संदर्भों से हम क्या समझते हैं? संदर्भ क्या करते हैं? इनकी भाषा और जीवन मे उतर जाने के मायने क्या है? कई तरह के संदर्भों के मथने से कई चीज़ें उभरकर आई जिसे कभी तो अपनाया गया तो कभी उन्हे अपने घर, परिवार और रिश्तों से दूर रखा लेकिन फिर हम क्या सोचते हैं? क्या मथने के बाद निकलने वाले रूपों को सोचते हैं या हमेशा मथे जाने की वाली प्रक्रिया को?
मथने से जो भी निकला उसने समाज़ मे अपनी जगह कैसे बनाई? इन सवालों को हम चीज़ों से नहीं बल्कि उसके हर वक़्त रूप और आकार बदलने से देख सकते हैं। वो क्या है?
कई संदर्भ अपना आकार एक रास्ते की ही भांति बनाने की कोशिश मे रहते हैं। जिसका अहसास एक प्लेटफॉर्म की तरह से बयाँ होता है जहाँ पर कोई किसी को जानता नहीं है बस, राहगिर की तरह ही सब जाने जाते हैं। उनके नाम और काम के पैमाने किन्ही कहानियाँ के रूपों मे महकते हैं।
हर संदर्भ अपने अन्दर अपने ही शब्द और उनको सोचने के मायने बनाते हुये चलता है। मायने जो शब्दों से पनपते है और उसकी अन्दर बसे रूप किसी न किसी शख्स की कल्पना देते हुये उभरते हैं। यहाँ पर हमेशा एक सवाल अटक जाता है कि जिनको हम पढ़ या सोच रहे हैं वो शब्द है या कोई बोली?
इस सवाल में हमेशा एक खींचातानी रहती है। संदर्भों की रूपरेखा मे और वहाँ पर आये लोगों में इस सवाल से बनने वाली दुनिया जैसे कहीं गायब रहती है। हम इस सवाल को अगर कुछ यूं सोचे की, शब्द और उसका उच्चारण क्या है?
देखा जाये तो इन्ही दो चीज़ों मे पूरी पढ़ाई का माप - दण्ड छुपा रहता है। कभी वो किसी संदर्भ की बाहर की दुनिया मे भाग जाता है तो कभी शब्दों से बनी कहानी पर ही टिक कर रह जाता है। हमारे आसपास मे जैसे शब्दों और कहानियों की बौछारें सी जगमगाई रहती है। सभी उसी मे लीन से महसूस होते हैं। हर कहानी के जरिये किसी ज़िन्दगी को देखने की कोशिश होती है लेकिन इस कथन मे एक बहस छुपी रही है कि ज़िन्दगी कभी कहानी नहीं होती।
हमारा अपना जीना हमारी ज़िन्दगी के विपरित नहीं होता। उसी के संदर्भ मे कई कहानियाँ रिश्ते पनपते हैं। जैसे, छोटे - छोटे कामों की जगहें और मिलने के ठिकाने कभी निजी रूप मे नहीं होते वे खिलते हैं मिलने औ मिलकर चले जाने के ग़म में। जिसमे कभी मिलन तो कभी बिछड़ने के किस्से अपनी छाप छोड़ जाते हैं और उसी की कसक से नए दृश्य गढ़ने लगते हैं।
ये गढ़ना कभी बदलाव की आग मे नये रूप लेता है तो कभी बनने से टूटने तक के खेलों को खेलता है। हमारी ज़िन्दगी और हमारी जगहें इन सभी पलों से जुझती है। जिसके साथ कभी तो हमारी रोज़मर्रा से टकराव होता है तो कभी सिर्फ मानने के ऊपर होता है। क्या ये पल हमें कोई अनुभव नहीं करवाते?
मान लेते हैं - हर संदर्भ अपनी रूपरेखा और अपने अनुभवी समय से संवाद करता है। जिसके साथ मे जमीन से उठने वाले सपने और यादें किस तरह से संजोई जाती है? उनका रिश्ता वहाँ के माहौल से क्या होता है?
संदर्भों को लोग खुद के लिये बनाकर रखते हैं। उसमे होने वाले हर नमूनों को अपने रिश्तों की शक्ल देकर उसको अपने से बाहर ले जाते हैं। संदर्भ जैसे खुद को गढ़ने के जैसा होता है। जो एक सार्वजनिक अहसास खुद मे भर देता है। कहते हैं - हर संदर्भ मे जीने के समान बहुत कुछ होता है बस, उसको संवाद मे लाने का ढाँचा होना चाहिये।
पिछले दिनों कई तरह के संदर्भ देखे। कहीं पर मिलने के, कभी पर समाजनिक चर्चा के, कहीं पर कामों के दुनिया के, कहीं पर आगे की कल्पना करने वालो के, कहीं पर इंसान के भविष्य के चिंता जताने वाले तो कहीं पर बस, रूकने वाले।
कभी तो लगा जैसे ये संदर्भ है या महज़ ठिकाने। पहले तो लगा कि ये ठिकाने ही हैं बसर्ते ये देखना जरूरी है कि इनमे घुलने वाली बातों के रूप क्या है? समाजिक ढाँचों को अगर तलाशा जाये तो कुछ भी नज़र आ जाता है लेकिन बौद्धिक जीवन के ढाँचे क्या है? ये संदर्भ कहाँ है?
इसकी तलाश जारी है - फिर लगा की ये ठिकाने और संदर्भ बना - बनाया रूप और आकार नहीं मांगते बल्कि ये बनाये जाते हैं। गुटों के हिसाब से ये रूप पाते हैं।
लख्मी
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