सिलसिला आजतक ख़त्म नहीं हुआ है । वह यौं का त्यौं चले जा रहा है । वे जब भी अपने घर कि कभी सफ़ाई करते तो उनके दिमाग मे कभी वह कौना नहीं आता । जैसे उन्होनें उस कौने में सदियों को बसाया हुआ है वैसे ही उस कौने ने उनके हर बचत के सिलसिले को । 1973 से लेकर 2008 तक उनके घर के उस कोने में कई सरकारी दफ़्तरों की मोहर पड़ी है ।
सन 1960 से घूम रहे जनाब को दिल्ली जैसे बड़े शहर मे सिर छुपाना के मौके तो बहुत से मिले मगर कहीं ऐसा ठिकाना नहीं मिला जिसमें वे बड़े गर्व से कह सकें कि ये मेरा पता है । बस, शहर के कई कौनों मे अपने नाम की तख़्ती लगाने का कोई अवसर प्रदान नहीं हुआ । ऐसा नहीं था कि सन 1960 से कई सालों तक वे दर-दर भटकते रहे । कौन है जो इतने टाइम मे अपने लिए कुछ ठिकाने ना बना पाया हो? शायद कोई नहीं । दिल्ली शहर में इतनी तो जगह है कि दर-दर भटकने जैसा कोई भी जवाब नहीं है । ऐसे ही उन्होनें भी अपना वज़ूद रखने के लिए एक कोना चुन लिया । दिल्ली की ये जगह ओखला मण्डी के नाम से मसहूर होने वाली थी । मगर, 1960 में ये जगह एक ओखला बस्ती थी जिसका कोई निर्धारित पता या नाम नहीं था । शायद हो भी पर किसी को पूरा नहीं मालुम था । ओखला बस्ती की शुरूवात सन 1955 मे हो चुकी थी । मगर उसके भराव का सिलसिला 1960 से आरम्भ हुआ। लोगों का आना 1960, 1961, 1965, 1970 तक खूब दबाकर हुआ । यहां पर ज़्यादातर लोग यूपी, हरियाणा और बड़े शहरों के थे । ये जनाब भी 1960 में वहां के रहने वाले बने ।
जनाब के मन में हमेशा दिल्ली में पहले कदम से ही उसको दर्ज करने कि इच्छा जागी रहती थी । लेकिन कोई भी साधन नहीं थे और न ही कोई भरपुर तरीके थे कि जो भी बीत रहा है उसे दर्ज कैसे किया जाये । बस, ये अपनी ऑखों से ही सब का दर्शन करते चलते और जो याद रह जाता उसे शाम मे कहीं सुना दिया जाता । यह हाथ कि हाथ देखने और सुनने का परिणाम या यह कह सकते हैं कि हल था जो उन्होनें खुद निकाला था ।
सन 1973 में जीवन ने करवट बदली और इन्हें वहां से टूटकर यहां दक्षिण पुरी मे आना पड़ा । ये बदलाव उस समय मे एक बड़े स्थर पर था । दिल्ली के नक्शे बदले जा रहे थे । दिल्ली में कई नई योजनाए बनाई जा रही थी । बस्तियों को ख़त्म किया जा रहा था । लोगों को अपना घर बनाने के लिए जगह दी जा रही थी । इस नक्शे, रूट, दिनचर्या बदलने के साथ-साथ इन जनाब ने भी अपने सभी रूट बदल लिए थे । इन बदलते रूटों मे कई शुरूवाती दिन तो कहीं दिखाई भी दिये मगर कुछ ही समय के बाद मे वह सभी दिन कहीं खोते गये । वैसे ही इनमें अपना दिन खोजते लोग भी ।
इन जनाब के लिए ये बदलाव किसी नई जगह पर जाने के ही जैसा था । ये जगह भी कहीं नोट होनी चाहिये थी । नोट होकर कहीं बताई या दिखाई जानी थी । मगर, ये कैसे हो पाता? ये चाहते थे कि ये कहीं भी जाये या किसी नई जगह पर ये पहला कदम रखें या आखिरी बस, वह कहीं नोट होना चाहिये । इसलिए नहीं कि ये कुछ लिखते या तस्वीरें खींचते । इनका हमेशा ये कहना रहता कि वह जगह हमें कहीं दर्ज करती है? जैसे वहां कि चीजों से मै कैसे अपने को ये कहलवा सकता हूं कि मैं यहां पर दर्ज हुआ हूं । सब कुछ अभी तक तो बस, देखने और सुनाने के जैसा ही मात्र होता था । कोई ऐसी मजबूत चीज नहीं थी जिसे हमेशा के लिए जमाकर लिया जाता । जिसमें बरसों बाद कभी उस जगह कि महक आती । कोई उसके रूप को देखकर ही कहता कि यहां पर इतना वक़्त हो गया है तुम्हें? ये अहसास कैसे कराया जा सकता था? ये सभी गायब ही था ।
सन 1973, 1975, 1976 से लेकर सन 1980 तक ये सिलसिला बस, बटंता गया । अभी तक उनका घर भी तैयार हो गया था । मगर कुछ भी ऐसा नहीं था जिसे वह रख सकते। ये ज़्यादा दिन तक नहीं रहा। उनकी जगह सरकारी दस्तावेज़ों मे आ गई थी और बिजली भी लग चुकी थी । सरकार वहां पर कई चक्कर लगाने किसी भी दिन आने लगी थी । जब उनका नाम किसी किताब, रजिस्टर या बहिखातों मे चढ़ता तो उन्हे लगता कि वे अन्जान नहीं है । कहीं गायब नहीं है । कहीं कोई कौना तो है जहां उनको देखा जा सकता है । बस, अब उनके दिन दर्ज होने लगे। अब उनके मन में एक यही कशमस थी कि ये तो कोई और है जो उन्हे अपने मे दर्ज कर रहा है मगर मैं क्या दर्ज कर रहा हूं? क्या है मेरे पास जो मैंने किया है? शहर में आना, यहां बसना, काम करना और उससे भी ज्यादा था कि इन सब को मैं अपने मे कैसे बता पाऊगां? शहर मे आया तो उन्होनें कार्ड बना दिये, यहां इस जगह में आया तो इसमे सर्वे मे डाल दिया, काम मे गया तो कम्पनी ने दिखा दिया मगर मैं जो कहीं घूमने गया, कोई जगह खोजने गया वे सब कहां पर जमा होगा । इस बात पर वे कहते है कि क्या करता कोई तरीका नहीं था और न ही कोई साधन था।
चार-चार किलो के बन्डल, जिन्हें कई कलावो से और डोरियों से बन्धा हुआ है । एक नहीं थे लगभग पांच या छ: थे । पीले हुए रखे इन बन्डलो में बिजली के बिल थे । जिन्हें जन्मपत्रियों कि तरह अटेची में रखा हुआ है । हर साल के छ:-छ: बिल थे । सन 1981, 1982, 1983, 1985 से लेकर सन2008 तक । हर साल में उनके घर के बदलते दौर को देखा जा सकता है । 1981 मे आया उनका पहला बिल जो दो महिने का 50 रुपये था, सन 1985 का बिल 130 रुपये था और सन 2008 मे आया बिल 2000 रुपये का था । उन बिलो में खाली उनके घर का ही नहीं बल्की कई चीजों को देखा जा सकता था । वे अक्सर जब भी अपने बारे मे बतलाते तो बस, उन बिलो को खोलकर सामने डाल देते और बड़े प्यार से उनको खोलते जाते । ये दिखाने कि कोशिस करते कि देखो मैंने जो बदलाव देखा है वह ये है । जो कहीं बाहर का नहीं है ये वह बदलाव है जिसे इस घर ने जिया है और हर आने वाला महिना तय किया है । उनके उन बिलो में बदलते यूनिट का खेल था, बिजली के इस्तमाल का माप था, टेक्स का दण्ड था । यह सब तो वह था जो किसी सरकारी नियमों के तहत हो रहा था । मगर जनाब तो कुछ ही दर्ज कर रहे थे । उनके हर बिलों पर उनके किसी ना किसी पल को दर्ज करने कि कोशिस थी । यानि के वे जब भी कोई बिल भरते तो उस बिल पर ये जरूर लिखते कि ये बिल कैसे भरा गया है?, पैसा कितना फालतु या जोड़ा गया है?, किसी-किसी पर तो यह तक लिखा होता कि इस बिल को उनके अलावा कोई और भरने गया था जिसको इतना किराया देना पड़ा था ।
पहले तो दिमाग मे आया कि कोई क्यों अपने बिलो को जमा करके रखता है? या अगर अपने बारे मे बताता है तो बिलो को दिखाने कि क्या जरूरत है? लेकिन ये खेल समझना अब मुश्किल नहीं था । जनाब बिजली के इन बिलों को अपना दिल्ली शहर मे आना दर्ज करवाते है । कहते है "यहां आने के बाद मे दस्तावेज़ तो काफी बने मगर वे सब सम्भाल कर रखने के लिए ही थे । वे मेरे लिए नहीं थे । वे सब दिखाने के लिए थे । जिन्हे खुद से ज्यादा सम्भालकर रखना होता था । मगर इनके अलावा भी कुछ ऐसा था यहां जो किसी गिनती मे नहीं था । जो मेरे लिए था या तो रखलो या इसे फैंक दो । वह था बिजली का ये बिल । ये मेरे पास हर दो महिने मे आता । जिसकी जरूरत खाली एक महिने तक रहती बाद मे इसकी कोई जरूरत नहीं होती । मगर इसकी इस जरूरत में ही मेरे लिए बहुत कुछ जुटाना होता । इसलिए मैंने इसे रखा ।"
जनाब के बोल मे वह जगह और उसमे रखे ये सभी बिजली के बिल जन्मपत्रियों कि ही तरह से बयां होते । कितनी ही सफ़ाई हो जाती घर की, कमरे की मगर उस कोने की सफ़ाई करना उसके वज़न को ख़त्म करने के समान होता । अगर वहां पर धूल है तो भरने दो ।
लख्मी कोहली
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