Wednesday, July 27, 2011

दो मिनट शहर के

मैं भी :
मैं क्या कर रहा हूँ और मेरे करने में क्या है? मैं जो कर रहा हूँ उसमें कौन है? क्या वे मुझसे ताल्लुक रखता है तो उसमें मेरे इर्द-गिर्द का क्या रोल है और अगर इसमे मेरा इर्द-गिर्द है तो मेरे होने का क्या रोल है। परिवार हमेशा कहता रहा है, “हमारे लिये कुछ मत कर लेकिन खुद के बारे में सोच" मगर ये खुद में कौन-कौन है?

मैं चले जा रहा हूँ किसी तलाश में - रोज निकलता रहा हूँ लेकिन शायद कोई देखे - जाने हुए पते को ढूँढने। ये तरीका मुझे कहाँ ले जायेगा? से मुझे डर रहता है। मैं उसी जगह पर पहुँच जाऊंगा जहाँ के बारे में मेरे पहले कई लोग जानते आये।

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एक शख़्स :
एक बार मैनें अपने एक दोस्त ने पूछा, “तुने कभी अपने को लेकर सोचा है?”
वो बोला था "हाँ" सोचता हूँ लेकिन वैसे नहीं जैसे तुने अपने को लेकर सोचा है। मैं अगर तुझसे ना मिलूँ, तेरे घर ना आऊँ, तेरी बातें ना करूँ और अपने घर पर भी कभी न लौटूँ, दिन को बाहर निकलो और शाम में वापस आ जाओ।क्या ये जिन्दगी होती है? इससे तो अपने को सोचूँ ही नहीं तभी अच्छा है।

जब वे ऐसे बोलता था तो लगता था कि कोई बड़ी कल्पना लेकर जीने की बात करता है। वे अपने बारे में नहीं, उस तरीके के बारे में बोल रहा था जो "मैं" और "वो" साथ और एक तरह से जीते हैं। ये वाक्या मुझे सोचने पर मजबूर किया की मैं अपने शरीर को किस लिबास के थ्रू देखने कि कोशिश में हूँ।

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कब लगता है हम वापसी पर है? मैं हमेशा सोचता रहा की आखिर में वापसी" के मायने क्या होते हैं? वो वापसी जो काम और रिश्तों से बाहर होती है। जो लौटना नहीं होती। जो समय के गठबंधन से बाहर नहीं होती। 'वापसी' घर आना या सोच मे जाना। अधूरे को पूरा करना या अधूरे से नया बनाना।

1 comment:

Prabodh Kumar Govil said...

aapki bhatkan bhi shaam ko badan aur zehan me kuchh gandh to lati hogi? vahi jeewan hai.