Tuesday, April 23, 2013

शहर की राह में नये कदम

हर शख़्स अपने तरीके। जेब में कुछ पैसे। कुछ सपने लेकर किसी भी अनजाने शहर में अपना कदम रखता है। उसका रोज़मर्रा, एक भूमिका बन जाता है। इसके चलते-चलते वो शहर में आने जाने के, घूमने के अपने रास्ते खुद से रचता चलता है। वही रास्ता कहीं तो एक नक्शे की तरह उभरता है तो कभी नये नक्शे बना लेता है। ये कोई पहले से बना बनाया या जमा-जमाया नहीं बल्कि अपनी खुद की महफूज़ियत को और आसानी की परतों में अपना रूप इख्तियार करता है।

कदम-दर-कदम बड़ते-बड़ते रास्तों पर एक ऐसी राह बनाते हैं की उसपर चलने वाला अन्जान सा नहीं लगता बस, वो तो एक जैसा रूपान्तर रूप लेकर अपने ही आसपास में घूमता नज़र आता है। जिससे रिश्ता कोई हो या ना हो लेकिन इसका वजन लेना तो कोई भी जरुरी नहीं समझता बस, बीच राह में भी किसी से :

"टाइम क्या हुआ है?”
"ये रास्ता किधर जाता है?”
"वो कहां पडेगा? या कभी-कभी तो आंखो से आखें टकराती है और चेहरे से चेहरे के भाव ही एक दूसरे को अपनी तरफ में खींचने लगते हैं फिर मालूम नहीं पड़ता की जहन उस तरफ में इतना आकर्षित क्यों हो रहा है? फिर नजर से नजर मिलते ही दिदार हो जाता है।

न जाने क्यों जहन एक पल के लिये बेकार हो जाता है। भाव इतने नर्म हो जाते हैं। कि शहर भी अपने खुद के जीने के हाल बने मौसम से आजाद हो जाता है।

शहर की छवि और आकार आंखों में कल्पना चाहें ना समाये पर हर अपना शहर खुद से रचता चलता है। अपने मुताबिक उसमें काल्पनिक व वास्तविक का खेला-खाला समय भरता है। फिर अपने मुकमबल दुनिया बनाता है। हर रोज, हर पल जिसमें एक नये रिश्ते, काम, जगह शख़्स से मिलना है। कभी नजरों से तो कभी बातों से। वो मिलन हमारी ज़िन्दगी में कुछ ऐड करता है। पर हर कि मुलाकातों और मिलने की इच्छाये क्या जोड़ती हैं? शायद एक "भाषा" क्योंकि शायद हर शख़्स की शहर को समझने की। जीने की एक भाषा हर रोज़ बनाती है। लेकिन अपने ही शब्दों की 'बोली' को वो हर वक़्त बदलता रहता है।

इन अलग-अलग बोली और भावों से रचता शहर कितनी क्षमता में जीता है? और उस क्षमता में हर शख़्स अपने जीने के स्रोत कहां से उठाता है। ऐसी ही कुछ मुलाकातें हुई। 

जिसमें से एक हैं "मौलिक बाबू”

आज पूरे स्कूल पर मौलिक बाबू का ही कब्जा था। बस, सिर्फ सामने वाला बड़ा दरवाजा ही खुला था। दरवाजे के थोड़ा आगे की तरफ में ही एक डेक्स लगाये उसपर एक छोटा सा मयूर जग जग रखा था। उसमे बर्फ में लिपटी कई सारी छोटी-छोटी ट्यूब सी पड़ी थी।

आज सण्डे के दिन पौलियो की दवाई पिला‌ई जाती है। तो स्कूल में काफी औरतें, बच्चे और मां-बाप अपनी गोद के बच्चो को यहां लेकर आते और उन्हे पोलियो की दो बून्द पिलवाते। उस दिन स्कूल एक अच्छी खासी डाक्टर की दुकान या फिर बड़ा सा नर्सिगं होम सा लगने लगता। रोते-बिलगते बच्चे उन्हे सम्भालती मायें। पर हाथ पकड़कर ले जाते आदमी उन्हे देखकर लगता है की जैसे स्कूल ने अपना रूप ही बदल दिया हो। कोई उनके डेक्स से अन्दर नहीं जा सकता क्योंकि शायद वहां पर कोई काम ही नहीं है। वो अपने काम को बड़े प्यार से कर रहे थे और फटाफट बच्चों का मुंह खोलते और दवाई पिला देते ताकी बच्चे रोये नहीं।

मौलिक बाबू ये काम पिछले 18 महिनों से कर रहे हैं। यूपी से आये मौलिक बाबू यहां पर सरकारी नौकरी की तलाश में आये थे। कहते है कि इनके खानदान में किसी की भी सरकारी नौकरी नहीं है तो ये यहां पर सरकारी जमाई बनने चले आये। हर तरह के सर्वे इन्होनें यहां पर किये 'गाडी, घर, पानी और अब पोलियो। वैसे ज़्यादा पढ़ नहीं पाये पर अपने ही शब्दों में कहते है, "सरकारी नौकरी की तमन्ना तो तभी ख़त्म हो गई थी जब सरकारी नौकरी का फोर्म भरने में 30 रूपये और किसी सरकारी आदमी के साइन मागें गये थे। हमें इतना तो पता चल गया की शहर सरकारी नौकरी देने से पहले अन्य सरकारी दफ्तरों के दरवाजे दिखाकर मेल-मिलाव करवाता है कि कुछ सीख लो! एक बार एम.बी.बी.एस डाक्टर के साइन करवाने के लिये गया तो उन्होंने ये काम बताया था। पहले तो यूहीं मुंह उठाकर चल दिया करते थे काम पर जब से लोग डाक्टर साहब बोलने लगे तो डाक्टर बनकर आना पड़ा। यहां पर ऐसा तो है की जिस नजर से लोग देखते हैं तो वही बनकर जीना पड़ता है। नहीं तो दुनिया से लड़ो लेकिन हम-तुम परिवार वाले लोगों पर इसका वक़्त ही कहां है? “जितना मिले, जैसे मिले उसी मे गुजारा करो"  जिन्दगी जो देती है वो चुपचाप ले लो चाहे वो दुख हो या सुख" क्योंकि कर तो कुछ नहीं सकते।”

बस, इतना ही वो कह गये।




दूसरी मुलाकात :

एक उलझन रात के हर पहर को गहरा किये जा रही है। एक छोटी सी डिब्बी में उन्होनें अपनी कोने की उगंली डालकर उसे हल्का सा घुमाया उसपर उन्होनें आयोडैक्स जैसी कुछ चीज निकाली और बड़े प्यार से उसे पूरे दातों पर मल लिया और उसी से बनते थूक की पीक को पास ही में मारते हुए वो जमीन में देखते हुए बोली, "भईया अब क्या होना है हमारी झुग्गी का? कोई फैसला होना है या नहीं? आप तो कोर्ट जाते रहते हैं तो कुछ बताओ अब हम कब तक यहां पर है?”

वहीं साथ ही मैं बैठी एक औरत बोली: “अरी तुझे कुछ पता ही ना है की अभी कुछ जवाब दिया ही नहीं है कोरट ने बस इतना कहा है की रुकी है साल-छ: महीने के लिये क्यों भईया सही है ना?”

“अरी जब रुक ही गई है तो लाइट काहे नहीं दे रहे हैं बता?”

“अरी वो लाइट वाला कमिना कोन सा सरकारी वाला था वो भी हमारे तुम्हारे जैसा ही था अगर उसे यकी हो गया की अभी रुकी है साल भर के लिये तो तभी लगायेगा वो लाइट नही तो नही और अगर ये तोडनी ही होती तो वो 8 मई को ही ना तौड़ देते क्यो भईया?” "अरी तो मैं कोन सा कह रही हूँ की तोड़ दो कहीं अचानक ना आ जाये क्यों? अपने अन्दर चल रही उलझन को बाहर धकेल रही एक सीधी बहस थी शहर से, जिसमें अपना आपा खोना नहीं था बस, कई नियमों को जो अब जिन्दगियों पर रख कर शहर की कल्पना कि जा रही है वो पनपे समाज पर क्या मायने रखती है? जिन जिन्दगियों ने कई उतार-चडाव, समय का आना-जाना और कई फैसलों से अपनी जानकारी को बनाया है वो अगर खुद को देखना चाहे तो किससे सीधी बातचीत कर सकती है? बस, इसी को बडे-छोटे सवालों में उठाने की कशमकश चल रही थी। वो खुद ही सवाल बनाती और खुद ही अपने अन्दर कुछ चल रहे को जवाब के माध्यम से बाहर उतारती उनकी किसी भी बात का क्या जवाब हो सकता था? मैं क्या बोलता बस एक लाइन थी जो हमारे बीच मे खीचं गई थी। जो सहानूभूती और फैसलों को ताने-बाने मे लपेट रही थी। सब घूमा सा था। अब समझना क्या था बस रही कि इस लपेट के अन्दर ओर बाहर क्या है? “भईया बता देना कि हम हारे या
जीते"

और मुलाकतें अपने पहर को बदल गई।

लख्मी

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