शहर में एक अवैध जगह में अपना घर जब कोई शख़्स बना लेता है तो उसे अपनी ज़िन्दगी का हिस्सा मान लेता है।उस हिस्से को अपना सहारा समझने लगता है। अगर इसे सत्ता स्वीकारती नहीं, कुछ कानुनों के आधार पर नजायज ठहराती है। तब लोग सत्ता को दोषी करार करते हैं, गालियां देते हैं। लेकिन उनका जगह के साथ क्या रिश्ता है उसे समझाने का तरीका नहीं मिलता और शख़्स उस चीज के लिये रोता और बिलखता है। जो उनकी अपनी है ही नहीं।
शायद जो अपने कब्जे की या कन्ट्रोल की पकड़ नहीं है तो उसे क्यों चुनते हैं लोग? क्या ऐसी जगह या सपनों की दुनिया सजाने का कोई खासा परमीट हमारे पास होता है?
एक जगह यानी जमीन का टुकड़ा जिसे सत्ता माप डण्डों के जरिये देखती है। या तो सब से नीचे का करार करती है या सबसे ऊपर का लेकिन बीच का कहां है ये ही सब की नज़र से औझल रहता है या रखा जाता है। वो उसे ही पता होता है जो उस जमीन के टुकड़े पर समय का एक लम्बा आकार तैय्यार कर देता है। हर तरह का जोखिम और कठिनाइयां को हर हाल में अपनाता है।
जब हमारे आगे कोई प्रहार होता है तो हम उस प्रहार के आसपास से ही उससे लड़ने का औजार ढूंढ लेते हैं। ताकी जो भाषा हम से लड़ रही है उस से टकराने के लिये लोहा ले सके। क्योंकि समाजिक ज़िन्दगी कहती है कि लोहा ही लोहे को काटता है। अगर मैं कहना चाहूं की तोड़ने वाली भाषा को तोड़ने वाली भाषा ही टक्कर दे सकती है तो इस लाईन के विरुध आप की क्या सलाह होगी?
समाज जिससे अलग हुये शख़्स जो अपना कोना बना कर खुद अपने जीने की वजहों को बना रहे हैं। जिनका समाज में आने से पहले कोई गणित नहीं बनता और ना ही कोई कल्पना बनती। इसके बावजुद भी एक परिक्रिया बनी एक अजब कल्पना जन्म लेती है। जो समाज अपने बहिखातों में तब ही दर्ज करता है जब उस शख़्स की आधी ज़िन्दगी ये बताते बताते बीत जाती है की उसकी सोच और विचारों कि भी दुनिया है। जिसका आधार वो खुद है। जो अपने वज़ूद से ताल्लुक रखता है। मौज़ूदगी को बयां करता है। इन्सान क्या है? जीवन और जड़ में इन के बीच जीने का वर्णन देना और बदलावों की परिभाषायों को तलाशते और बनाते है हमारी उम्र ही हमारा अनुभव सुनाती है। कहानियां गढ़ती हैं मगर कैसे?
इन बीच की धाराओं में जीवन की किन झलकियों को मान्य रखा जायेगा के दरमियां ही जीवन झूलता है। क्या बोले और क्या बोलने से पहले रूके की परतों में वज़न बड़ता जाता है।
राकेश
शायद जो अपने कब्जे की या कन्ट्रोल की पकड़ नहीं है तो उसे क्यों चुनते हैं लोग? क्या ऐसी जगह या सपनों की दुनिया सजाने का कोई खासा परमीट हमारे पास होता है?
एक जगह यानी जमीन का टुकड़ा जिसे सत्ता माप डण्डों के जरिये देखती है। या तो सब से नीचे का करार करती है या सबसे ऊपर का लेकिन बीच का कहां है ये ही सब की नज़र से औझल रहता है या रखा जाता है। वो उसे ही पता होता है जो उस जमीन के टुकड़े पर समय का एक लम्बा आकार तैय्यार कर देता है। हर तरह का जोखिम और कठिनाइयां को हर हाल में अपनाता है।
जब हमारे आगे कोई प्रहार होता है तो हम उस प्रहार के आसपास से ही उससे लड़ने का औजार ढूंढ लेते हैं। ताकी जो भाषा हम से लड़ रही है उस से टकराने के लिये लोहा ले सके। क्योंकि समाजिक ज़िन्दगी कहती है कि लोहा ही लोहे को काटता है। अगर मैं कहना चाहूं की तोड़ने वाली भाषा को तोड़ने वाली भाषा ही टक्कर दे सकती है तो इस लाईन के विरुध आप की क्या सलाह होगी?
समाज जिससे अलग हुये शख़्स जो अपना कोना बना कर खुद अपने जीने की वजहों को बना रहे हैं। जिनका समाज में आने से पहले कोई गणित नहीं बनता और ना ही कोई कल्पना बनती। इसके बावजुद भी एक परिक्रिया बनी एक अजब कल्पना जन्म लेती है। जो समाज अपने बहिखातों में तब ही दर्ज करता है जब उस शख़्स की आधी ज़िन्दगी ये बताते बताते बीत जाती है की उसकी सोच और विचारों कि भी दुनिया है। जिसका आधार वो खुद है। जो अपने वज़ूद से ताल्लुक रखता है। मौज़ूदगी को बयां करता है। इन्सान क्या है? जीवन और जड़ में इन के बीच जीने का वर्णन देना और बदलावों की परिभाषायों को तलाशते और बनाते है हमारी उम्र ही हमारा अनुभव सुनाती है। कहानियां गढ़ती हैं मगर कैसे?
इन बीच की धाराओं में जीवन की किन झलकियों को मान्य रखा जायेगा के दरमियां ही जीवन झूलता है। क्या बोले और क्या बोलने से पहले रूके की परतों में वज़न बड़ता जाता है।
राकेश
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