Saturday, September 20, 2008

वो दुनिया बुन रहे हैं

दरवाजे पर टिके रहने के कारण उनकी आँखें खुली रहती थी।

उन्होंने कमरे के अन्दर हमारे घुसते ही आव देखा ना ताव सीधी एक लम्बी सी आवाज मे कहा, "आईये बाबूजी।"
वे हमारे अन्दर आते-आते इसी लाइन को दोहराते रहे। आज फ़िर से उन्होंने हमारी परीक्षा ली जिसमे आज फ़िर से हम कुछ कह नहीं पाये। वे हमे अपनी दुनिया मे खींचे ले गये। उस हल्के से इशारो से यादों के हादसे मे। हर तरह के भाव को उन्होंने अपने उस वक़्त की छवि में बसाया हुआ था जिसका बाहर आना खाली हमारे लिए सुनना मात्र नहीं था। वे ज़िन्दगी के उन ख़ास पलों और भावों से हमे अवगत करा रहे थे जिन्हे वे सुनाकर अपनी यादों मे खो रहे थे। यह हमारे ज़िन्दगी के लिए एक नया मौका था।

उन्होंने अपना हाथ अपने पीछे रखी टेबल के नीचे घुसाया जहां पीले रंग की एक पन्नी रखी थी। उसे बाहर खींचा और पलकों को झुका कर पन्नी हमारी ओर बढ़ा दी। मुस्कुराते हुए हल्के स्वर में कहा, “इसे उठाना ज़रा बाबूजी।"

मन ही मन लगा कि ये क्या है? इसमें क्या होगा? उनके चेहरे पर फैली खुशी को देखकर मेरा हाथ एक दम से उस पन्नी की तरफ़ बढ़ गया। लगा जैसे एक बार फिर से हमारी परीक्षा शुरू हो चुकी है। देखना था कि इसमें है क्या और ये क्यों हमे इसे उठाने को कह रहे है? जरूर कोई ख़ास अहसास था जो ये हमें दिलाना चाहते थे। पिछले काफ़ी दिनों से हम उनके पास जा रहे थे। उन्होंने कई बार हमसे वादा किया था कि वे हमें अपनी कुछ ख़ास चीजों को दिखायेगें। शायद, खाली किसी की सुनकर और अपनी सुनाकर ही ज़िन्दगी को दोहराया नहीं जाता उसकी छुअन से भी उसका अहसास कराया जाता है। हिचकिचाते हुए हमने उस पन्नी को उठाया। ज़्यादा भारी नहीं थी पर चार किलो से कम भी नहीं थी।

उन्होंने हमारे आगे पन्नी को नीचे रखते ही पुछा, “कितना भारी है?”
उनकी तरफ़ देखते हुए मैंने कहा, “लगभग चार-पाँच किलो का तो वज़न होगा।”
हंसते हुए वे बोले, “जानते हैं इसमें क्या है?”

उनकी जब भी यह हंसी निकलती हमे थोड़ी सी खुशी होती और दिल मे थोड़ी घबराहट भी रहती। उनकी हंसी हमेशा हमारे सामने सवाल खड़े करती। उनकी उस पन्नी में जो कुछ था। वह हमारे लिए एक जादू के समान था। हम उसे देखकर चौंकने को बेकरार जरूर थे। बस, हम उस पन्नी के खुलने से पहले उथल-पुथल की दुनिया में थे। यही मथ्था-खोरी करने में लगे थे कि लोग क्या-क्या जमा करते रहते हैं? कुछ जेवर-गहने होंगे, बट्टे भी हो सकते हैं, क्या पता पैन हो, मैडल भी हो सकते हैं और ना जानें कितनी तरह की तस्वीरें हमने अपने मन मे बना ली थी। हलांकि उन तस्वीरों का उनके ऊपर कोई असर नहीं था। वे उस पन्नी की गांठ खोलने में व्यस्त थे और उनके चेहरे से हंसी नहीं छूट रही थी। वे हमें देखकर लगातार मुस्कुरा रहे थे और हम उन्हें लगातार देखते रहे। लेकिन उनकी पूछी बातों पर हम कुछ भी कहने मे असमर्थ थे। जवाब पाने की चाह मे वे हमारी तरफ़ देखकर हंसते रहे। शायद ये अपने सामने वाले को चकित करने के लिये एक दुनिया बुन रहे हैं।

बड़े प्यार से उन्होंने कहा, “इसमें सिक्के हैं।"

सिक्के यानी पैसे। ये सिर्फ़ सिक्के ही नहीं थे। 5 पैसे, 10 पैसे, 20 पैसे, 1 रुपया और 5 रुपये, ये कहते हुए उन्होंने सारे सिक्के हमारे आगे बिछे बिछौने पर डाल दिये। 5 पैसे, 10 पैसे और 20 पैसे के सिक्के तो उन्होंने मुट्ठी मे ही भरकर हमारे सामने डाले। मगर 1 रुपये के सिक्कों को उन्होंने अख़बार मे लपेटा हुआ था। 20-20 सिक्को का एक बंडल बनाकर। उन्होंने पहले तो उन 1 के सिक्कों को यूहीं हमारे सामने रख दिया। पहली बार देखने मे तो लगा ही नहीं कि वे एक रुपये के सिक्के है। अख़बार मे लपेटे हुए वे किसी बंदूक कि गोली या किसी डिब्बी से कम नहीं लग रहे थे। वे बड़े आराम से उस लिपटे हुए अख़बार को खोल रहे थे। बहुत ही प्यार से उनके हाथ हरकत कर रहे थे। धीरे-धीरे उन्होंने उन सभी सिक्कों को अख़बार से खोलकर बाहर वैसे ही रख दिया जैसे वह अख़बार मे तह करके रखे हुए थे। इसी तरह उन्होंने धीरे-धीरे करके पूरे बिछौने पर सिक्के ही सिक्के डाल दिये। सिक्कों को बिछौने पर रखकर वे पन्नी को अपने घुटनों के नीचे दबाकर चुपचाप बैठ गये और हमारे चेहरे को देखने लगे। कम से कम दो ही मिनट तक वे चुपचाप बैठे रहे। उस दो मिनट मे हम उन सिक्कों को अपने हाथों में ले-लेकर देख रहे थे। कभी दोनों मुट्ठियों मे भर कर उठा लेते तो कभी उन्हें उलट-पलट कर देखते। कुछ सोचना तो फ़िलहाल थम ही गया था। उनके कमरे में जलती लाइट फ़र्श पर पड़े उन सिक्कों पर पड़ रही थी। हम उन सिक्कों को उठाकर ये देखने की कोशिश करते की इनमें सबसे बाद का सिक्का कौन सा है? इस समय बस, इतना था कि हमारे सामने सिक्के ही सिक्के थे और हम उनमे खोये हुए थे ।

जब हमने उन सिक्कों को उठाया था तब उसका वज़न 4 से 5 किलो था मगर जैसे इन दो ही मिनट में उनका वज़न बढ़ गया था। वे भी शायद हमारी जुबां से कुछ सुनना चाहते थे पर हमारी आँखों, चेहरों और हरकतों को देखकर सब-कुछ समझ चुके थे। कुछ देर की चुप्पी के बाद वे बोले, “ये एक-एक सिक्का मेरा एक-एक दिन है यूं समझ लीजिये आप।"

उनकी इस बात मे बहुत ठहराव था। कुछ और समय तक सिक्कों की अवाज़ हमारे दर्मियां रही। पैसा जिससे बच्चो को बहलाया जाता है और उसी पैसे को बचत के ज़रिये सम्भाल कर रखा जाता है। लेकिन हमारे आगे जो यह पड़ा था वह क्या था? ये किसी बचत के तहत नहीं था। लगता था जैसे ये पैसा नहीं है कुछ और ही है मगर, मालुम नहीं क्या? क्या ये उनका, पैसा था या कोई समय बिछा पड़ा था। जिन्होंने हमारे आगे वह पन्नी खोल कर रखी थी क्या यह वही शख्स थे जिन्होंने कभी इस पैसे से कोई कल की कल्पना नहीं की थी? कई तरह के सवाल दिमाग मे घूम रहे थे और नज़र सामने पड़े सिक्को पर थी हमारे आगे पड़े सिक्को की गिनती पांच हजार थी। वो हाथों मे इन सिक्को को पकड़र कर बैठे थे मगर अपनी किसी और ही दुनिया के बारे मे हमे सुना रहे थे। जिसकी गूंज मे उनके जन्म सन् 1952 का वर्णन था। वे हमेशा जब भी अपने बीते कल का जिक्र करते तो उसमें अपना वह समय बताते जब वह नौकरी पर पहली बार गए थे। तब वे भारत के प्रधान मंत्री के साथ मे काम करते थे। उस वक़्त बड़े-बडे नाम उनकी बातों मे छलक उठते। यूहीं कहानी सन् 1952 से अक्सर शुरू होकर धीरे-धीरे सन् 1998 तक आती और फिर उस तरफ़ चली जाती जहां से मागों की दुनिया शुरू होती है। जहां पर घर और परिवार के वे काम और रिश्ते होते है जो हमेशा कुछ न कुछ मांगते ही रहते हैं। चाहें बेटा, माँ, बहू, पोते, बीवी और भी कई रिश्ते। मगर इनके बीच में उनका खुद का होना क्या है? बेटों की हरकतें और मांग पूरी हो जाने के बाद में क्या? कोई उम्मीद रखना भी बे-मायने है। आज जो हमारे सामने बिछी थी वो क्या थी? क्या कह सकते थे हम उन शख्स को जिनका कहानियों से रिश्ता था।

आज उन दिनों का दोहराना उसी कहानी को टुकड़ों में भी कर देता। उनकी चुप्पी देखा जाये तो इस समय की ताकत और जान दोनों थीं, जो न बाहर जाने दे रही थी और न ही उस पल में रहने दे रही थी। "मैंने अपने टाइम में जीने लायक चीजें तो बहुत सी की हैं जैसे घूमना, खाना, पीना, सोना और काम करना पर अब आकर लगता है कि इंसान जिस चीज के पीछे सारी उम्र भागता-फिरता रहता है वह मिल जाने के बाद भी उसकी मागें कभी ख़त्म नहीं होती। अपनी तनख्वाह को हम जैसा चाहें खर्च कर सकते हैं, रख सकते हैं। एक का दो करना चाहें वो भी कर सकते है। लेकिन हमारा शरीर भी कुछ मांग करता है। उसे पूरी कैसे करें? हमने की है।"

गर्वीली आँखों से उन्होंने बोला, "मैंने अपनी आखिरी तनख्वाह रखी है। इस काम-धन्धे की दुनिया से मुक़्ति पाने के लिए। उफ़! हमारा शरीर बहुत तरह के कामों से निज़ात चाहता है। आज भी कभी देखता हूं अपनी आखिरी तनख्वाह को तो आँखें भर आती हैं। एकदम से अपना सब कुछ वापस दिमाग मे घूम जाता है। जाने कहां-कहां जाते थे हम। वो सब घूमना और काम पर जाना। तरह-तरह के शख्सों से मिलते थे। अब तो उन दिनों को याद करना जैसे एक आदत सी बन गई है। इन सिक्कों से दिल लगा रहता है कभी निकाल लेता हूँ कभी वापस रख देता हूँ लेकिन अभी तक कहीं खर्च नहीं किया है। मगर थोड़ा डर रहता है कि अगर ये भी बन्द हो गये तो इसकी वैल्यू इस शहर में ख़त्म हो जाएगी। इसलिये मैं अपने दरवाजे पर बैठकर हर रोज़ गली के बच्चो को एक-एक सिक्का बांटता रहता हूँ।"

लख्मी कोहली

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