आज वे वक़्त है जब अपने बारे में सोचा ही नहीं जाता, पता ही नहीं चलता हम किस दौड़ में शामिल हो गए हैं। बस, भागे जा रहे हैं और यह भी पता नहीं है कि ये दौड़ भी कब रूकने वाली है? एक ये वक़्त है और एक वो वक़्त था जब हाथों मे हमेशा एक बैचेनी सी रहती थी। बस, कितना और हल्का और नाज़ुक बनाया जा सकता है अपने हाथों को? वही ख़ुमार चड़ा रहता था। जहां देखो वहीं पर इनकी बैचेनी बाहर निकल पड़ती थी। कभी गली में रखी टंकी पर हाथ चलने लगते थे तो कभी घर के पतीलों पर। इतना होने के बाद भी वह बात नहीं आ पाती थी जिससे दिल को सुकून पंहुचे और यह सुकून तभी पहुँचता था जब पहली ही ताल पर नचेता अपने पाँव उठा लेता था।
सन 1980 मे जब किदवई नगर में रहते थे। वहां सिखाने वाला कोई नहीं था। उस समय हमारे यहां से कोई भी संगीतो में जाता तो मैं भी उन्ही के साथ में चल दिया करता था। वहां के माहौल को सजाने और संगीत बजाने वालो की मदद करने। उनके आने से पहले उनके लिए जगह बनाना, उनके म्यूज़िकल स्टूमेंटो को सही और साफ़ करके उनकी जगह पर रखना, पानी का गिलास और रूमाल सब रखकर मैं उनके साथ मे बैठ जाता था। उस समय मैं जिनके साथ था वे बड़ी-बड़ी पार्टियों व उत्सवों मे जाया करते थे। मुझे जो वहां अच्छा लगता था वे था उनका कोई लम्बी और सुरूली ताल को बजाना जो वे अक्सर शूरु मे ही बजाया करते थे। जब तक कोई भी गाने वाला कलाकार नहीं हुआ करता था उनके सामने और मैं उनके उस समय में बहुत खो जाया करता था समझों। बस, उनके ताल के साथ में अपने हाथों को ताल से ताल मिलाकर बजाया करता था। कभी उलटा तो कभी सीधा। जब उनकी ताल ज़्यादा तेज हो जाती तो मेरे हाथो की वे ताल भी। जब वे बजाने वाले मेरी तरफ़ देखकर अपनी ताल बजाते तो मुझे बहुत अच्छा लगता। ऐसा लगता था की जैसे मैं जो हाथों से बजा रहा हूं वे उसकी ताल से ताल से मिला रहे हैं। वे भी वही कर रहे हैं जो मैं उनके साथ मे करता रहा हूं।
ये सिलसिला यहीं पर रूकता नहीं था। घर आने के बाद मे जब मैं अपने हाथों को देखता तो यही दिमाग में रहता की कैसे इनको हल्का और नाज़ुक बनाया जा सकता है। इसके लिए मैंने कई टोटके भी आज़माये थे। आसपास से या वहां उन महफ़िलों में किसी को उंगली चटकाते हुए देखता तो दिमाग मे वही रहता था कि उंगली चटकाने से हाथ हल्के होते हैं। मगर, मैं सुबह चार बजे अपनी उंगली चटकाया करता था। घर में सभी कहते थे कि सुबह चार बजे किया काम सफ़ल रहता है। उसके साथ-साथ मैं गर्म पानी की भाप से उंगलियों पर सेक भी लगया करता था। ये काम मैंने लगभग 2 साल तक किया।
लोग इन्हें चाचा कहकर पुकारते व जानते हैं। ये अपने 26 साल के अनुभव में यहां दक्षिण पुरी के जगत चाचा बन गए हैं। दक्षिण पुरी मे ये नाम या रिश्ता काफी समय मे बनता है। कभी तो किसी रिश्ते के तहत होता है तो कभी उस शख्स के मिलनसार होने से। चाहें वे "चाचा, मामा, मामी, भाभी, दादा ये सभी जगत के लिए हो जाते हैं। यहां पर इनका नाम जानना इतना जरूरी नहीं रहता। इनसे बात करने वाले इन्हें चाचा ही कहते हैं। चाहे कोई बड़ा हो या छोटा और ये भी उनका उतने ही प्यार से जवाब देते हैं। घण्टों के हिसाब से लोग इनके पास बैठे रहते हैं। कभी तो खाली बातें होती तो कभी ना जाने कितने पुराने गीतों को छेड़ दिया जाता है। उनकी हथेली से उनकी उंगलियों का रिश्ता काफ़ी महत्वपुर्ण है। जैसे किसी ताल के साथ ईमानदारी बरतने के समान रहता है। उनके हाथ आज ढोलक पर ऐसे पड़ते हैं जैसे कोई किसी लचकिली चीज़ को किसी पर खींचकर मारता है। कौन सी उंगली कब पटकनी है उसका भी एक टाइमिंग होता है।
वे जमीन पर बैठे हैं अपना एक पांव सीधा और दूसरे पांव को उन्होंने मोड़ा हुआ है जिसके नीचे ढोलक फसाई हुई है। कभी मुहं से "ना-दीन, दीनना" करते हैं तो कभी हाथों से। इस बीच वे ढोलक सिर्फ़ आवाज करती है और उनके मुंह से निलकने वाली ताल से कभी तो मिलती तो कभी ज़ुगाली करने मे लग जाती है। एक हाथ की उंगली पड़ी हैं तो दूसरे हाथ की हथेली, फिर हथेली पहले आती और उंगलियां बाद में, फिर दोनो साथ में, फिर उंगली ही उंगली पड़ती जाती। जिससे एक लम्बी ताल छिड जाती। उसे रोका या मोड़ा हथेली से जाता। फिर तो पूरा हाथ ही ढोलक की दोनों तरफ़ में पड़ता और ढोलक खिल उठती। ये सब खेल मुंह से निकलती आवाज ही करवाती। ढोलक जो सुर निकालती वे सभी उनके मुंह से निकल रहे होते। ढोलक पर हाथ पड़ता और एक खींच निकलती फिर तो संगीत बज उठता। जो भी सुनता उसके लिए वहां से जाना कठिन हो जाता। जो दूर से सुनता उसका पलटना तय था। बहुत ही तरल(सोफ़्ट) आवाज का अहसास होता। बजाने वाले वे उस संगीत के अन्दर ऐसे डूब जाते हैं कि कौन उनके सामने बैठा है उसका भी उनको ध्यान रखना ना के बराबर है। "न-दीन, दीनना, धूम्म्म-धूम्मम" एक लय बाहर निकल आती। उनका चेहरा उसी लय और ताल के साथ मे मटकता रहता है। कभी गर्दन नीचे जाती तो कभी दायें तो कभी बायें, कभी ऑखे बन्द हो जाती और दबादब हाथ थाप पर पड़ते ही जाते। उनके घुटनों के नीचे दबी वे ढोलक कहीं खिसक नहीं रही है। वे वहीं जमी है। कभी-कभार उनका सिर उस ढोलक पर पूरा झुक जाता है और वे बिलकुल लीन हो जाते हैं। बस, उनकी उंगलियां और उनकी हथेली ही बहस मे लगी हैं। वह बहस जब आवाज में तब्दील होकर बाहर निकलती है तो वतावरण में मानों कितने खुशियों के फूल बिखरने लगते हैं। हर सुनने वाले कान के लिए है ये पल, ये वे पल हैं जो अकेले नहीं हैं। अब उनका चेहरा सूखे रेत पर पड़ती धूप की तरह चमक रहा है। वे जब भी एक लय मे खो जाते हैं तो उनके चेहरे पर आते भाव को महसूस करना कठिन होता है।
पतला शरीर और लम्बें बाल जो आगे से हल्के हो गए हैं। उनके हाथ लम्बे हैं। ऐसा लगता है वे हर वक़्त हरकत में रहते हैं। उनका चलना और बैठना किसी हरकत कि ही फ़िराक में रहता है। जब उनपर नज़र जाती है तो उनका रूप किसी संगीतकार की ही छवि देता है।
वे कभी भी अपनी ढोलक को चुप कराकर अपने वक़्त को दोहराते रहे हैं। जिन शब्दों के सामने बैठना अपने मुंह पर भी चुप्पी लेकर बैठने के जैसा ही होता। वे जब अपनी ताल में खो जाते रहे हैं तो दिल में एक बैचेनी रही है कि क्या है ऐसा जो इनसे इनके अन्दर को देखा जा सकता है? बैठने वाला खाली सुन सकता है। सुनकर चला जाता है। बस, उनकी ऑखों में देखकर, मुस्कुराकर उसके आवाला क्या? वे हमेशा अपनी ढोलक को चुप कराकर जब भी सुनने वाले की ऑखों में देखते तो अपने मे वापस देखना बहुत मुश्किल जान पड़ता। क्या निकाले अपने मे से? क्या कहें? मन मे तो आता की और सुना जाये उनकी तालों को, मगर वे सब किसी कलाकर के वे रूप को देखने के सामन होता जो उसकी सीखी विद्या है, वे कैसे देखे जब वे अपने मे खो रहे होते हैं? बस, मुस्कुराते हुए खड़े हो जाते हैं सब। ऐसे ही जैसे किसी दावत में से खाकर उठा जाता है।
ये वक़्त आ भी गया है। उन्होंने अपनी ढोलक को खमोश करा दिया है।
मैं घर में होकर भी घर का नहीं था। अपनी ज़िन्दगी के 6 साल मैंने एक ऐसी जगह को दिए जहां पर रहना इतना मुश्किल नहीं था जितना की वहां से वापस अपने घर आना। थोड़े से ही वक़्त में नज़रियों का बदलना कितनी जल्दी मालुम हो जाता है और कितना हद तक बदल गया था नज़रिया सबका, जिसमे आदमी फिर आदमी नहीं रहता वो कुछ और ही हो जाता है। अगर जहां रहे हो वहां की संगत का एक हिस्सा भी अपने अन्दर ले आओं तो समझो फिर के जो बचा-कुचा था वे भी नहीं रहा। उस जगह पर बिताए 6 सालों को भुलाने में मुझे 6 साल ही और लगे। मैं तो शायद भुलाता भी नहीं मगर कुछ चीजें यहां रहकर भुलानी जरूरी होती हैं।
सन 1984 से 1990 तक मैं किन्नरों के घर में ढोलक बजाने का काम करता था। क्योंकि शायद कहीं और मैं नहीं सीख सकता था। कहां बजाता?, कौन सिखाता मुझे? या अगर सीख भी जाता तो कहां बजाता? मुझे तो कोई उत्सवों में ले जाने वाला नहीं था और जागरणों मे बजाने के लिए किसी ग्रुप की जरूरत पड़ती। वो मैं कहां से लाता? एक यही जगह थी जहां पर मैं रोज़ बजा सकता था। रोज़ाना नये-पुराने गानो पर। उसके साथ-साथ किसी को नचाने के लिए भी। जहां देखने, नाचने और बजाने वाले दोनों हुआ करते थे। सुबह जाना और शाम में वापस आना। मगर मैं अपने इन 6 सालो के अनुभव मे अपने मोहल्ले व गली में कभी टोली के साथ नहीं आया और ना ही मैं यहां कभी बजाता था। लेकिन ये छुपा भी नहीं था किसी से। लोग मुझे देखकर ताली बजाकर नमस्ते व राम राम करते थे। मुझे नहीं मालुम था कि ये ऐसे क्यों कर रहे हैं? मुझे सब मालुम था। बस, मेरे अन्दर एक यही तमन्ना रही की मेरे हाथों मे वो लचक आ जाये जिससे ढोलक नाचे मेरे कहने पर। जिसको लाने के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार रहता था। कहीं भी जा सकता था मैं। मेरे हाथों मे अब भी एक मर्दाना ताकत थी जिससे खाली ढोल ही बज सकते थे ढोलक नहीं जिससे वे आवाज निकलती थी जिसे सुनना बहुत मदहोस करता था। जानते हो मैंने खाली किन्नरो की टोली मे ढोलक ही नहीं बजाई उसके साथ-साथ मैं अपने घर मे पूरे परिवार के खाने का आटा गूंदता था। सुबह का भी और शाम का भी। 5 किलो आटा गूंदा करता था मैं। 3 साल तक मैनें अपने घर का आटा गूंदा है। तभी तो ये निखार ला पाया हूं मै। आज देखलो कैसे पड़ते हैं हाथ ढोलक पर। भगवान मेरे वो 6 साल खराब नहीं गए। मै शुक्रगुज़ार हूं ऊपर वाले का।
ढोलक एक फिर से बोलने लगी। वतावरण एक बार फिर से नाचने लगा। वे एक बार फिर से उसमे खोने के लिए तैयार हो गए। कौन कहता है की वे अपने वे 6 साल भूल गए? उन्हे तो सब कुछ याद है। वे माहौल भी, वहां सीखी कला भी, वे घर भी, उनका साथ भी, वे जगहे भी जहां पर उन्होनें ढोलक बजाई हैं। सब कुछ तो याद है उन्हें। फिर क्या भूले हैं वे?
लख्मी कोहली
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