Saturday, September 20, 2008

कहते हैं, हम मुसाफिर हैं

किसी को एकतरफ़ा समझा नहीं जा सकता। सबकी अपनी पसंद है और ख्वाहिशें हैं जिसकी तलाश को हर कोई अपनी आँखों में आवारगी लिए रास्तों व मंजिलों को तय किये चलता है। कहते हैं, 'हम मुसाफ़िर हैं' जो ज़िन्दगी के आम या खास मौकों मे जीते हैं और वहीं पर चाहतों के मानों जैसे खेमे बना लेते हैं। ये मुसाफ़िर अपनी बहुत सी चीजों का प्रमाण न दे पाये हों मगर हां अक्सर किसी न किसी खास तरह से अपनी कलाओं और विधा में ज्ञानी होने के प्रमाण देने के लम्बे समय से परि‌श्रम करते आ रहे हैं।

आज वह शख्स हमारे आस-पास, हमारे किसी न किसी करीबी रिश्ते में हैं।
वक़्त की अलग-अलग परिधियों मे जूझकर उन्होंने अपनी लगन और विश्वास का पैमाना बनाया है और अपने समाज की नई कल्पना की है। आप भी इस तरह के मनमौजी और जुनून के साथ जीते बहुत से शख्सों को जानते और पहचानते होंगे। ये वही शख्स हैं जिन्होंने अपनी खुद से बनाई पहचान को अपना वज़ूद माना है और जीवनशैली को वक़्त की खुरदरी पगडंडियों पर अपने हाथों से खींची रेखाओं के आधार पर जीया हैं। मुलाकातों के दौर में ये मुलाकातें कभी पुरानी कही नहीं जा सकती थी। जहां पर वह अपनी मुंह ज़ुबानी अपने जीवन के किसी सफ़र का बख़ान करते हैं।

ऐसे ही एक शख्स ने हमें इस दौर मे रहने और अपनी कई अनेकों पहचानो से रू-ब-रू होने का अवसर दिया। वे जब भी कुछ कहते तो उसमें वो एक ऐसी लड़ाई का जिक्र होता जिसमें वे खुद ही खुद से लड़ रहे होते। उनका कोई जाना-माना परिचय नहीं है और न ही हम उनका कोई परिचय तैयार कर रहे हैं। ये वे ही शख्स है जो अपनी पहचान की मुहिम को खुद से जुझकर तैयार करते हैं।

जब स्कूल से पढाई ख़त्म की तो इनके हाथों में एक स्कूल का सर्टीफिकेट ही था इसके अलावा और कुछ नहीं। कामकाज के लिए तैयार होकर उतरे श्रीमान को हर फिल्ड मे बड़ी निराशा मिली लेकिन फिर भी मन असंतुलित नहीं हुआ। अपने दिमाग में उठी विचारधाराओं को कहीं रखने की जगह ही नहीं मिली। श्रीमान की ज़िन्दगी में प्रयोग ही चलता रहता था। वे खुद से खुद को तैयार करने की एक मुहिम ही थी। शायद ये तुम मान सकते हो। उन्हें ऐसा लगता कि कोई उन के बारे में जानना नहीं चाहता।

वे अपनी निगाहें झुकाकर कहने लगे, "तुम जानते हो श्रीमान योग्यता तो सिर्फ़ प्याज़ की स्याही से काग़ज पर लिखे न दिखने वाले शब्दों की तरह होती है। वैसे योग्यता भी क्या है? एक बार को तो ये भी ज़िन्दगी पर हावी हो जाती। हां मुझे भी लाखों मशालों मे कहीं अपने लिए चिराग की ही तलाश रहती थी। जिसके छोटे से उजाले में श्रीमान मैं अपनी धुंधली छवि को देख पाता। मुझे डर एक ऐसी बात का होता जो सामने आती तो मैं चाहकर भी अपनी पुकार नहीं सुना पाऊंगा। मेरे बोल मेरे नहीं। वो तो बहती नदियों की लहरों से टकराये किनारों की छुअन का अहसास मात्र थे जो मेरे पास आ जाते थे। मेरे मायने मेरे नहीं। ये बहुमुखी रूप की परतें थी। लेकिन ये सब कुछ साबित करने के कठघरे में मैं नहीं था। जो अपनी विधा का कोई ठोस प्रमाण भी नहीं बना पाया पर मुझे इसका अफ़सोस बिल्कुल नहीं रहा। श्रीमान कई कहानियां मेरे साथ जुड़ती चली गई और बोलियां भी। हर जिले के लोगों से मैं मुख़ातिब होता चला गया। एक हूक सी लिए जैसे ज़िन्दगी में बेसब्र भूखापन। जहां जैसे लोग मिले वैसी मेरी भाषा मिलावटी रूप लेती चली गई। सब कुछ आपस मे मिलता जा रहा था। फलां-फलां कि संगतों में बैठकर जो सीखा वो मेरी याददाश्त का एक हिस्सा बन गई और ज़रिया भी। श्रीमान जो मेरे पास नहीं था। वो था नाम। उसका जिससे मैं अपने कर्मकाडों को प्रत्यक्ष रूप से रख सकता। जिसकी असीम अनुकम्पा को मैं समझ नहीं पाया। वह जिसे वास्तव मे मैं पहचान नहीं पाया। कौन था मेरे सामने जो मेरे पास था? कौन था मेरी जिज्ञासाओं में? इसका मुझे पता नहीं। तो वो नाम कैसे मेरे लिये कोई निर्धारित छवि बन सकता था?
मेरे अनेकों अहसासों को स्थान दिया। मेरे प्रति अपना सम्बन्ध रख सका। मेरी परिस्थितियों के दबाव से मुझे बहुत सीखने को मिला। मन में बिठाई उस सरसरी निगाह ने जीवन के हर अंदाज को अपने अन्दर लिया और दूसरों में बांटा। समाज के प्रचलित दौर के दौरान मेरी कलपनाओं ने कई नई करवटें ली। श्रीमान जिससे फाटक खुले।"

राकेश खैरालिया

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