Wednesday, April 3, 2013

चौराहों का गोदाम

थक कर मैं वहाँ बैठ गया। जहां सें मुझे वो चेहरा याद आया जो मेरी कल्पनाओं के अदखुले दरवाजों से होकर कभी गुजरा था। आज यकायक वो दृश्य आँखों में वापस उमड़ आया। जिसकी चमक में अंधेरे से उजाले की तरफ कदम बड़ाया था। जब तक मैं उस चेहरे को जी भरकर देख लेता तब तक मेरे शरीर की सभी मांसपेशियों ने मेरा साथ छोड़ दिया था।

अपने सामने आने वाली नंगी आवाजों सें मैं बेचैनी को महसूस करने कोशिस करता। मैं किसी कतार में नहीं खड़ा था। मेरे चारों ओर लगी दुकानें, पी.सी.ओ बूथ, सब्जी का ठिया, चाय-नमकिन का ठिया। जहां पर रोज़ाना महफिलें सजती होगी और पर्चूने की दुकान है जो सलीम भाई की है 'हैयर कटिंग' की। बाबूराम की हलवाई की दुकान जिसकी जलेबियों का स्वाद सब की जुबान पर रहता ही है।

इस सारी उथल-पुथल भरे वतावरण में एक प्रकाश सा बिखरा हुआ था। उसी प्रकाश में तमाम वस्तुओं की दुनिया सी नज़र आ रही थी। मगर हवा, पानी की तरह माहौल में वो भीड़ बनाकर मुझे अपनी तरफ खींचे जा रही थी। मैं हताश सा होकर इधर-उधर झाँकने लगा। वहां मौजूद लोगों के बावजूद चीज़ों का वज़ूद कुछ ओर ही चेतना लिये था। जिसके अन्दर से कोई किरण निकलकर मेरी तमाम इन्द्रियों को एक अंजाना सा स्वाद दे जाती। जहन पे सभी एक दस्तक सी दे रही थी। चौराहों से आती टोली वहां के ठहरे समय को हल्के से छेड़ जाती। फिर लोग अपनी दुनियाओं में लीन हो जाते। कहीं से आकर ठहर जाने के बाद यहां फिर किसी तरह की रफ्तार होने लगती पर वो रफ्तार क्या होती ये पता नहीं चलता था। जैसे लोहे को काटते हाथ जब एक के बाद एक लोहे को काटने का प्रयास कर रहे होते हैं तो वे खुद भी लोहा बन जाते हैं। वैसे ही इस चौराहे का गोदाम अपने आप को एक ऐसी सिद्दत से देखता है। जैसे लगता है की आसमान से ओश की बूंद बनकर गिरने वाले शीत अहसासों का झूंड़ यहां अचानक ही आ गया हो। या कोई चाहतों सें खड़ी की गई समय की मिट्टी और पानी से बनाई अदभूत नगरी हो। जो न घर है न रहगीरों का ठीकाना वो तो चीजों को चुन-चुनकर उन्हे किसी आकार में ढालने की भूख है। जो किसी चीज़ की ऐसी स्थिती या रूप है जिसे समझने के बाद में किसी असाधारण वस्तु का पुर्नगठन करने का दमोदार संम्भालना हो।

गोदाम की असली पहचान है या नहीं। इस बात पर मुझे संदेह है। जीवन में कौन सुख और इज्जत नहीं चाहता। सारे सुखो से इंसान को ये सुख क्या कम है कि वो जटील से जटील हालातों में भी जिन्दा है। ऊंची-ऊंची और बड़ी महत्वकांक्षा के अतरिक्त भी जिन्दगीं मे महत्वकांक्षा पलती है। जो आम जीवन में संजीवनी बूटी की तरह हर शख़्स को पुनहजीवित करती रहती है। फैसलों में अपने आप को किसी आग में सोने की तरह जलाने की जद्दो-जहद भी इंसान ही करता है। रोज़ाना गोदाम में काम करते हुए रेडियो और सीडी प्लेर पर नये और पुराने गाने सुनते, फिल्मी गानों में ये सब इतने मसगूल हो जाते है की न सुबह का पता चलता और ना ही शाम ढ़लने की खबर होती। प्रमोद, दिपक, शेरू भाई मस्ती से चीजों को छाटते। दोनों पैरों को मोड़कर बैठते। हाथ और कपड़े गोदाम के काम मे मैले हो जाते। फिर भी चेहरा फूलों की तरह मुस्कुराता रहता। आँखों में झील कैसी गराई होती है कि कब कहां से कैसी या कौन सी आव़ज पैदा जायेगी इसका कुछ पता न चलता।

मेरी सोचने की क्षमता जैसे और ऊर्जा मांगती है। तमाम तरह की चीजों के ऊपर बैठे-बैठे वो हाथों को मशीन से भी तेज चलाने लगते हैं। लगता उनके हाथ में कोई पुर्जा ही फिट हो गया है। जिसकी मदद से वो फुर्ती से काम करने लगते हैं। यह पुर्जा यहां कहाँ बनता है। मैं इसके बारे में जानना चाहता हूँ।

बाहर क्या हो रहा है? वो इस से बेख़बर होकर अपनी दुनिया में कुछ न कुछ तलाशते रहते हैं। चीज़ों की इन सब को बड़ी परख है। एक ही बार में कौन सी चीज़ काम चलाऊ है या कैसी है। वो ये अच्छी तरह पहचान जाते हैं। पूरे दिन गोदाम में आये माल में छटाई होती है फिर आखिर में रद्दी, हल्की प्लास्टिक और कड़क प्लास्टिक को अलग-अलग करके तराजू पर चड़ा दिया जाता है। शाम तक गोदम का सारा माल बेच दिया जाता है। बस, आज का काम खत्म और अगले रोज़ की तेय्यारी शुरू। और वो भी बिना रूके।

ये जगह मेरी नहीं है मगर मैं जगह का हूँ। इसलिये सब के सामने हूँ। बातें उड़ते हुए कागजों, पन्नियों को देखकर लगता है जैसे इस जगह में ही वसंत अभी आया है। और अपनी मस्त हवा के झोकों के साथ चीजों और वहां के प्रत्येक चीजों से हटखेलियाँ कर रहा है।

प्रमोद का एक दोस्त उस रोज़ आया जब गोदाम में खड़े टेम्पू में माल भरा जा रहा था। धूप ठीक सिर के ऊपर थी। पसीनों में लथ-पथ उस का शरीर जैसे हांफ रहा हो। उस के हाथों में एक झोला था जिसमें उसके कुछ हफ्ते ठहरने के कपड़े थे और चेहरे पर नई जगह में आने से जन्मे उम्मीदों भरे भाव छलक रहे थे। गांव से वो शहर में कुछ आमदनी के लिये आया था। प्रमोद उसे देखकर बहुत खुश हुआ और बोला, "अरे सोनू तू। गाँव में सब ठीक तो है न।" और कैसी लगी दिल्ली?”

प्रमोद के इन तेजी भरे सवालों का भला वो एक बार में कैसे जबाव दे पाता। जरा, चैन की सांस तो ले लेने दे फिर सारा किस्सा सुनाता हूँ। उसने सुस्ताते हुए अपनी सहमती जताई।

फिर नये दिन की तैयारी शुरू हुई। यहां पर 24 घंटे में दिन कभी चार बात तो कभी दो बार शुरू होता है। आज का ये तीसरा दिन था।

राकेश

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