जगह कैसे अपने अतित को याद करेगी? या अब याद करने का तरीका बनाना होगा? कोई ऐसी निशानी बची है क्या? जिससे यादों के फ्रैमों मे बसे समय को बैसाखियों के बिना सोचें? समय चलते-फिरते नज़र के फ्रैमों में कैद होकर रह जाता है बस, बचा हुआ वो सुक्षम जीवन फिर से समय के गर्भ से जन्म लेता हुआ अपने कौने बना लेगा । मलवा जो तटपर होकर एक रुपक बन जाता है फिर वापस अपने होने की मांग करता है । हम जहां जीते हैं उस जगह मे सांस लेने के साथ सांस छोड़ते भी हैं । हम इस तरह अपने साथ बहुत कुछ रखते हैं तो उसकी ऊर्जा से उबली हवा को बाहर निकालते हैं । जैसे सांप कुछ महीने के अंतराल मे अपने शरीर से एक बारीक परत को छोड़ जाता हैं । समय के साथ जैसे सब कुछ रूपांतरण होता रहता है । यही तरिका है जो एक नष्ट हुए तत्व हो एक बार फिर जीवनदान देता है । एक ख़त्म तो दूसरा चरण शुरू, अनंनतता का फैलाव होता जाता है । आज भी बाज़ारों में चीज़े किसी ना किसी रूप या मोडल को त्याग कर एक नया रंग या आकर्षण लेकर घुम रही है ।
एक शख्स है विनोद जो अपने घर से कुछ इसी इरादे से बची हुई चीज़ों को उठा लाता है । अब तक वो कई सो चीज़ों को अपने घर मे लाकर रख चुके हैं । अपने मन से ही वो मलवे मे से ऐसी टूटी-फूटी चीज़ों को अक्सर उठा लाते हैं । कभी टूटे खिलोने, कोई तस्वीर पेन्टीग लेम्प, चटकी हुई किनारियों से टूटी हुई मूर्तियां अन्य सजावट के सामान । ये सब कुछ घर से निकाले बेमोल चीजों मे से निकलता है । जो किसी न किसी खास मौके का हिस्सा होते हैं । जो विनोद के घर की रोनक बन जाते हैं ।
राकेश खैरालिया
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