कौन समय कब तक हावी रहेगा ये कोई नहीं समझ सकता और कौन सा समय कब तक शरीर से चिपका रहेगा ये भी कोई नहीं समझ सकता।
किताब के पन्नो की तरह यहाँ समय का चक्का हमेशा और लगातार पलटता रहता है, हर दिन का जैसे नया ही चित्र हो। अगर चित्र वही होगा तो उसके अन्दर की हलचल एकदम अलग होगी। हर कदम पर जैसे मोड़ नहीं चित्र बदलते हैं।
मुझे अच्छी तरह से याद है मैं यहाँ की गलियों से तकरीबन 2 साल सिर नीचे करके चलता आया हूँ। इसलिए मुझे मोड़ तो नहीं मगर उनकी शुरूआत ही नज़र आती रही। ऊपर क्या है उससे मैं हमेशा अन्जान ही बना रहा। मन करता था की यहाँ की हर गली और कौना देखूँ, जहाँ पर मैं गया भी नहीं हूँ वहाँ पर जाकर देखूँ। क्या मैं थक जाऊँगा? या फिर ये जगह मुझे थकने ही नहीं देगी। मैं यहाँ तक तो अपने में ही रहा।
असल में ये जगह अन्तहीन है, दिवार से लगी दिवार इसका अहसास करवाती है। कई दिवारें तो एक – दूसरे से भिन्न लगती है तो कई पता ही नहीं लगने देती कि इसके ऊपर चलते समय के आँकड़े अलग – अलग हैं। कब पहला ख़त्म हुआ और दूसरा शुरू। किसी कविता के अहसास की भांति ये चलती रहती है।
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ये पाँचवी बार था, वो वहीं पर बैठी थी। गली के अन्दर आते और जाते बन्दे को देख रही थी, जैसा वो अब तक करती आई थी। इस पूरी गली में दो ही आँखें ऐसी थी जो हमेशा खुली रहती थी। किसी से मिलना हो पाये ना हो पाये लेकिन कोई आपको वहाँ पर देख लिया करता था। उनसे कोई भी बचकर नहीं निकल सकता था। पहली तो ये नजदीकी से निहारती ये अम्मा की आँखें और दूसरा वो गली के कोने पर लगा स्ट्रीपलेम्प हो हमेशा ही अपनी आँखें फड़फड़ाता रहता। उसका फड़कना जैसे कभी बन्द ही नहीं होने वाला था।
उनके हाथ, पाँव और शरीर जैसे किसी चीज़ से सुन्न हैं लेकिन आँखें जैसे कभी थकती ही नहीं हो। वो यहाँ से वहाँ आती - जाती रहती। हर दो पल में उनकी पलकें कुछ इस तरह से झपकती जैसे मानो कितने ही समय को उनके दिल के अन्दर ले गई हो। तस्वीर पर तस्वीर बस, चड़ती ही जाती।
सिर के ऊपर से वो हमेशा चमक का अहसास करवाने में सक्षम रहता। चाहें उसके नीचे से कोई गुज़रे, बैठे या खड़ा रहे इसका उसपर कोई गहरा असर नहीं रहता। मगर वो हमेशा ही अपने होने अहसास करवाता रहता। कभी तो अपनी पूरी आँखें खोल लेता तो कभी बस, तस्वीर पर तस्वीर खींचता ही रहता। इसका उसे जैसे बहुत मज़ा आता कई रोशनियों से भिड़ने में। न तो ये कभी पूरा जलता और न ही कभी पूरा बन्द होता। किसी की गलती से ये यहाँ पर खड़ा अनेको रोशनियों का विद्रोही बन गया था। जो हमेशा क्षत्रिये बनकर लड़ने के जुझारू बना रहता।
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उनके कानों से कई आवाज़ें होती हुई घर की चौखट पार करती। उनके इशारे इनकी इतनी प्यारी ज़ुबान है कि हर कोई उनके पास में बैठकर उनके इन्ही इशारों में दो - दो हाथ करने के लिए तैयार रहता। ये किसी भरपूर चाहत के समान होता। हर कोई उनके पास में बैठकर बोलना क्या चाहता था लेकिन बोल क्या जाता इसका तो मतलब दोनों को ही नहीं पता होता लेकिन जिसने भी वो इशारा किया होता उनके विश्वास में कोई भी कमी नहीं आती। वो दोबारा इशारों से अपनी कहानी कह डालने की कोशिश करता रहता।
मुँह की तरफ इशारा होता तो वो गर्दन हिला देती, शरीर की तरफ में हाथ खेलता तो वो गर्दन हिला देती लेकिन जैसे इशारे में हाथ आसमान की तरफ लम्बा खिंचता तो उनकी आँखें ही इधर से उधर घूम जाती। वो समझने के लिए जैसे बेइन्तहा कोशिश कर रही हो। सामने बैठा शख़्स अपने इशारे करता, रुकता, फिर करता और फिर रुकता। बात जैसे किश्तो में अपने मायने बता रही हो मगर जब वो बोलती तो हाथ जैसे नृत्य करते और हवा में तैरते नज़र आते।
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उनकी कहानी हवा में अपने आकार बनाती चली जाती। घर, बारह और आसमान सभी उनकी कहानी के पात्र बन जाते। कभी - कभी तो जमीनपर पड़े पत्थर भी उनके इशारों की आत्मकथा में मेंन और बेहतरीन क़िरदारी निभाते नज़र आते। कहानी तो उन्ही के हिसाब से हमेशा चालु रहती।
इस दौर में समझने और समझाने जैसी जद्दोजहद सामिल रहती मगर जोश तो बरकरार रहता।
किसी को पता चले या न चले की वो जमीन तक अपनी चमक दे रहा है, जमीन पर रखे और पड़े हर चीज को छु रहा है। अपनी छुअन का अहसास भी करवा रहा है। जैसे - जैसे फड़कता वैसे - वैसे जमीन पर पड़ी हर चीज़ उसी के साथ में डाँस करती नज़र आने लगती। डिस्को लाइट की तरह से ये सब कुछ हिलता हुआ नज़र आने लगता।
उसका यही काम था जो वो बिना किसी की इजाजत लिए करता चलता जाता और कितनी ही बन्द और खुली आँखों में मिल जाता।
लख्मी
1 comment:
mana ki aakhe bht kuch khne or ehsas krane ke sndrbh me rehti he par bht aakhe wo bhi he jinhe bs ek hi rang dikhta he to unki klpnao ko kese smjhe?
aakhe thkti he, bnd bhi hoti he par bnd hone par bhi unme chlti chviyaan rukti nahi he...kese socha jaye us utejna ko jo terne me he par khuli hui nahi he?
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