ये मैंने आठवीं कक्षा में पढ़ा था। तब उतना समझ नहीं आता था। बस, जवाब देना जरुरी होता था। सिद्धांत प्रेक्टिकल है ये मुझे पता नहीं था। बहुत कुछ आज खुद पर जाँचकर पता चला है कि जितना सोचने में वक़्त लगता है उससे कहीं ज़्यादा अपने सामने किसी संम्भावना में इच्छा अनुसार जीने में लगता है सब गोल है।
इंसान जहाँ से चलता है एक न एक दिन उसी धरातल पर आ जाता है। वो जब अपनी यादों को झिंजोरना आरम्भ करता है तो उसे अतीत की मौज़ूदगी नज़र आती है की वो तब कहा था क्या था? और फिर वो वर्तमान को समझता है तो उसे सब पहले जैसा ही मालूम होता है क्यों ? इसान समय के कई पहलूओ में फँसकर जीता है। समय छलिया है जो तरह-तरह की लिलायें रचता और करता है जिसके प्रभाव से इसान कभी लाचार हो जाता है कभी उसे आसमान भी कम पड़ जाता है। कभी वो खुशी महसूस करता है और कभी दुख ज़िन्दगी कभी मौत से जीत जाती है कभी मौत ज़िन्दगी से।
कई रीति-रिवाजों में संकृतियों में समाज एक सामूहिक रूप से अपने स्नेह और भावनात्मकता को लेकर इंसान को स्वतंत्रत और परिस्थितियाँ पुर्ण जीवन जीने का आधिकार देता है। जो इंसान के अपने हाथों जीना होता है। वो खुद से अपने जीवन को जी सकता है। मगर उसे समाज के साथ चलता ही पड़ता है क्योंकि समाज करवा के जैसा है जिसकी भीड़ से अगर कोई निकल गया या पीछे छूठ गया तो समाज उसे भूल जायेगा और समाज से ही बने सारे रिश्ते-नाते भी वह शख़्स को विसरा (भूला) देंगे। फिर चाहें वो अपने जीवन के किसी भी आधार को क्यों न घसीटता फिरे अगर वापस समाज को पाना है तो समाज की शर्तो और उसकी न्यूनत्मता में अपने बनाना होगा। अगर समाज का दामन थामे चलोगें तो आवश्य ही जीवन का उद्दार हो जायेगा। क्यों सरकार जो मार्ग दर्शन देगी उसी मे जीवन के सारे काम जिम्मेंदारी और नैतिक स्वार्थ भी पूरा होगा। सरकार समाज के ही बीच का हिस्सा है जिसे कल्याण के लिए जीवन-शैली, में रहन-सहन और कार्य-व्यवहार में भी बदलाव लाने के लिए बनाया जाता है जिस को चलाने वाला नेता या चौधरी होता है। सब हुआ पर आम जीवन का सूर्य उदय नहीं हो पाया। आम जीवन पर और उसके चरित्र पर कई साहित्य और कथाएँ है।
कई लोगों ने जीवन की इस भूमि को अपने खून से सींचा। आन्दोलन भरे कई दौर आये और गए लोग जीए और वो किसी तारे की तरह चमके फिर बादलों में छीप गए। पर इस जीवन धरातल के ऊपर कोई पक्की बुनियाद ही नहीं बनी। जिसके ज़ोर से किसी इंसान को उसका अस्तित्व प्राप्त हो पाता फिर भी सहास लेकर इंसान अपने को हर तरह के समय के मुताबिक ढालने की कोशिश करता है। वो किसी की ज़िन्दगी में अपने मौज़ूदगी के निशान बनाता है। समाज में रहकर उसे ज़िन्दगी को एक ढ़ंग मिलता है। लेकिन इस ढ़ंग को वो आत्मनिर्भता से जीना चाहता है। जिससे सब रिश्तों और समाजिक जिम्मेदारियों में रहकर वो अपने जीवन के ऐसे मूल अनूभव जोड़ सकें जो उसके स्वरूप से ज़िन्दा हुए है। उसके ही जगाये हुए हैं।
राकेश
3 comments:
आपकी लेखनी ने प्रभावित किया..शुभकामना लिखते रहें..
आपके विचार पढ_कर अच्छा लगा आपकी लेखनी और प्रखर हो यह कामना - शरद कोकास ,दुर्ग
shokirya ,aap ki talash "e" najar humain apne samvad me laiti rahe .
hum aabhari hai aap ke.
rakesh
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