी, जो बसकी बातों में खोने के आसरे यहाँ पर पलती जा रही थी। हर कोई किसी की बात, किसी की कहानी, किसी के गीत तो किसी के फैसलो में खोया हुआ था। तो इस दुनिया से मिलने के लिए क्यों दूरी बनाई जाये? ये गलत बात है...

ये एक बड़ा सा कमरा है, अभी शायद पूरा बना नहीं था। इसलिए बड़ा सा कमरा बनाकर छोड़ दिया गया था। पूरे इलाके में एक यही जगह थी जहाँ लोगों को एक साथ अगर कुछ बताया जाये तो किया जा सकता था। ये बाद में क्या बन जायेगी किसी को नहीं पता था। बस, अभी के पल्लो में खुद को देखले वही बहुत था किसी के लिए भी। ये सोचने की क्या जरूरत थी कि जिस जगह में आज बैठे हैं वो बाद में क्या होगी? नहीं तो सबसे पहले वो अपने पूरे इलाके के बारे में नहीं सोचते। किसी को भी इस जगह के बदलाव के बारे में पता नहीं था। लोग बीच गली में रहने के लिए घरों की अदला - बदली किया करते। जिसका मकान कोने पर निकला था वो गली के अन्दर के किसी को बदल देता तो कोई जबरन अन्दर रहने की जिद्द करता, जो पर्चियाँ देने के काम में थे वो इस बात को समझने या समझाने से पहले ही ये काम कर देते। उनको इस झमेंले में पड़ने से कोई फायदा भी नहीं था। ये बदलाव को देखने की नज़र नहीं थी और न ही समझने की, कल क्या होने वाला है उसे ना सोचकर अभी के हिस्सो को बरकरार बनाया जाये। ये जगह भी कल क्या होगी ये किसी को सोचने की कोई मन्सा नहीं थी।

बाहर बोर्ड पर लिखा था, टीवी सेन्टर, पब्लिक पुस्तकालय और बारातघर। ये किसी को देखने समझने के लिए काफी था। बस, इसी को समझ पाये थे। क्या बनने वाला है ये पता था लेकिन क्या होने वाला इसका अंदेशा नहीं था। ज़ुबाने बदल जाती, “यहाँ पर टीवी लगायेगे?” क्या यहाँ पर पिच्चर दिखाई जायेगी?” इसी अनुमान की सुली पर ये जगह चड़ चुकी थी। जो उसके लिए अमरगाथा बनी।

हारमोनियम और चिमटा लिए चार लोग बीच में बैठे होते। हारमोनियम तो लोग पहचान जाते लेकिन चिमटा ये आम चिमटा नहीं होता, इसमें दोनों साइडो में पीतल के छोटे - छोटे टिक्कल बने लगे होते। जो हाथ से टकराने पर बहुत ही जोरों से बजते। अगर चिमटे की दोनों साइडो को अलग अलग किये जाये तो दो अलग तलवार बन जाती। सुनने में वो जितने मधूर लगते दिखने में वो उतने की खतरनाक साबित किये जाते। पूरी रात यहाँ पर धमाल चौकड़ी जमाई जाती। गीतों में भीड़ंत में पूरा कमरा चकाचौंद से भर जाता। शौर के बीच में कमरा जैसे खुद ही गाने लगता। ये इस कमरे का भविष्य था। लेकिन ये किसी ने देखा नहीं था, जो चलता आ रहा है वो वर्तमान और जो बीत रहा है वो अतीत लेकिन ये चलना अगर जीवन भर चलता रहे तो क्या?

खाटों के चारों और लोग ही लोग जमा रहते, ये दृश्य किसी भव्वय समाँ के इर्दगिर्द ही रहता। सभी कूदना चाहते तो सभी सुनना। रेज़गारी हो या भीड़ सभी कहीं बैठे छुपे से रहते। खाटों के पास ही रोशनी के तार खींचे रहते नहीं तो दीवारों की तरफ को लोग छुपे ही रहते थे। कोई अगर सुनते - सुनते सो भी जाता तो मालुम ही नहीं पड़ता। ये इस जगह में हफ्ते के आखिर के दो दिनो की पूंजी होती, शुरू के दो दिन पर्दा अपने रंगो से सबको खींचता तो दो दिन कोई धर्मानत्मक गुट इसे कहीं ले जाने की कोशिश करता तो आखिरी के दो दिनों में बंसी लाल की और उनके सहपाठी इसे इतना मुँहजोर बना देते की सबको नाचने और ताल से ताल मिलाने की चाहत जाग से उठती। कोई खुद को रोक लेता तो कोई इसे पूरी ही तरह से जगा लेता। बस, कोई ना कोई हर रोज़ ऐसा करता। ये बिलकुल ऐसा बन जाता जैसे किसी जागरण के चलते किसी में कोई माता परवेश कर गई हो और वो सब कुछ भूल गया और कहीं किसी और ही दुनिया का हो गया। ये दुनिया सब जानते है लेकिन इससे मिलता वही जो खुद को भूल जाने कि क्षमता रखता। या फिर ये झटके के समान होता जो खुद को वैसे ही चौंका देता जैसे सभी चौंक जाते।

उस दुनिया में कूदने वाले शख़्स या औरत के लिए सभी रास्ता छोड़ देते और साथ निभाते, नाचकर या घूम कर नहीं, बस, ताली व ताल देकर। समा के रचैताओ को भी उस वक़्त में लगता जैसे उन्होनें कुछ छू लिया अब। तो जोश और बाहर निकलने को अमादा हो जाता। रात गहराती और आवाज़ें कमरे से बाहर निकल जाती।

जगह से बनने से पहले ही ये माहौल उस जगह को दिलों में उतार दिये थे। जब भी कोई चीज़ यहाँ पर दिखाई सुनाई या समझाई जाती तो इसी जगह को चुना जाता। जिससे ये जगह अपने पाँव फैला रही होती। उसके बनने का काम भी चल रहा होता, सामने बस स्टेंड बन रहा होता और यहाँ रातें महफूजियत के चुंगल से बाहर निकलकर गा रही थी, नाच रही थी और जगह के अन्दर उतर रही थी।

किसी को किसी के बारे में ना ज्यादा मालुम था और ना ही कोई जानता था। ये सब नाम जानने की रीत बस, इसी माहौल तक ही रहती। उसके बाद नाम ही याद बनता बाकी तो उसी समा के छाये रहने की ताकत चलती। दूसरे दिन तो पूरे इलाके में जैसे उस दिवानेपन को दोहराया जाता जो उस रात में चमकता सितारा बना था। उसी को देखने के लिए निकला जाता। जो दूर रहते वो नहीं मिल पाते लेकिन जो उसके पास में रहते थे वो उसे देख ही लेते होगें। न जाने दिन की रोशनी में क्या देखते होगें? ये अंदाजन तो नहीं हो सकता था। दूसरी रात उसी घेरे में चल गुज़रती जिसे पिछली रात छोड़ा गया था। कोई उसी दिवानेपन से मिलने चला आता, कोई आज खुद दिवाना होने तो कोई आज पहली बाहर इस समा के भव्वय रूप के दर्शन करने।

गलियों में घूमना और कुछ माहौल तलाशना, अभी भी जारी रहता। जो चश्का रात के आलम में अपनी चाहत को जी लेता था वो दिन की धूप में कहीं खो न जाये उसकी कसक लिए लोग यही खोजते चलते। गलियाँ यहाँ सुनी होती वहीं पर इलाके उस सुनेपन के चक्कर से बाहर निकल गये होते। अगर कहीं पर भी चार खाट बिछी दिखती और कुछ रखा दिखता तो बस, जम जाते। ये ठिकाने बातें के गुल खिलाने की सहारे खोजते थे। जो हर रोज मिल ही जाते। जगहों के लिए भी और उन तलाशों के लिए भी जो निसंकोच घूम रही थी।

रात के आलम में सब कुछ होने जाने के लिए न्यौतेदारी में रहता.... 

लख्मी

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