कहानी भाग 01
मोन्टू का कभी मन पढ़ाई में लगा ही
नहीं। उसके पिताजी जहां उसे पढाई की ओर धक्का देते वो उतना ही पढाई से दूर होता
जाता। मोन्टू के पिताजी अपने ही इलाके में वेल्डिंग की दुकान चलाते थे। मोन्टू
अपने घर में अकेला ही था। पिताजी चाहते नहीं थे की उनका लड़का भी उन्ही की तरह ऐसे
किसी काम को करे। इसलिये वे उसकी पढ़ाई को लेकर हमेशा चिंचित रहते। लेकिन कभी वो
मोन्टू को कुछ करने से मना नहीं करते थे। उन्हे लगता कि मैं ही उसका दोस्त बन सकता
हूँ। मोन्टू अभी पांचवी क्लास में पढ़ता है। हमेशा अपनी क्लास में अजनबी की तरह ही
वे रहता। जहां बच्चे पिछले दिन पढ़ाये गये को लेकर रट्टे लगाते दिखते या किसी टीचर
के खोफ से पढ़ते नजर आते वहीं मोन्टू सिर्फ बैठा दिखता।
मोन्टू का ज्यादा से ज्यादा वक़्त
स्कूल में नहीं उसके गेट के सामने बितता। स्कूल में प्रार्थना और हाजरी लगवाकर वे
भाग आता। यह उसका रोज का काम बन गया। वह कभी छोले - कुलचे की रेहड़ी पर दिखता तो कभी कोल्ड्रिंग रेहड़ी पर तो कभी टिक्टी - समोसे की तो कभी सब्जी-कचोड़ी की रेहड़ी पर वो बैठा दिखता और वहां पर जमती भीड़ को देखकर खुश
होता। साथ ही सभी को खाते हुए देखकर उसे बेहद मज़ा आता। वो रेहड़ी वालों को अपनी
रेहडी जमाते, खाना बनाते हुए देखता रहता। जैसे - जैसे रेहड़ी वालो के हाथ चलते तो उनके हाथों की हरकत को
देख वह दोहराता। जिस तरह कोई संगीत सिखने वाला हर दम अपनी उंगलियां चलाता रहता है
वैसे ही मोन्टू के हाथों में भी वो किसी खेल की तरह जमने लगा। अब तो ज्यादातर
रेहड़ी वाले उसको जानने भी लगे। कभी कभी रेहडी वाले उससे पूछते "तू पढ़ता - वढ़ता नहीं है क्या?” तो वो गंभीर
होकर कह देता "हमारे स्कूल में खाना बनाने का पीरियढ
लगता है मैं उसमें फेल हो जाता हूँ तो मैं यहां से सिख रहा हूँ।" यह सुनकर रेहड़ी वाले खुश हो जाते। वे भी अपने को किसी
टीचर से कम नहीं समझते। मोन्टू को अब रेहड़ी पर कितनी भी देर बैठने की इजाजत मिल
गई। मोन्टू रेहड़ी वाले की इकलौती कुर्सी पर बैठ जाता और हर रोज़ एक नया सवाल
करता। कभी पूछता "आपने ये बनाना कहां से सीखा?” तो कभी "आपने यह ही
काम क्यों चुना?” तो कभी "क्या आपके बच्चे भी यह बनाना जानते हैं?”
मोन्टू के हर सवाल का जवाब रेहड़ी
वाले बड़े ही प्यार से देते। हर एक चीज के बारे में बताते। बल्कि मोन्टू से लिस्ट
बनाने को भी कहते। वे छोलो में क्या डालते हैं, कुलचो में क्या। मोन्टू भी सभी की लिस्ट बनाता।
एक दिन मोन्टू ने बड़े प्यार से छोले
कुलचे वाले से एक सवाल किया "अंकल सबसे
अच्छे छोले-कुलचे का स्वाद कैसा होता है?” तो रेहड़ी वाला हंसकर मोन्टू कि तरफ देखकर बोला "जिसमें हर मसाला एक दम सही डला हो। हल्की आंच पर पका हो।
जिसे खाते ही खाने वाला अपने बीते कल में चला जाये। किसी और स्वाद को याद करने
लगे। निवाला मुंह में डालते ही घुल जाये और मुंह से निकले "वाह!” यह सुनकर
मोन्टू बहुत खुश हुआ। उसने जैसे आज कोई बेहद बड़ी चीज़ के बारे में जान लिया था।
वो स्कूल वापस लौटा। अक्सर आठवें पीरियड में कोई नहीं आता। लेकिन आज उसके क्लास
में पहुँचते ही हिन्दी के टीचर आ पहुँचे। पर इस बात से मोन्टू को कोई ज्यादा फर्क
नहीं पड़ने वाला था। क्लास शुरू हो गई। सभी किताबों में अपना मुंह डाले बैठ गये।
चाहे कोई पढ़ रहा हो या नहीं बस, क्लास में
शोर नहीं हो चाहिये। टीचर जी ने अपना पूरा टाइम लिया और ऊपर की ओर निगाह करते हुए
कहा "बच्चों किसी को किसी पाठ पर कुछ पूछना
है या मैं जाऊँ?” कोई नहीं उठा। कोई नहीं चाहता था कि
कोई भी टीचर ज्यादा देर क्लास में रूके। टीचर ने एक बार और इसी बात को दोहराया।
फिर चलने के लिये खड़े हो गये। मोन्टू ने अपना हाथ उठाया कुछ पूछने के इशारे से।
टीचर जी ने चौंकते हुए कहा "अरे मोन्टू
भाई भी हैं क्लास में और कुछ पूछना भी चाहते हैं। ठीक है, पूछो।" पूरी क्लास पीछे मुड़कर मोन्टू की तरफ
देखने लगी। सुबह जैसा सवाल उसने रेहड़ी वाले से पूछा था वैसा ही कुछ वो टीचर जी से
पूछने को चला, और पूछा "सर एक अच्छी कहानी क्या होती है?” टीचर जी निगाह गाड़कर मोन्टू को देखने लगे। मोन्टू भी टीचर जी को देखने
लगा। थोड़ी देर के बाद में क्लास गुपचुप हंसने लगी। टीचर जी ने सबको एक जज की तरह
टेबल पर हाथ मारकर खामोश किया और कहा "अच्छी कहानी वो होती है जो तुम से को भी समझ में आ जाये, समझे।" मोन्टू यह
सुनकर बैठा नहीं। टीचर ने कहा "बैठ जाओ। दे
तो दिया उत्तर।" मोन्टू ने कहा "बस सर यह ही।" टीचर ही बोले "हां।" मोन्टू ने फिर से पूछा "बस सर।" टीचर जी ने बोला "अरे हां भई। क्या इसके आगे भी कुछ है?” मोन्टू चुपचाप बैठ गया। और टीचर बिना बॉय किये चले गये।
स्कूल की छुट्टी हो गई। सभी अपना
बस्ता उठाकर भागने लगे। मोन्टू का घर स्कूल से दूर था। आज मोन्टू जहां खुश था वहीं
वो स्कूल में कुछ उदास हो गया था। वो पूरे रास्ते देखता हुआ चल रहा है। आज पूरा
रास्ता उसको अलग ही लग रहा था। हर तरफ कुछ ना कुछ बन रहा था। चारों ओर से खुशबू ही
खुशबू उड़ रही थी। लोग रेहड़ियों, साइकिल
दुकानों की अंगठियों से निकलते धुंए में खो रहे थे। वो सड़क के एक किनारे पर खड़ा
उस खूशबू को खुद में भरने लगा। कभी पर पराठों को हाथों पर नचाते लोग दिखे। कहीं पर
बड़े से पतीले में चमचा चलाते लोग। कहीं पर छोटे से तवे पर रोटियां सेकते तो कहीं
पर छोटी प्लेटो को परोसते हाथ। वो यह सब देखकर बेहद खुश हुआ। चारों तरफ स्वाद ही
स्वाद था। जैसे मोन्टू हर स्वाद को महसूस कर सकता था। वो बहुत तेजी से दौड़ा। पतली
गलियों से निकलता हुआ। गलियों में कहीं दरवाजों पर दाल – चावल बिनती औरतें बैठी है, कहीं गली में
सब्जी बिक रही है, कहीं गली में मसाले की बड़ी सी रेहडी
फंसी है तो कही गली में बच्चे आइक्रिम खा रहे हैं। मोन्टू दौड़ता हुआ, सबको पीछे छोड़ता हुआ अपने घर पहुँच गया। पिताजी के घर
में आने में अभी काफी वक़्त था। मोन्टू को भूख लगने लगी। वो किचन में गया और
कटोरदान खोला और रोटी निकाली। उसपर लाल मिर्च और नमक डाला। उसे थोड़े पानी से मसला
और रोटी को गोल करके खाने लगा और खाते खाते सो गया।
शाम को मोन्टू के पिताजी आये। रोजाना
की तरह नहाने को गये। उन्होनें खाना बनाया और मोन्टू को साथ में खाने को कहा।
मोन्टू आया। आधी सी नींद में। पिताजी ने उसके सिर में हाथ मारा और पूछा "और कैसा रहा आज का स्कूल?” मोन्टू ने मुस्कुराकर पिताजी की ओर देखा और पूछा "पापा एक अच्छा खाना क्या होता है?” पिताजी ने मोन्टू को देखा और कहा "बेटा खाना खा।"
और बात को टालने लगे। मोन्टू ने जिद्द
की और फिर से "बताओ ना पापा।" पिताजी उनकी ओर देखकर हंसने लगे और मुस्कुराकर बोले "अच्छा खाना वो होता है जिससे पेट तो भर जाये मगर मन नहीं
भरे। जिसमें मां की याद बसी हो और मेरे प्यारे से बेटे की सेहत भी।" यह सुनकर मोन्टू के चेहरे पर वो गायब हंसी फिर से लौट
आई। आज उसने अपनी प्लेट का सारा खाना भी खत्म कि लिया। अन्दर वाले कमरे में खिड़की
के बाहर झांकता रहा। बाहर लगी अण्डे के पराठें की रेहड़ी पर उठते धुंए को देखता
रहा। फिर खिड़की पर ही सिर टिका कर सो गया।
लख्मी
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