क्या इतना आसान है किसी ऐसे समय को भूला देना जिसने खुद को बदलने का मौका दिया। और कभी यूं भी लगता है कि समय वहीं उसी जगह पर रूक गया है। जब वे ज्यादा क्षणों मे तब्दील हो गया था। उसमें दृश्य भरपूर रहे थे। कभी कुछ कम हुए मगर वो भी दमदार थे।
अशौक जी काम से काफी समय पहले रिटायर हो चुके हैं। वे काम जिसने उनके उस चेहरे को छीन लिया था जिसके साथ वे लम्बे समय तक यादों मे बसे रहे। यादें उन्हे कभी सुख देगी उन्हे इसकी कोई उम्मीद नहीं रही है लेकिन उनमें वे अपने चेहरे को खींच लाये है।
वे चेहरें पर रंग लगाकर कभी कोई बादशाह बन जाते तो कभी कोई मंत्री। कभी बिना बोले जाने वाला आदमी तो कभी हंसाने वाला जोकर। मंज घर का कोई कोना होता और श्रोता उनकी गली के बच्चे। कभी कभी तो अपनी छत पर पूरी तरह से अपने दोस्तों के साथ उस समय को ही रच देते। महीने मे कभी भी वे ये बनकर बिना किसी को न्यौता दिये श्रोता बना डालते।
नुसरत जी - अनेको अंजान लोग बनकर जी रहे है। आज भी, कभी भी अपना नाम बदलकर किसी भी बहिखाते पर लिखवा देते हैं। कभी किसी लाइब्रेरी के रजिस्टर पर तो कभी अपने महीने के समान लाने वाली कॉपी पर। अंजान बनकर जीना उन्हे कई कहानियां दे जाता। वे कुछ भी बन जाते और अपनी बात उसकी कहानी कहकर सुना डालते। कहानियां जैसे उनकी जैब के किसी कोने मे पड़ी मुड़ गई हो। वे उन्हे सीधा करते और सुना देते। कभी अशौक, कभी रंजन, कभी सइयद, कभी खजान बनकर वे अपने ही कमरे मे जी रहे है। उनके कमरे मे कई किताबें डिब्बो मे पैक पड़ी है। जिनपर ये नाम छपे हुये है।
अलग अलग किताबघर मे वे कई नामों से किताबों को पढ़ते और उन्हे अपने साथ घर ले आते। उन्ही किताबों मे जैसे वे शख्सियतें आज भी जिन्दा हो और कहानियां सुना रही हो।
कहानियां बटोरना किसकी आदत नहीं? उनकी जिन्हे सिर्फ कहानियां सुनाने के मजा आता है या उनकी जिनको सिर्फ लिखना आता है।
मोहन भाई का बक्सा इन सभी मजेदार समय को छुपाये रखने से भरा हुआ है। उनका मानना रहा कि सबसे ज्यादा कहानियां लोग तब सुनाते हैं जब वे झूठ बोल रहे होते है या किसी हादसे से बचना चाह रहे होते हैं। वे कहते है कि अगर आपको सबसे बड़ा कहानिकार बनना है तो पहले झूठ बोलना सीखिये। वे इन माहौलो के तो सरताज रहे है। जिसे वे आज सबसे बड़े कहानिकार की तरह सुनाते हैं और घुमते हैं उन सभी लोगो को लिये। छोटी कोर्ट, जहां पर वे लिखने का काम करते थे। यहां लिखने के काम से ज्यादा वे सुनने वाले बनकर कभी तो लिखने से पहले ही सलाहकार बन जाते, कभी फैसला करने वाले, कभी बचाव करने वाले, कभी गवाह तो कभी कुछ और। कोई अपनी बात को कैसे बतला रहा है। वे उसे कैसे लिखेगें की तरफ ले जाते। जैसे वे किसी कम्पलेंट को नहीं बल्कि जीवन के किसी सवाल को लिख रहे हैं जिसका हल उन्हे भी अपने जीवन मे खोजना होगा। उनका बक्सा इन सब कहानियों को जीवन के उदाहरण बना आज भी कभी भी खुल जाता है। लिखना अब भी चालू है - बशर्ते काम अब नहीं रहा।
वे आज भी अपने मे ये सब कुछ लिये चलते है।
उन्होने पूछा, “तुम्हारे जीवन में ये सवाल कभी नहीं आया की खुद और घर के बीच मे से किसी एक को चुनो?
आज भी उनके हाथ उन छोटी किताबें होती है। घर आते आते वे उन्ही किताबों को पढ़ते हुए अथवा गुनगुनाते हुये आते हैं। कभी तो किताबों के बीच मे ही अपनी किसी लाइन को जोड़ देते हैं तो कभी किसी लाइन को काट देते हैं। दिमाग अपने आप ही कुछ काटई और छटाई करता चलता है। अपनी कमाई का एक छोटा हिस्सा वे हमेशा इन किताबों के लिये छोड़ देते। भले ही उनके अलावा इन्हे कोई पढ़े या ना पढ़े लेकिन वे इनके साथ अपनी दोस्ती नहीं तोड़ सकते थे। काफी समय के बाद मिला एक दोस्त जो ये सब देखकर चौंक गया।
उस दोस्त ने सवाल उनसे पूछा था वे हंसकर बोले, “जब कोई जोर देगा इस सवाल को सोचना तो मैं तुम्हे ही उनके आगे खड़ा कर दूंगा।"
बड़े भौपू की आवाज़ देर रात आती रहती। कोई क्यों इतनी रात तक ये बजाता है हर कोई शायद ये पूछता होगा और झूंझलाकर सो जाता होगा। मगर टीकूं भाई उसमे पूरी तरह से खोये रहते। बरातघर के बन्द हो जाने के बाद में वहां जमती हल्की छोटी महफिले उनके लिये कोई टाइम बिताने का साधन नहीं थी। वे यहां से वे सीखे थे जिसमें उन्हे सुनने वालो की भीड़ लग जाती थी। कौन गा रहा है इसे भूल कर लोग उन्हे सुनने के लिये आते। कभी कभी टीकूं भाई खाली आप ही बजाओं का नारा भी उन्होने सुना है।
उसी जगह पर उनके साथ अब कई और छोकरे हैं जो अलग अलग स्टूमेंट लिये उनके साथ अपनी आवाज़ को मिला रहे हैं। जैसे उन्होनें किसी लय को कईओ के दिल मे उतार उन्हे यहां खींच लिया है। आवाज़ कभी मिक्स हो जाती तो कभी एक के ऊपर दूसरी चड़ जाती। पर लय के निरंतर आने का सिलसिला कभी खत्म नहीं होता।
सोचो अगर जीवन का एक कोई पहलू पूरे जीवन को ही चमक दे गया तो उस पहलू को दोहराया कैसे जायेगा? दोहराना भी छोड़ो वो है ही क्या? जिन्दगी मे कई बार ऐसे वक़्त आते है जब ये सोचना बेहद जरूरी होता है कि जीवन के किस हिस्से को आगे ले जाने की जरूरत है? उसे जो कामयाबी और नकामी का उदाहरण बनेगा या उसे जो कुछ नया गढ़ेगा। यह वक़्त नये और छूटने वाली अनेकों छवियों के बीच मे खड़ा कर देते हैं। क्या पकड़ा जाये और क्या छोड़ दिया जाये?
कुछ नया मिलना और कुछ छूट जाना हमेशा साथ साथ चलता है। कुछ छूट जाने का गम करना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना की नये की उमंग मे आगे बढ़ना। यह सोच उज्वल है। मगर शायद कुछ ऐसा भी है जिसे जीवन मे रिले करने की भूख रहती है। रिले करना विभिन्नताओ के अहसास में रहने के समान है। रिले ट्रांसफर है सोच का, छवि का, और समय का। रिले करना किसी को चौंका लिये होता है, हैरान करने करने के लिये, चिड़ाने के लिये, लुभाने के लिये, अपनी ओर खींचने के लिये, डराने के लिये, पंगाने लेने के लिये और चैलेंज करने के लिये।
ये कुछ तो बहुत कम समय के लिये बन पाते हैं तो कुछ कम समय के लिये होते मगर बार बार सिर चड़ जाते है। जीवन मे किसी वक़्त ने कोई चेहरा जैसे तोहफे मे दे दिया हो। वो याद तो रखा जायेगा मगर किस तरह? उसे हम खुद से बुन ले तो क्या हो?
लख्मी
अशौक जी काम से काफी समय पहले रिटायर हो चुके हैं। वे काम जिसने उनके उस चेहरे को छीन लिया था जिसके साथ वे लम्बे समय तक यादों मे बसे रहे। यादें उन्हे कभी सुख देगी उन्हे इसकी कोई उम्मीद नहीं रही है लेकिन उनमें वे अपने चेहरे को खींच लाये है।
वे चेहरें पर रंग लगाकर कभी कोई बादशाह बन जाते तो कभी कोई मंत्री। कभी बिना बोले जाने वाला आदमी तो कभी हंसाने वाला जोकर। मंज घर का कोई कोना होता और श्रोता उनकी गली के बच्चे। कभी कभी तो अपनी छत पर पूरी तरह से अपने दोस्तों के साथ उस समय को ही रच देते। महीने मे कभी भी वे ये बनकर बिना किसी को न्यौता दिये श्रोता बना डालते।
नुसरत जी - अनेको अंजान लोग बनकर जी रहे है। आज भी, कभी भी अपना नाम बदलकर किसी भी बहिखाते पर लिखवा देते हैं। कभी किसी लाइब्रेरी के रजिस्टर पर तो कभी अपने महीने के समान लाने वाली कॉपी पर। अंजान बनकर जीना उन्हे कई कहानियां दे जाता। वे कुछ भी बन जाते और अपनी बात उसकी कहानी कहकर सुना डालते। कहानियां जैसे उनकी जैब के किसी कोने मे पड़ी मुड़ गई हो। वे उन्हे सीधा करते और सुना देते। कभी अशौक, कभी रंजन, कभी सइयद, कभी खजान बनकर वे अपने ही कमरे मे जी रहे है। उनके कमरे मे कई किताबें डिब्बो मे पैक पड़ी है। जिनपर ये नाम छपे हुये है।
अलग अलग किताबघर मे वे कई नामों से किताबों को पढ़ते और उन्हे अपने साथ घर ले आते। उन्ही किताबों मे जैसे वे शख्सियतें आज भी जिन्दा हो और कहानियां सुना रही हो।
कहानियां बटोरना किसकी आदत नहीं? उनकी जिन्हे सिर्फ कहानियां सुनाने के मजा आता है या उनकी जिनको सिर्फ लिखना आता है।
मोहन भाई का बक्सा इन सभी मजेदार समय को छुपाये रखने से भरा हुआ है। उनका मानना रहा कि सबसे ज्यादा कहानियां लोग तब सुनाते हैं जब वे झूठ बोल रहे होते है या किसी हादसे से बचना चाह रहे होते हैं। वे कहते है कि अगर आपको सबसे बड़ा कहानिकार बनना है तो पहले झूठ बोलना सीखिये। वे इन माहौलो के तो सरताज रहे है। जिसे वे आज सबसे बड़े कहानिकार की तरह सुनाते हैं और घुमते हैं उन सभी लोगो को लिये। छोटी कोर्ट, जहां पर वे लिखने का काम करते थे। यहां लिखने के काम से ज्यादा वे सुनने वाले बनकर कभी तो लिखने से पहले ही सलाहकार बन जाते, कभी फैसला करने वाले, कभी बचाव करने वाले, कभी गवाह तो कभी कुछ और। कोई अपनी बात को कैसे बतला रहा है। वे उसे कैसे लिखेगें की तरफ ले जाते। जैसे वे किसी कम्पलेंट को नहीं बल्कि जीवन के किसी सवाल को लिख रहे हैं जिसका हल उन्हे भी अपने जीवन मे खोजना होगा। उनका बक्सा इन सब कहानियों को जीवन के उदाहरण बना आज भी कभी भी खुल जाता है। लिखना अब भी चालू है - बशर्ते काम अब नहीं रहा।
वे आज भी अपने मे ये सब कुछ लिये चलते है।
उन्होने पूछा, “तुम्हारे जीवन में ये सवाल कभी नहीं आया की खुद और घर के बीच मे से किसी एक को चुनो?
आज भी उनके हाथ उन छोटी किताबें होती है। घर आते आते वे उन्ही किताबों को पढ़ते हुए अथवा गुनगुनाते हुये आते हैं। कभी तो किताबों के बीच मे ही अपनी किसी लाइन को जोड़ देते हैं तो कभी किसी लाइन को काट देते हैं। दिमाग अपने आप ही कुछ काटई और छटाई करता चलता है। अपनी कमाई का एक छोटा हिस्सा वे हमेशा इन किताबों के लिये छोड़ देते। भले ही उनके अलावा इन्हे कोई पढ़े या ना पढ़े लेकिन वे इनके साथ अपनी दोस्ती नहीं तोड़ सकते थे। काफी समय के बाद मिला एक दोस्त जो ये सब देखकर चौंक गया।
उस दोस्त ने सवाल उनसे पूछा था वे हंसकर बोले, “जब कोई जोर देगा इस सवाल को सोचना तो मैं तुम्हे ही उनके आगे खड़ा कर दूंगा।"
बड़े भौपू की आवाज़ देर रात आती रहती। कोई क्यों इतनी रात तक ये बजाता है हर कोई शायद ये पूछता होगा और झूंझलाकर सो जाता होगा। मगर टीकूं भाई उसमे पूरी तरह से खोये रहते। बरातघर के बन्द हो जाने के बाद में वहां जमती हल्की छोटी महफिले उनके लिये कोई टाइम बिताने का साधन नहीं थी। वे यहां से वे सीखे थे जिसमें उन्हे सुनने वालो की भीड़ लग जाती थी। कौन गा रहा है इसे भूल कर लोग उन्हे सुनने के लिये आते। कभी कभी टीकूं भाई खाली आप ही बजाओं का नारा भी उन्होने सुना है।
उसी जगह पर उनके साथ अब कई और छोकरे हैं जो अलग अलग स्टूमेंट लिये उनके साथ अपनी आवाज़ को मिला रहे हैं। जैसे उन्होनें किसी लय को कईओ के दिल मे उतार उन्हे यहां खींच लिया है। आवाज़ कभी मिक्स हो जाती तो कभी एक के ऊपर दूसरी चड़ जाती। पर लय के निरंतर आने का सिलसिला कभी खत्म नहीं होता।
सोचो अगर जीवन का एक कोई पहलू पूरे जीवन को ही चमक दे गया तो उस पहलू को दोहराया कैसे जायेगा? दोहराना भी छोड़ो वो है ही क्या? जिन्दगी मे कई बार ऐसे वक़्त आते है जब ये सोचना बेहद जरूरी होता है कि जीवन के किस हिस्से को आगे ले जाने की जरूरत है? उसे जो कामयाबी और नकामी का उदाहरण बनेगा या उसे जो कुछ नया गढ़ेगा। यह वक़्त नये और छूटने वाली अनेकों छवियों के बीच मे खड़ा कर देते हैं। क्या पकड़ा जाये और क्या छोड़ दिया जाये?
कुछ नया मिलना और कुछ छूट जाना हमेशा साथ साथ चलता है। कुछ छूट जाने का गम करना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना की नये की उमंग मे आगे बढ़ना। यह सोच उज्वल है। मगर शायद कुछ ऐसा भी है जिसे जीवन मे रिले करने की भूख रहती है। रिले करना विभिन्नताओ के अहसास में रहने के समान है। रिले ट्रांसफर है सोच का, छवि का, और समय का। रिले करना किसी को चौंका लिये होता है, हैरान करने करने के लिये, चिड़ाने के लिये, लुभाने के लिये, अपनी ओर खींचने के लिये, डराने के लिये, पंगाने लेने के लिये और चैलेंज करने के लिये।
ये कुछ तो बहुत कम समय के लिये बन पाते हैं तो कुछ कम समय के लिये होते मगर बार बार सिर चड़ जाते है। जीवन मे किसी वक़्त ने कोई चेहरा जैसे तोहफे मे दे दिया हो। वो याद तो रखा जायेगा मगर किस तरह? उसे हम खुद से बुन ले तो क्या हो?
लख्मी
1 comment:
nice
http://surendra-bansal.blogspot.in/
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