ज़िन्दगी में हमारे साथ साये के अलावा शायद ही कोई होता है। मगर हालातों की रोशनी में साया भी छिप जाता है।
रात काली होती है मगर वो अपने अन्दर कई धुंधले छीटें लेकर चलती है।
रात अपना दामन पसारे राहगीरों के आने का इंतजार करती है। सुबह यहीं कहीं है। हाथों की मुट्ठी अभी खुलेगी और वो फुर्र हो जायेगी। इस दुनियाँ के ज़र्रे-ज़र्रे में मिल जायेगी।
ओह! बेरी सुबह तू कब आयेगी?
वो कदम बढ़ाती है, फिर आती है,
फिर चलती है और दबा कर चलती है। चलती चली जाती है।
कदमों की आहट कहीं दस्तकें देती है फिर वो चलती है अपने साथ एक छवि लिए।
जो कहती है - सुनती है, इतराती है - शरमाती है। फूल, पत्तियाँ, चीजें, जगहें लोग समय सब बदल जाता है। रात के घने अन्धेरे में एक उजाले की किरण फूटती है। आवाजें तांता लगाए खड़ी होती है।
मैं वही हूँ।
दिनॉक/ 22-07-2009, समय/ रात 8:00 बजे.
राकेश
4 comments:
बहुत ही खुब
लाजवाब अभिव्यक्ति है मगर विडिओ मे आवाज़ नहीं सुन सके शायद कोई प्राबलम है
mein wahi hoin....good ending
THanks u aap ke commment ke liye
hum chahate hai ki aap is tareh hi hum se sampark bana kar rakhain . padhne ka silsila yohi chalta rahe hai.
rakesh
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