Thursday, April 11, 2013

कल्पना की अजब दुनिया


आपके बाहर की क्या कल्पना है जो आपको खिला सकती है? जब हम बाहर कहते है तो क्या अपने बाहर कहते है या जब हम बाहर की कल्पना कहते है तो ये अन्दर क्यों होता है? यानि हम वो कह रहे है जिसमें हम कहीं होने या उसे छूने की एक खास तलाश में रहते हैं। जो पाया या जो खोया इस को सच कर आप एक उम्मीद और नाउम्मीद के बारे मे कोई फैसला ले रहे हो या निराश हो रहे हो। इसके आगे क्या है जहां से कोई खिंचाव सा महसूस होता है?

ऐसे हमारी आजादी जो हम चीज को लिये उड़ने की सोचती है। तो वो आजादी हमें हर जगह या किसी के बाहर मा ना मिले तो वो एक अपना जाल मे छटपटाना सा महसूस कराती है। बाहर नहीं दिखता। वो एक तरह के माहौल का दायरा ही तो है जिसमें बाहर को देखने वाला अपनी ही कोई भाषा तलाश रहा है कि मेरे से जो बाहर है उसे मैं देखूं तो उसे बोलूँ क्या?

इस शुक्रवार में जैसे ही मेरे सारे दोस्तों ने अपने अपने बाहर को देखने की कोशिश की और बाहर को पाने के लिये कल्पना की तो लगा की जिस बाहर को देखने के लिये हम सभी नें अपनी नज़रे उठाई हैं वो असल में हमारे अन्दर का वो हिस्सा है जो खाली पड़ा है।  यानि सभी अपने अन्दर के किसी मिसिंग यानि लापता किनारे को महसूस कर रहे है जिसे बाहर कह रहे है। लगा की हम सब कल्पना नहीं पा रहा है। बाहर जिन्दगी के हर पहलूओ के बनने की हद में जाने की कोशिश कर रहे हैं। कि कुछ मिल जाये बस, हर चीज हो, हर कोई मौजूद हो, मेरी अपनी पसंद हो, अपना अधिकार हो, बिना रोक-टोक हो, कोई ब्ररेकर ना हो, आसमान हो, लेकिन कोई सीढी ना जिसपर से वापसी का अंदेशा मिलता रहे।

जमीन पर लाखों तरह की तरंगे है मगर फिर भी जमीन के हर जर्रे में आसमान को छुपा रखा है। कल्पना उन जर्रों के अन्दर से होने और ना होने के बीच में कोई दुनिया रच डालती है।

राकेश

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