250 से 300 रिक्शे यहाँ से हर रोज़ 12 घंटे के लिए किराये पर चलाये जाते हैं। हर आदमी का यहाँ किराये का ही सही लेकिन अपना रिक्शा है। इस बस्ती की पहचान इसी से है। देखने मे ये बस्ती भले ही छोटी व गहरी लगे लेकिन शहर मे इसका अपना ही ख़ास फैलाव है। इन्ही रिक्शों के जरिये ये जगह पूरी पुरानी दिल्ली और नई दिल्ली के बीच मे घूमती है।
यहाँ पर किराये पर 12 घंटे के हिसाब से रिक्शा मिलता है। 30 से 35 रुपये के किराये में इसकी देखभाली भी करनी होती है। इनका किराये पर ले जाने का वक़्त भी समान नहीं है। कोई सुबह 6 बजे ले जाता है तो कोई शाम के 3 बजे। 12 घंटो के हिसाब से ये रात के 4 बजे तक इन सड़कों पर अपनी हवा मे रहते हैं।
खाली यही पहचान है इस जगह की ये भी तय नहीं है। पंत अस्पताल के डीडीए फ्लैट की बाऊंडरी से सटी ये बस्ती उस 12 फुट की दीवार से ऊपर जाती ही नहीं है। इस बस्ती के हर बसेरे की छत बाऊंडरी के उस दूसरी तरफ से बिलकुल भी नज़र नहीं आती। बाकि तो इसको पुराने दरवाज़े, खिड़कियाँ और प्लाईवुड बैचने वाले छुपा देते हैं और ये जगह अंदर की ही होकर रह जाती है।
अपने अंदर कई ऐसे किस्से व अनुभवों को रखने मे अमादा रहती है कि कोई भी यहाँ पर ख़ुद को बनाने मे कोई कसर नहीं छोड़ सकता। ये एक ख़ास तरह के गुलेल की तरह से काम करती है। अपनी तरफ मे खींचकर बाहर फैंकना और फिर अपना आसरा खोज़ना ये यहाँ की पूंजी है। यही करने लोग यहाँ पर कहाँ से आये हैं वे तय नहीं है।
सलाउद्दीन दिल्ली ने आने के बाद पूरे तीन महीने बारह खम्बा रोड़ के पुल के नीचे बनी मस्ज़िद मे रहे। वहीं आने वाले लोगों के जूते-चप्पलो को संभालते। वहाँ पर लगते बाज़ार मे कुछ सहयोग कर अपना आमदनी का किनारा बना लेते। ये करना उनके लिए कोई मुश्किल काम नहीं था। मगर वो तो कुछ और ही चाहत रखते थे।
दिल्ली मे आने का कारण यहाँ पर घूमना था। वे दिल्ली मे घुमना चाहते थे लेकिन काम करने के साथ-साथ। इससे पहले ये बम्बई मे 6 महीने रहे। वहाँ पर भी पटना से आये थे। असल मे ये हैं भी पटना के जबरदस्त पान खाने वाले।
ये मस्ज़िद के पास मे लगते बाज़ार मे से पन्नियाँ, पेपर बीनकर यहीं पर गोदाम मे बैचा करते थे। फिर तो जैसे इनकी हर शाम गोदाम मे ही बितती थी। क्योंकि इनके जैसे कई और लोग थे यहाँ पर जो परदेशी थे। इसी जगह को अपना देश मानकर काम करने की जिद्द मे लगे रहते। यहाँ से बीना वहाँ रखा, वहाँ से उठाया यहाँ बैका। इसी धून मे हर दिन, सप्ताह और महीना बीत जाता।
वे ख़ुद को दोहराते हुए जब बोलते जब गोदाम और कुल्लर बस्ती के बीच एक गऊशाला और मैदान का ही फर्क था। घरों से काम करने और कुड़े के चिट्ठे लगाने का ये जमाआधार साफ़ नज़र आता।
यहाँ आने के बाद मे जिनके पास से ये रिक्शा किराये पर उठाते हैं उनके पास खाली 40 रिक्शे हुआ करते थे। मगर पुलिस वालों से जानकारी रखकर उन्होनें यहाँ रिक्शों की फौज़ जुटाली है। वे कहते हैं, “आज देखों ऊपर वाले के कर्म से 300 से ज्यादा रिक्शे हैं"
ये रिक्शे पुलिस वालों के कर्म की मेहरबानी है। पुलिस वाले जब किसी रिक्शे को उठाते उन रिक्शों को ये कम से कम किमत पर यहाँ पर ले आते और यहाँ पर रिक्शों का आम्बार खड़ा हो जाता।
ये तो दोहपरी का वक़्त था तो लोगों को कम देखना पड़ रहा था यहाँ कि तो अब सुबह हुई है। लोग तो अब अपने काम पर निकले हैं। अपने-अपने रिक्शों की सफाई करके किराये से कमाने की जोराजोरी के मथने की तैयारी कर रहे हैं।
वे जाते-जाते बोले, “यहाँ पर कैसे कोई रिक्शा किराये पर मिलता ऊ तो हमें पता नहीं है लेकिन हमने बहुत जोर लगाया है यहाँ पर टिकने के लिए। पूरे रिक्शो की दिन के शुरू होते ही सफाई की है। इनके पीछे 786 लिखा है। तब जाकर हम यहाँ के बने हैं। लेकिन यहाँ की एक बात बहुत निराली है चाहें कोई भी कहीं से भी आया हो अगर वो क्षमता रखता है कुछ करने की तो ये जगह खुली हुई है सबके लिए नहीं तो जाओ कुछ और तलाशों।"
वे कभी अपना रिक्शा खरीदने की नहीं कहते। कहते हैं, “शायद 6 महीने के बाद मे कहीं और चला जाऊगां। यहाँ पर तो मैं सालों रूक गया पता नहीं कैसे, अब कहीं और चलेगें।"
लख्मी
3 comments:
hi,
mujhe apka blog bhut acha laga.
Kya kaha jaaye.
{ Treasurer-S, T }
हैलो,
मैं उम्मीद करता हूँ कि लेख को किन्ही ऐसे शब्दों और वाक्यों से बयाँ किया जाये जिससे कुछ टकराने का अहसास जुड़ा हो।
शुक्रिया आपका लेख मे अपने शब्द उतारने का।
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