Sunday, April 25, 2010

100 रू जूर्माना देना पडेगा ।



हम बीयरबार में बैठे थे। गर्मी से राहत पाने के लिये बीयर एक मात्र झुगाड़ था। न्यू गाजियाबाद में देशी बीयरबार है। जहाँ पर ब्राण्ड तो विदेशी है मगर उस अड्डे का रहन-सहन बिलकुल दैहाती है। न्यू गाजियाबाद दिल्ली की सिमाओ से सटा है। इसलिये दिल्ली शहर के पहनावों और अदाओं का यहाँ अभी आग़ाज हो रहा है।

शहर आबादी जैसे कट के यहाँ आ गई हो। वहाँ के माहौल की गुणवत्ता ये थी गाँव जैसा मज़ा वहा बैठने से आ रहा था। पेड़ों के शरारती हवा अन्दर की गर्मी को मात दे रही थी। पसीना पारे की तरह उतरा रहा था। छत में गाडर लगे मरे-मराये पंखे की हालत किसी चूसे हुये आम जैसी हो रही थी। बीयरबार मे दिवारों पर विदेशी शराब और ब्राण्डों का विज्ञापन बडे-बडे पोस्टर के रूप में छपा था। जिसको देखकर जगह में उत्तेजना पैदा होती थी। बाहर से हल्की रोशनी नाइंटीन डिग्री का कोण बना रही थी।


प्लास्टिक के ग्लासों मे बुलबुले छोड़ती ठन्डी बीयर पसीने को उडन छूं कर रही थी। बड़े साधारण कुर्सी-टेबल पर हम कोहनियों को टेककर बाहर की गर्मी को चैन की सासों से दूर कर रहे थे। वक़्त शाम का ही था अभी बार में लोगों का आना शुरू हो रहा था। कांउटर से बीयर लेकर लोग हॉल के अन्दर आकर चौगड़ी मारकर बैठ जाते।

हमारे पास बीयर पीने के अलावा और कुछ नहीं था। गले की तराई जो करनी थी। सौ खाली बीयर ही मजा दे रही थी पर कुछ देर तक उसके बाद तो लगा की खाने को कम से कम नमकिन ही मिल जाये। पसीना अभी सूखा नहीं था। पंखा तो मानो हम पर एहसान कर रहा हो "जनाब अपनी रफ्तार तो तेज करो।" मेरे साथी ने गौर फरमाया।

पास की टेबल पर चार आदमी और बैठे थे। उसकी नाफरमानी बता रही थी की वो टल्ली हो चुके है। तभी तो अपने ही साथी का कॉलर पकड़ के महाशय मर्दानगी दिखा रहे थे। उनके बीच गाली-गलोच भी हो रहा था। इतने में जिसने अपने सामने वाले का कॉलर पकड़ रख था। उसके मोबाइल फोन की घण्टी बजी, उसने फोरन मोबाईल फोन उठाया और एक दम सीधा हो गया।

"जी मैम ओके मैम, येस मैम" कुर्सी छोड़कर उठा। लगा किसी के आगे गिड़-गिड़ा रहा हैं। हमारे आँखो करंट लगा कमाल है अभी उजाड़-गंवार की तरह ये एक-दूसरे से पेशा रहे थे। अब अचानक क्या हुआ? बाहर बहुत गर्मी है। इस लिये इस माहौल की ठंडक ने शरीर में दबा के शूरूर भर दिया था।

हर किसी की जेब को बचाने लायक बीयर ही तो पीनी होती है। उसका शूरूर ही तो मजा देता है फिर चाह वो रंगीनियत और चमक-धमक भरा माहौल हो या फिर सादा वातावर्ण। दो घूंट उतरते ही कोई पॉवर सी सीर चढ जाती है।

गर्म फुंकारों को गले से छोड़ते हुये हम उस जगह को अपना नया अनुभव कह कर बातचीत करने लगे।
"सब कुशल मंगल है।" इस जूमले ने मोके रौनक को बड़ा दिया।

आनंद ने बीयर के घूंट मार कर आह! भरी आवाज निकाली और करते भी क्या घूंट मारने के बाद जब डकार आती तो बाहर छोडने के लिये दाँय-बाँय देखना पड़ रहा था। हमारे चेहरों पर राहत से पहले किसी धूप के मारे इंसान को जैसे पेड़ की छांया मिल जाती है। वैसी हो गई थी।
हम कम बोल रहे थे। बोलने से स्वाद कम महसूस हो रहा था। इस लिये इक-दूजे को तसल्ली भरी निगांहो से देख रहे थे। उनके बार-बार मुस्कुराने के अंदाज से माहौल जैसे किसी नई उर्जा को ला रहा था।

उनकी हंसती हुंई आँखे धीरे-धीरे हम तीनों के भीतर तक जा रही थी। उन्हे रोकना नामूमकिन सा था। आनंद पैरो को हिलाकर कुछ कहने का साहस जुटा रहा था। वो और राजू निगाहों से बातें कर रहे थे। हमारे हाथ बीयर की बोतलों को इधर-उधर घसीट रहे थे। ये क्रिया हमारे मन की व्यथा को प्रकट करने के लिये काफी थी। टेबल पर ग्लास और टेबल के नीचे पैरों का एक-दूजे से भिड़ाना। क्या चल रहा था। काम की थकावट से चूर शरीर बीयर के दो ठन्डे घूट को झिल समझ कर उसमे गोता मार गया। अब कान कुछ सुन नहीं पा रहे थे। आँखों को सब अलग दिख रहा था। मगर होश में है ये जताना भी जरूरी था वरना अगली बार यहाँ का चक्कर भूल जाओ। मन में कई अजीब सी बातें बिरयानी की तरह पक रही थी।

पैग पर पैग और कुछ नई-पुरानी बातें जो हर कोई करता है शायद इस चीज के साथ इसी लिये हर कोई बैठता है।

राकेश

4 comments:

आलोक साहिल said...

बहुत खूब...

Udan Tashtari said...

जरा पोस्ट करने के पहले एक बार पढ़ लें -वर्तनी में बहुत ज्यादा त्रुटियाँ हैं. पढ़ने में ही बाधा होती है.

निवेदन मात्र है, कृपया अन्यथा न लें.

Anonymous said...

बहुत खूब!

उम्मीद है अगली बार स्पेलिंग पर कुछ ध्यान देते हुए रोचकता बनाए रखेंगे

कविता रावत said...

काश यह जुर्माना सच में वसूला जाता और इसी तरह अन्य जगह पर भी जुर्माने का प्रावधान होता....
सामाजिक सरोकार के प्रस्तुति के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ ..