हर किसी के लिये ये शब्द एक अंजान दुनिया और आसानी से न अपनाने वाली धारा के दरवाजे के समान है। जिसकी तरफ इंसान का खिंचना जैसे की बहुत ढंग से हो जाता है क्यों? हर कोई एक उम्मीद लगाकर रखता है कि सामने से कुछ जादू होगा और हाथों मे वो आ जायेगा जिसकी कल्पना पहले से नहीं की हुई थी। वो चला आयेगा जिसे शरीर ने पहले छुआ नहीं है और वो नज़र आयेगा जिसकी कोई छवि नहीं है।
जादू - इसकी जरूरत क्या है समाज़ मे? खैर, ये सवाल समाज के लिये भी क्यों है? जादू की जरूरत क्या है मूलधारा मे जीते हुए शख्स के लिये? आँखों के साथ नज़ारों का रिश्ता, शरीर का साथ जगहों का रिश्ता और बातों के साथ मे सवालों का रिश्ता - इन सब को क्यों सोचते हुए चलना पड़ता है?
हम मानकर चलते हैं कि जादू तो एक खेल का नाम है मगर इसमे छुपे अहसासों का खेल कुछ और है। एक ज़िन्दगी जिसे रूटीन मे बाँधा गया है वो आम ज़िन्दगी बन जाती है और जो रूटीन में नहीं शामिल हो पाता उसे जादू नाम दे दिया जाता है। हम और हमारे शरीर के साथ किये जाने वाले कुछ करतब जो हर कल्पना को मोड़ देते हैं, वही मोड़ जादू है। यहाँ पर जैसे हर कोई जादू करना और दिखाना चाहता है लेकिन ये हो कैसे सकता है?
इसी सवाल पर आकर जैसे सब कुछ रुक जाता है। क्या हमने किया है कभी खुद के साथ जादू? कैसे? लोग एक-दूसरे को कैसे ये जादू दिखा रहे हैं?
लख्मी
2 comments:
Jaadu ek khoobsoorat ehsaas hai.
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
Jaadu ek khash ehsaas hai lekin humare rojana me ye humse kaise takrata hai?
Esa ager ho jay ki roj milne wale sathi se milne ke baad lage ki pehli baar mil rahe hai.. Phir shaqs kisi paheli ki terh se lagne lagta hai...
Thanks
Padna jaari rakhiyga.
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