Wednesday, December 16, 2009

कुछ घटा, पता नहीं

कुछ घटा, क्या घटा कुछ पता नहीं भरी सड़क जिसपर दौड़ लगाने, एक – दूसरे को धक्का मारने के साथ ही साथ एक – दूसरे के ऊपर चड़कर जाने को तैयार शहर हमेशा इस अचम्भे मे रहता है की क्या घटा?

घटना के बाद का एक्शन, घटना के बाद के नियम और उनपर कई समय तक चलना शहर की जिम्मेदारी है। बस, यूँही रास्ते बदलते जाते हैं। कुछ टूटा और नये नियम लागू हो जाते हैं। इसके साथ लड़ाई में रहने वाला शहर हमेशा तैयार रहता है।

घटना के बाद के चित्र देखकर घटना को कहानी की तरह सुनाना जोरों से होने लगता है। एक घटना कई ज़ुबानों और मोड़ों से शुरू होती है लेकिन कहानी का अंत एक ही जगह पर आकर रुक जाता है। कभी कहानी में भीड़ होती है तो कभी कहानी में सन्नाटा।

हर कोई कहानी के जरिये घटना का चश्मदीद गवाह बनकर शहर में घूमने लगता है।

कोई सबूत निकला, नहीं। कोई ज़िन्दा बचा - पता नहीं।

लेकिन इसके बावज़ूद भी कुछ रुक जाये ये तय नहीं होता। शहर की भागदौड़ के बीच में ये घटनायें गोल-गोल चक्की तरह से चलती हैं जिनसे निकलने वाले इंधन से शहर भागता है।

लख्मी

1 comment:

अजय कुमार झा said...

वाह जी क्या शैली है ...एकदम दिलचस्प