हम सवालों के बारे मे क्या जानते हैं? सवाल क्या हैं और अपने साथ क्या लिये चलता है? क्या हम ये भी जानते हैं कि एक सवाल के कितने जवाब हो सकते हैं?
वैसे - हर सवाल अपने साथ मे कोई व किसी भी प्रकार का बंधा हुआ जवाब लिये नहीं चलता। वो तो अपने संदर्भ मे कई अनुभवों की अपेक्षा रखता है। सवाल एक न्यौता होता है अपने अन्दर कई अन्य तरह के जवाबों को रख पाने की और उनकी असीमता को खोज पाने की।
हर सवाल की अपनी एक गहराई होती है जिसमे अनुभवों की तारें जुड़ती रहती हैं और तारें क्या हैं? क्या किसी चीज़ का खोलना है?, फैलाना है?, पैमाने तलाशना है? आखिर मे क्या है?
जवाबों की असीमता हो देखने की कोशिश में ऐसा महसूस होता है कि कुछ भी नहीं है जो बंधा हुआ है, मजबूत है, ठोस है, पैक है या फिर अकड़दार है। सवालों से पनपी ये जवाबों की दुनिया एक तरल अहसास के साथ मे बहती है और अपने को गढ़ने के नये - नये आयाम तलाशती है।
कभी - कभी तो लगता है कि जैसे कुछ तो है जो फिक्स है। हर जवाब का एक आकार है मगर फिर बात आती है की किसी भी जवाब के साथ मे चौंकाने का रिश्ता क्या बन पाता है?
जवाब और उसको बताने के बीच मे हम खेलने लगते हैं। जिसमे नये शब्द, नई सोच, नये अनुभव और नई समझ की असीमता समाई होती है।
अगर हम एक सवाल को और सोचे की, सवालो के साथ मे जवाबों का क्या रिश्ता होता है? खाली पूछताछ या निवारण का, शायद नहीं।
कहानी कभी जवाबों मे नहीं घूमती मगर कहानी का आधार और आकार जवाबों मे तलाशा जाता है। तो हम किसी बंधे जवाब पर कहानी के कितने अन्दर जा पाते हैं? मेरा खुद का परिवेश ही मेरे जवाबों मे घूमने का अवसर देता है। जिसमे सवालों की भूमिका मुझे खोलने और फैलने के न्यौते देती है। अक्सर हम अपने किसी बंधे पैमाने को रखे हुए जवाब मानते हैं। और उसपर भी कई शब्द और बातें हम पर होती है उसे कह पाने की मगर वो मांग क्या हो जो वो भी निकल कर आये?
मान लेते हैं - सवाल एक तस्वीर की भांति हैं और जवाब एक शिर्षक है। जिसको हम उस तस्वीर पर रखकर, कभी उससे दूर होकर, कभी उसे देखकर, कभी उसे सुनकर , कभी उसे समझकर, कभी उसे महसूस करके या कभी उसे किसी याद मे जाकर देख सकते हैं।
सवालों पर बहस का केन्द्र भी तो कुछ होता है। वो समझ भी हो सकती है और परिवेश भी। जो विभिन्न - विभिन्न अनुभव से होकर आता है। जिसमे सही या गलत का कोई मापदण्ड नहीं होता।
सवालों की दुनिया से निकलकर जब जवाबों की चौखट पर जाते हैं तो क्या मिलता है? ये सवाल हमें नई दरवाज़े खोलने के समान उभरता दिखता है।
लख्मी
1 comment:
वाजिब तर्क......
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