Wednesday, May 23, 2012

छत पर सोया एक रात

आज तुम लोगों के साथ साझा करने के लिए एक अजीब कहानी बता रहा हूँ। 

वह एक घटना है जिसें मैं वास्तव में किसी समय इस बारे में नहीं सोच पाया था। लेकिन मेरा पहला असाधारण अनूभव की छाया में कई व्यक्ति शामिल हैं। छाया जिसे लोग एक रूप में व आमतौर पर जानते हैं। जो इन पारदर्शी अंधेरे के प्राणियों ( यह शब्द मैं इसलिये इस्तेमाल कर रहा हूँ क्योंकि मैं सिर्फ इंसानों की ही बातें नहीं करना चाहता) यानि सभी में दिखाई देते हैं और अनेक ढंग से गायब होने के लिए इसे छाया कहा जाता है।

चेहरे चाहे ताबें के हो या मास के वो असल में सुविधाओं के अभाव के जरिये, ज्यादातर लोगों एक दूसरे से परिचित करवाते हैं। व्यक्तिगत रूप से मेरे एक या दो दोस्त है। मेरी रोजमर्रा मे मिले इन लोगों को किसी भी कारण इस बारे में नहीं पता की मुझसे सच –झूठ तकाजा नहीं किया जाता। उन्होंने एक बार मुझे बताया है। इन छाया प्राणियों द्वारा सजाया जा रहा माहौल, कभी कभी घर से बाहर प्रकाश को स्वीकार करने को कहता है।

एक कोने में एक दूसरे विभाजन के लिए दिखाई देती लाइनें है। काफी सारी, आड़ी तेड़ी, कुछ दीवार पर गड़ी हुई है तो कुछ खुरचने से बनी है। घर की दूसरी मंजिल पर सोने के लिए दीवार का इस्तेमाल किया जाता रहा है। यह मंजिल छत के आँगन और एक बाथरूम के लिए उपयोग की जाती है। हम सभी फर्श पर गद्दे पर सोए हुए थे। हमें पूरे फर्श की जमीन आँख के स्तर के मुताबित दृश्य दे रही थी। बाथरूम शायद बहुत छोटा है। पानी का गिलास रखा दिखाई दिया। गिलास मे एक दाग दिखाई दे रहा है। साथ ही एक खिड़की या अंदर यह सूर्य के प्रकाश की चांदनी है। जिसका कोई एक दरवाजा नहीं था। इसलिए हम अपनी गोपनियता को छुपाने की कोशिश में एक पर्दा चौखट मे डाल दिया करते थे।

एक रात वहाँ लग रहा था कि सोना मुश्किल हो सकता है। बाकी सब सो रहे थे और केवल चांद का प्रकाश गिर रहा है। मुझे याद है शहर का प्रकाश और चांदनी यह वास्तव में एक किसी के लिये बैक लाइट की तरह है। उसके प्रभाव के कारण होता है। जैसे चांदनीरात ....   "दरवाजा" एक प्रोजेक्शन स्क्रीन के रूप में अभिनय करता है। दीवार पर फोकस बनाता है। किसी छाया को वो चांदनी की वजह छत की दीवारों पर बिखेर देता है। और फिर सपाट पर्दे पर वे झलक नाचने लगती है।  वास्तव में सुबह जल्दी से या देर रात में सोया था। मैं वहाँ बैठा हूँ।| आँखों में आश्चर्य है। फिर अचानक किसी बहस ने ध्यान को पकड़ा। गली के अंदर से किसी के तेज चिल्लाने की आवाजों ने रात को परेशान कर दिया था। शायद यही आवाज़ दिन मे अगर होती तो कभी अपनी ओर ध्यान नहीं खींचती। नीचे गहमागहमी और ऊपर छाया का आंदोलन जारी था। ध्यान अगर उसपर से हट जाये तो वे जैसे कि बदल गया हो, जो पहले था वो सब कुछ अब नहीं था।

मैं गिरती छाया को देखे जा रहा हूँ। वो क्या है उसे सोचे जा रहा हूँ। कुछ देर तो समझ मे नहीं आया की क्यों। वो कभी कोई लड़की सी बन जाती तो कभी किसी जानवर की तरह। मगर ऐसा लगता जैसे वो नाच रही है। हवा के संगीत पत झूम रही है और अचानक ही गायब हो जाती है। मैं उसे देख सोच रहा हूँ "ठीक है, यह शायद सिर्फ परछाई बन चलती हवा के साथ कहीं उड़ जायेगी। 

इस बिंदु पर अपनी आँखें बंद सोने की कोशिश करता तो अचानक फिर से इसी नाच के आंदोलन मे फंस जाता। इस समय कोई पर्दा नहीं, मैं ये खुद को मनाने लगता हूँ। छाया चलती है तो मैं स्थिर रहता हूँ।  मैं पर्दे कि ओर देख रहा रहा हूँ तो कुछ ही सेकंड के भीतर मुझे कुछ भी पर्याप्त नहीं होता। यकीनन मेरी दृष्टि पर मेरा खुद का ध्यान केंद्रित नहीं है।

कुछ ही समय के बाद में पूर्णरूप से ये अहसास होने लगा था की छत पर सोना नामुमकिन है मेरे लिये।

राकेश

2 comments:

Ramakant Singh said...

AKELAPAN AISE DRISHYA PAIDA KAR DETA HAI. KOI SANDEH NAHIN.

Yashwant R. B. Mathur said...

आज 26/06/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर (विभा रानी श्रीवास्तव जी की प्रस्तुति में) लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!