Friday, October 18, 2013

सवाल के आजूबाजू

एक बार फिर से उसी किताब का रूख किया जिसने पहले भी मेरे कई सवालों का उत्तर दिया है। या कह सकते हैं कि उत्तर तो नहीं दिया लेकिन सवाल को सोचने पर जा पहुँचाया। सवाल पूछना आसान नहीं है। सवाल जब अपनी स्वयं की ज़िन्दगी से बाहर निकल रहा होता है तो हल्का जरूर हो सकता है लेकिन किसी और ज़िन्दगी में दाखिल होने के लिये बहुत मस्सकत करता है।


सोच और आंकने की समाजिक पद्धति के साथ में रहना और उसके भीतर अनुसाधनों को सोचना क्या है?

जिस तरह किसी जीवन और उसके भीतर बसे अनेकों शख़्सों के आंकड़ो और जीने के ढंक से जीवनशैली का ज्ञान बनाया जा सकता है वैसे ही उससे सीधा टकराने की कोशिश भी की जा सकती है। यह टकराना उसके खिलाफ जाना है और ना ही उसको तोड़ना है। बल्कि उसके भीतर ही रहकर उसके खिलाफ में रहना है।

वर्ग, पद, मनुष्य और जीवन – जहां इन्हे साथ और एक ही पौशाक में सोचने की जमी हुई कोशिश रहती है वहीं पर एक किताब 'सर्वहारा रातें'में कुछ हदतक जुदा करके सोचने की भी कोशिश दिखती है। ऐसे प्रतिबिम्ब सामने खड़े हो जाते हैं जिसमें सिर्फ किसी को जानकर ही अपना ज्ञान नहीं बनाया जा सकता।

“मैं जिस हाल में हूँ वो 'मैं" ही मुझे रास नहीं आ रहा॥
सिर्फ आइना बनकर जीने की कोशिश ही ताज्जुब लाती है ज़िन्दगी में।"

लख्मी

1 comment:

BHAGWAT DESHMUKH said...

sach mai aap bahut hi accha lekha likhate hai. Please keep it up.
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