पिछले कई समय से मेरे साथी से सुनने को मिलता है, "मैं और हम" के बारे में। वो आसपास, किताब और अतीत को सोचते हुए पहचान और मैं को कभी बहस में ले आता है तो कभी उसे भरने का काम करता है मगर उसके भीतर मैं और हम की बहस खत्म नहीं होती। उसके साथ और बातचीत करते हुए मुझे कुछ शहर में और ज्ञान के बीच में एक खास रिश्ता महसूस होता हुआ लगा। हम कबीर और ओशो को पढ़ते हैं तो इन रिश्तों का एक तरंग के अहसास से समझने को मिलता है।
मैं यहाँ से शुरू करता हूँ -
इसी सोच के बीच में आता है - तन और स्वभाव, इसको किस तरह की तैयारी के तहत उतरा गया है समाज में या दुनिया में? शायद इसी में पलती है और बनती है हमारी पहचान। वो पहचान जिसे समझने की चेष्टा कोई नहीं करता शायद किसी को ये भी नहीं मालूम होता है उसकी वो पहचान क्या है जिसे लेकर वो जी नहीं रहा बल्कि महज़ चल रहा है? और वो पहचान क्या है? जो महज खुद के “मैं ” को बताने की भूमिका निभाती?
अगर हम सब कुछ हटा दें- अपने से समाज को, जेंडर को, जाती को, शहर को, पहचान को, रिश्तो को, वस्त्रों को, आवाज़ों को और अब खड़े हो जाएँ और देखने की कोशिश करें की क्या दिखता है? जो दिख रहा है उस तक जाने की कोशिश करें। उस पहचान तक कैसे पहुचेगें जो “जैसे को तैसा” पहचान है। मतलब उस पहचान तक पहुँचने की क्या राहें (रस्ते और दिशा ) हैं? जिसमें अपने को मिटा दिया जाता है। क्योंकि मेरा शरीर मेरी आकृति का सबूत नहीं है बल्कि वे एक ऐसी आकृति है जो सामुहिक है बस मेरे "मैं" ने उसे अपना कहा है, अपना लिबास पहनाया है और अपना गवाह बनाया है।
कबीर का एक गीत है जिसमें एक लाइन है- “तेरे जो घट में, वही मेरे भी घट में, सब के घट में एक है भाई ”
इसमें “मैं ” की कोई कठोर रूप-रेखा नहीं है। जैसे को तैसा पहचान जब बनती है। वो खुद में होने से बाहर ले जाती है। जो तुम हो वो मैं भी हूँ और जो मैं हूँ, वो सब है तो "मैं" खुलता किसके लिए हूँ?
ओशो अपनी मनहीत मंजूरी किताब में लिखते हैं- परमात्मा तो मिल ही जाता है बशर्ते हमें कुछ कीमत चुकानी होती है। अपने को खोने की .. अगर हम सोचें इस शरीर को तो ये आसन भी लगता है। वैसे हम बहुत सी चीजों को छोड़ने के लिए फ़ौरन तैयार हो जाते हैं। हम कहते हैं की मैं घर छोड़ दूंगा, पत्नी -बच्चे छोड़ दूंगा, काम छोड़ दूंगा, धन -दोलत छोड़ दूंगा, पद -प्रतिष्ठा छोड़ दूँगा और कहते है की पहाड़ पर चला जाऊँगा मगर अपने को छोड़ने को तैयार कभी नहीं होते तो ये सब छोड़ने से क्या होगा? जिसने अपने को नहीं छोड़ा उसने कुछ नहीं छोड़ा। इस चुनोती में एक ही त्याग है वो है “मैं ” का त्याग ।
इसमें भी यही कहा गया है की "मैं" का त्याग ही आपको सभी चीजों या परमात्मा से मिला सकता है। हम अपने जीने और रहने से हमेशा किसी सवाल को अपने कंधो पर उठा लेते हैं और चल पड़ते हैं उसकी खोज में पर वो सवाल है क्या ? क्या कोई जिद्द है?, क्या कोई आत्मा है?, क्या कोई हद्द है? या कोई आपारआधार है?
इन्ही के बीच में चलते-रहते है.. बस सवाल को उठाएँ निकल पड़ते है दुनिया में और करते क्या है उसे तलाशने लगते है। उसके चिन्ह तलाशने की हट पकड़ लेते हैं। जब की उस सवाल और हमारे खुद के “मैं ” में एक सधारण सा गेप होता है उसे नहीं तलाश पाते। मेरा यहाँ पर खुद का मनना है की अगर हम इस गेप को तलाशने निकलें तो हम उस सवाल की गहराई को खोज सकते हैं।
इस गेप को तलाश लिया तो समझों की हर सवाल को तलाश लिया। मुझे वो २ लाइन याद आती है-
"इस दुनिया में सभी एक-दूसरे से मिलने-जुलने में मस्त है,
मगर खुद से मिलने की सभी लाइन व्यस्त हैं।
खुदा हाफिज़ .......
लख्मी
1 comment:
आपके आलेख आमंत्रित हैं.
आपके आलेख आमंत्रित हैं
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डॉ.मनीष कुमार मिश्रा
के.एम्. अग्रवाल कॉलेज
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