धीरे-धीरे करके जगहें सिकुड़ती जा रही हैं। इसके बावजूद भी शायद ही कोई ऐसी जगह भी बची होगी जो किसी की याद ना दिलाती हो?
इस दौरान दक्षिण पुरी मे एक ख़बर बहुत जोरो पर है। जो एक पीले रंग का बोर्ड बनकर दक्षिण पुरी में ठुक गई है। हर दिन कोई ना कोई उस बोर्ड के सामने खड़ा ही दिखता है। कभी कोई रेहड़ी वाला तो कभी कोई खिलौने वाला। वहां से बस पकड़ने वाले भी उसी बोर्ड पर अपनी निगाहें जमाये रखते हैं। कभी तो लगता है कि शायद बाहर शहर मे कोई और बोर्ड, बेनर या पोस्टर बचा ही नहीं है पढ़ने के लिए। जो सभी घूमफिर कर यहीं पर आकर खड़े हो जाते हैं।
उस बोर्ड पर लिखा है,
दिल्ली विकास प्रधिकरण,
अस्पताल कार्य स्थल, (200 बिस्तर वाला)
इसमें ज्यादा कुछ और नहीं है पढ़ने के लिए फिर भी ना जाने क्यों लोग घण्टो इसके सामने खड़े रहते हैं।
एक शख्स काफी देर से उस बोर्ड के सामने खड़ा था और उस बोर्ड को बड़े ध्यान से देख रहा था। कभी तो उसी बोर्ड पर उसकी निगाह टिकी रहती तो कभी वो अपनी तरफ देखने लगता। मिट्टी से लथपथ उसके कपड़े और उसने अपने हाथों मे कुछ उठाया हुआ था। साथ मे ही एक रेहड़ी खड़ी थी, वे शायद उसी की थी। वह रेहड़ी आलू के पकौडों से भरी हुई थी। वह शख्स उसी बोर्ड पर अपनी निगाह जमाये हुए अपनी रेहड़ी पर आया और रेहडी के नीचे झुककर उसने एक काले रंग की बोरी निकाली और उसे उस बोर्ड पर डाल दिया। वहां के बस स्टेंड पर खड़े सभी लोग उसे देख रहे थे। थोडी देर के बाद मे जो बोरी उसने उस बोर्ड पर डाली थी वो उसे उस बोर्ड पर रगड़ने लगा। वह जैसे-जैसे उस बोरी को उस बोर्ड पर रगड़ता वैसे-वैसे वे बोर्ड काला पड़ने लगता और वो शख्स गालियां बकता हुआ उस बोर्ड पर उस कालिख को पोत कर चला गया।
वहां पर खड़े कुछ लोगों ने उसे डांटा भी मगर वे किसी की सुनने को तैयार ही नहीं था। बस, अपना पूरा ध्यान उस कालिख पर रखे वे उस बोरी को रगड़ता चला गया। जब वह बोर्ड पूरी तरह से काला पड़ गया तो वे अपनी रेहड़ी खिसकाकर आगे चला गया। वो शख्स इतनी तेजी से वहां से गया की पीछे मुड़कर भी उसने एक पल के लिए भी नहीं देखा। लोग वहां खड़े उसे देखते रहे। कुछ लोगों ने वहां एक-दूसरे से पुछने की कोशिस भी की मगर यहां सभी अन्जान ही थे।
वहीं बोर्ड के नीचे एक भुट्टे वाली बैठती हैं जो उस शख्स के जाते ही अपने भुट्टो का हवा देती हुई बोली, “किसी की जगह छीन लोगे जहां से उसे आमदनी मिलती है, उसके घर की रोटी चलती है और घर चलता है तो वो ऐसे ही अपना गुस्सा उतारेगा और कर भी क्या सकता है या हम ही क्या कर लेगें?”
पहले विराट सिनेमा के सामने कई इस तरह के रेहड़ी वाले खड़े हुआ करते थे। जब भी कभी वहां पर कोई नई फ़िल्म लगती थी तो सवेरे से ही लोगों की भीड़ का ठिकाना नहीं रहता था। लोग देखा जाये तो वहीं सिनेमा के सामने ही लन्च किया करते थे। इतना रश़ हुआ करता था कि सड़क नज़र नहीं आती थी। बस, पूरा रोड इन्ही दुकानों से रोशन दिखता था। ये उन्ही रेहड़ी वालो के बीच मे अपना एक कोना बनाये हुए थे। सुबह 8 बजे से रात के 10 बजे ये रेहडी लगाया करते थे। चार-चार लड़के रखे हुए थे इन्होने अपनी रेहड़ी पर। सिनेमा हॉल मे काम करने वाले से इनकी जान-पहचान थी तो उससे फिल्म के पोस्टर मांग लिया करते थे और अपनी रेहडी पर लगा दिया करते थे ताकि बाकि और रेहड़ियों में एक खास पहचान बना सकें। पूरे दिन इनकी रेहडी भरी रहती थी और आज देखों ! 5 किलो आलू के पकौडे भी नहीं बिकते। सिनेमा हॉल के बन्द होने के बाद ना जाने वो सारे रेहडी वाले कहां चले गये? वो तो किसी को भी नहीं मालुम था। वो भुट्टे वाली कह रही थी, “हम यहां पर पिछले 5 सालों से बैठे हैं जैसे ही हमें लोग जानने लगते है या हमारा ठिया पहचानने लगते हैं तो जगह ही बदल जाती है। अब कहां जाये?”
वो ये कहती हुई चुप हो गई। वहां पर खड़े लोगों मे से किसी को भी नहीं मालुम था की ये सावल किसके लिए है और किससे है। मगर यहां सब ये जरूर जानते थे कि जिस मैदान के आगे ये बोर्ड लगा है उस मैदान के साथ जुड़े अवसर यहां कि यादों मे बस गये हैं। दक्षिण पुरी के कई परिवार इसी मैदान मे गठबंधन मे बंधे हैं और कई परिवारों की फोटों एल्बम मे दर्ज हो गये हैं तो कई लहकते हाथों को यहां पर मजबूती मिली है। चाहे वे ड्राईवर हो या ढोल बजाने वाले शाहग्रिद।
टैक्सी स्टेंड वाले भाई साहब भी अपना कोना थोड़ा कम कर रहे हैं। जो क्यॉरियां लगाकर उन्होनें जगह को खुबसूरत बनाया हुआ था वे ये कहकर सिकुडी जा रही थी कि आपने जगह को घेरा हुआ है। वे अपनी खाट उसी आंगन मे बिछाकर पूरे मैदान मे अपनी नज़रे घुमा रहे थे। धूप मे चमकता मैदान शायद कई बीते-गुज़रे लम्हों को यादों मे ताजा कर रहा था। शायद आने वाला समय अपनी तस्वीर बनाने की कोशिस कर रहा हो। उन्हीं दोनों तस्वीरों के बीच मे बैठे वे अपने आपको मजबूत करने की कोशिस करने में जुटे थे। इनकी यादों मे इस मैदान से जुड़े हर समय के पहलू जमा हैं जो कभी भी अपना ताज़ापन बयां कर जाते हैं फिर चाहें वो छुट्टी का ही दिन क्यों ना हो, जब यहां सुबह 6 बजे से शाम के 7 बजे तक कई खेलों की आवाजें आती रहती हैं। ऐसा लगता है जैसे दक्षिण पुरी के सारे बच्चे और खेल इस मैदान मे जिन्दा रहते हैं। इस मैदान की मिट्टी मे छपे पैरों के निशान उनके जाने के बाद भी उनका अहसास हर वक़्त कायम रखते हैं और उसमे घुले रहने को मजबूर करते हैं। ये सभी यादें कभी तो चेहरे पर हंसी ले आती हैं तो कभी गुस्सा, डर ले आती है तो कभी आंसू। मगर लगता है कि जैसे ये सब अपने साथ भावनाओ का ही खेल है। जो अपने से बाहर के वाक्यों को भी खुद मे ले आता है और हम कहीं और के हो जाते हैं।
मैदान के साथ लगे खोकों मे दुकान लगाये टैन्ट व ढोल वाले अपनी जगह बनाने की कोशिस मे हैं। टैन्ट वाले अक्सर अपने टैन्ट की दरी, कारपेट और सोफे यहीं मैदान की मुण्डेरी पर लगा देता हैं सुखाने के लिए। जो वहां आते राहगिरो के लिए एक खास तरह का आमंत्रण बन जाते हैं। जैसे-जैसे अंधेरा होता है लोग वहीं बिछे कारपेटो पर बैठ जाते हैं और आती-जाती गाड़ियों को निहारते रहते हैं। ये वक़्त भी यहां के लोगो के लिए एक खास तरह का होता है। जहां पर लोग शाम मे काम पर से घर लौटने के बाद यहां की मुण्डेरी पर बैठे आसपास देखकर अपना वक़्त बिताते हैं। कभी मैदान मे खेलते बच्चो को देखकर तो कभी बाहर चलती गाड़ियों को देखकर। वैसे देखा जाये तो बहुत कम होता है कि कोई जगह हमारे रोज़मर्रा मे बस जाये। मगर इस जगह ने वो स्थान पा लिया है लोगो की ज़िन्दगी मे।
रोशन लाल जी एक कॉरियर कम्पनी मे काम करते हैं वे इस जगह को अपने शब्दो में कुछ अलग ही तरह से उभारते हैं। वे कहते हैं, “हमें आदत हो गई है काम की। शाम मे जब घर वापस आते है तो एक बैचेनी सी होती है। मन कहता है कि कहीं चला जाये मगर कहां? वो ही पता नहीं होता। तो कदम निकल पड़ते हैं। हमे तो इस वक़्त मे जितना आसान यहां आने मे लगता है उतना ही मुश्किल किसी रिश्तेदार के यहां जाने मे लगता है। यहां पर आने के बाद मे थोड़ा अपने मे रहने को मिलता है। जहां पर कोई ये कहने वाला नहीं होगा कि 'अबे तू यहां बैठा है।' इसलिये यहां कितनी भी देर बैठ जाओ, पता ही नहीं चलता।"
कभी-कभी तो लगता है कि किसी जगह को दूर से देखने में हम उसकी बनावट मे ही अटक जाते हैं। मगर उस जगह के साथ मे किस तरह की यादें, जीवन और रोज़मर्रा जुड़ी है उसे कहीं गायब कर देते हैं जबकी यही तीन चीजें उस जगह की जान होती हैं जो उस जगह को जिन्दा रखती हैं, सांसे लेती हैं। ये मैदान भी इन्ही रिश्तों, कामों जीवन और रोज़मर्राओं मे सांसे लेती है और अपने जिन्दा रहने के अंदेसे देती हैं। ये सांसे पैदा होती हैं लोगों से, गुटों से, उनकी कहानियों से, उनकी यादों से और उनके किस्सो से। जो किसी जगह से जुड़ने से पहले उनके अपने होते हैं। लेकिन किसी जगह से जुड़ते ही वे आजाद हो जाते हैं और उड़ान भरने लगते हैं कई ज़ुबानो और माहोलो में।
इस मैदान के हर वक़्त बदलते चित्रण ने इसकी यादों को और भी पुख्ता कर दिया है। जो वाक्या बनकर छलक उठती हैं।
दशहरे के वो दस दिन, जब ये मैदान और दक्षिण पुरी दोनों को खास लिबास मे देखने के लिए हर ऑख तैयार रहती है। जिन दिनों मे दक्षिण पुरी दिल्ली की कोई पुर्नवास कॉलोनी ही नहीं रहती। बल्कि छुट्टियां बिताने की एक खुबसूरत बन जाती है। हर घर यहां नानी का घर, दादी का घर, मामा का घर और ना जाने कितने नामों की पहचान से जाना जाता है। पिछले 34 सालों से तो यही होता आ रहा है। विराट का ये मैदान रामलीला और रावंड़ के पुतले फूंकता आ रहा है। जहां पर दिल्ली के प्रधान मंत्री तक आये हुए हैं रावंड़ के पुतले को मुखागनी देने के लिए। दस दिनों तक लगने वाले मैले को कई छोटे राज्यों से लोग देखने के आते हैं। कई रोज़गारो, कलाकारो को यहां पर अपनी कला को आज़माने का अवसर मिलता रहा है। यहां हर साल पूरी दक्षिण पुरी सड़क पर उतर आती है और मैले मे अपने रिश्तों को खोजने का लुफ्त उठाती है। हर दुकान पर जहां रस रहता है।
मगर, शायद सब ये सभी कहानियां बनकर इतिहास के पन्नो में कहीं खो जायेगी। वाक्या बनकर दोहों मे सुनाई जायेगीं। इसी बोर्ड के नीचे बैठा एक शख्स जो शाम होते ही पतंग की दुकान लगा लेता है। वे अपनी पन्नी के अन्दर से पतंगे निकलाता हुआ भुट्टे वाली अम्मा से बोला, “अरी अम्मा ये मैदान तो दो चीजों मे मुद्दा बना था। एक तो खेल का मैदान और दूसरा अस्पताल। एक ने कहा, 'यहां दक्षिण पुरी मे खेलने की जगह नहीं है तो यहां पर खेल का मैदान बनना चाहिये।' तो दूसरा बोला, 'यहां अस्पताल भी नहीं है दक्षिण पुरी से अस्पताल 23 किलोमिटर दूर पड़ता है। यहां पर अस्पताल बनना चाहिये। तो ऑर्डर देने वाले ने यहां पर जरूरत समझी अस्पताल की तो अब यहां पर अस्पताल बनेगा।"
भूट्टे वाली अम्मा ने कहा, “फिर तो यहां पर ना तो बाजार लगेगा और ना ही मेला?”
पतंग वाले ने कहा, “हां, वो तो नहीं लगेगा।"
भूट्टे वाली अम्मा ने कहा, “कितनो की रोजी-रोटी पर लात लगेगी।"
पतंग वाले ने कहा, “सो तो है, मैं तो ये सोच रहा हूं की बच्चे कहां खेलेगे? इतने पार्क हैं वैसे यहां मगर जिसके भी घर के आगे हैं उसने उस पार्क को अपनी जागिर बना लिया है। अब कोई खेलने की जगह रह ही कहां गई हैं? एक जंगल है पर वहां भी 6 फुट की दीवार उठा दी है तो कोई जा ही नहीं पाता तो खेलेगा कहां से? पता नहीं क्या होगा?”
भूट्टे वाली अम्मा ने कहा, “कुछ भी हो मगर बदल जायेगा यहां पर सब। बच्चे कुछ ना कुछ तो करेगें ही पर ये नहीं कहा जा सकता की क्या करेगे?”
ख़बर ज़ुबानो के तहत अपना आकार बना रही है जो और बड़ा होता जा रहा है। बहुत कुछ बदला यहां इस मैदान मे पहले बाजार लगा फिर सिनेमा हॉल बना और उसके बाद मैला लगा। लेकिन अबकी बार जो बना वो कभी नहीं हटेगा। इसके बावज़ूद कई ज़ुबानों मे अटक गया है एक यही सवाल "कहां जाये?”
लख्मी कोहली
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