एक आवाज को काटती दूसरी आवाज और दूसरी आवाज को दबाती तीसरी आवाज। दम भर-भर कर बोलना शुरू हो गया था। बीस से पच्चीस आदमी जो अपने बदन पर हल्के और ढीले कपड़े पहने हुए थे। तहमत, कुर्ता-पजाना, गमछा। हर कोई किसी ना किसी ताक मे बैठा था। बड़े से कमरे में रोशनी के नाम पर दो मोटे-मोटे वॉट के बल्ब जल रहे थे। दीवारों पर ठीक वैसे ही सींगरी और कॅलेन्डर टंगे हुए थे जैसे हर सजावट को सोचकर लगाये जाते हैं। बीच की दीवार के नीचे जहां से फर्स का किनारा दिखता है वहां धीरे-धीरे सुलघते कन्डे के टुकड़े इकट्ठे किये हुए थे। जिनसे उठने वाली लपटों मे पास बैठा एक उलझे बाल और सांवला रंग, जिसने कमर से तहमत बाधां हुआ था। वो बार-बार बड़े मूंह वाली कटोरी से चम्मच से घी निकालकर आग में डाल रहा था ।
ठीक तरह से किसी की बोली समझना मुश्किल था। क्योंकि रूक-रूक कर गाने के साथ वे आदमी ढोलक भी बजा रहे थे। ले-देकर यहां सब किसी एक बड़ी मथ्था-पच्ची करने में लगे थे। फिर से जोर से कोई उठकर बोलता, “ अगर है इसी बख़त से तो दुहाई है तुझे, हे माई बचनों को मानकर चलेगी।" ये बोल बार-बार कुछ उलट-पलट कर सुनने मे आ रहे थे। इतनी भीड़ के बीच में बैठा चुपचाप अपने बदन को साधे हुए, वो काले रंग वाला आदमी जिसके बाल घुंघराले थे। उसके सिर को एक जनानी कपड़े से ढाक रखा था। वो आदमी तेजी से कँपकँपाता फिर हल्के-हल्के रूक जाता। जैसे ही दुहाई के गाने ऊंचे-ऊंचे होते और ढोलक भी अपनी थाप पर थाप लगाती तो इस आदमी के बदन मे एक गर्मी सी पैदा हो जाती। पीठ के हिस्से पर पसीना बूंद-बूंद करके बहे जा रहा था। उसे देखकर पास बैठे सभी लोगों को भी जोश आता और वो तरह-तरह के देवी-देवताओं की दुहाई लगाकर उस आदमी को जिसके सिर के ऊपर कपड़ा उड़ाकर बैठा रखा था उसे डोली कहकर पुकारते। देवी-देवताओं से प्रार्थना करते की इस मानस मे से होकर निकल जाओ। दीवारों से टेक लगाये हुए आदमी ढेहरों बीड़ियों को अब तक पी चूके थे। कुछ एक हुक्के मे गुड़गुड़ाते हुए दम मार रहे थे। फर्श पर आधी पी हुई बीड़ियां हल्की बुझी हुई थी। जो धूंए के छोटे-छोटे रेशे बनाकर बुझ जाती।
गाने बजाने मे यहां हर कोई निपुणता हासिल किए हुए था। तभी तो एक के साथ दूसरा ताल मिलाता और सुर मिलाकर गाने लगता। देवी-देवताओं को मनाने का यही एक इकलौता माध्यम था।
चारों तरफ से एक घेरा लगाये आदमी बीच मे उस कपड़ा ओड़े हुए आदमी के सिर पर हाथ रखते और फिर हटा लेते। सबकुछ बड़ा अलग लग रहा था। उन्हीं मे से एक आदमी जिसके पास मैं बैठा था वो भी उन सभी की तरह जोर-जोर से आँखों को फाड़े और चेहरे मे आक्रमकता लिए बैठा था । सब कुछ जैसे जानबूझ कर किया जा रहा था। इस पंचायती बैठक मे हर तरह के भूत, पिसाचर, निसाचर और देवी-देवताओं को इस्तमाल किया जा रहा था। जैसे यहां इस दंगल मे कुश्ती दिखाकर अपनी योग्यताओं का जोहर दिखाने का प्रयास किया जा रहा हो। अच्छे और बूरे का, सत्य और असत्य को आपस मे रगड़ा जा रहा था।
जैसे ही गाना-बजाना तेज होता वैसे ही इस आदमी के शरीर का तापमान किसी थर्मामीटर के जैसे बड़ता जाता। वहीं सामने दीवार पर लाल रंग के सिंदूर से फूल और त्रिषूल से एक चौका बना हुआ था। जिसके बीच मे ओम: नम: शिवाये: लिखा हुआ था। ये देवी-देवताओं का स्थान होता है, उसे चौका बोला जाता है। उस चौके के दूसरी तरफ़ बैठा वह आदमी बहुत देर से अपने होठों को हिलाता तो बीच मे जनाना कपड़ा औढ़े हुए वही आदमी आटे की तरह मे गिर पड़ता। ऐसा कई बार हो चूका था।
कुछ मिनट के बाद एक भगत जी उठे, “ला जरा मुझे लोहे का चिमटा लादे, फिर देखता हूं की इसके अन्दर का भूत कैसे बाहर नहीं आता।" घूटनों को मोड़े हुए, दोंनो हाथों को जोड़कर बैठा था। तभी उसके ऊपर एक भगत जी ने राख को हाथ मे लेकर फूंक मारी। अभी जो चूपचाप बैठा था वो तो हाथ – पैर फैंकने लगा।
इसी बैठक मे वो लोग भी थे जो इस देवीयें शक्तियों और झाड़फूंक की विद्या से अन्जान नहीं थे लेकिन वो खामोश होकर तमाशा देख रहे थे। जहां आँखों के आगे हर कोई एक छलावा कर रहा था। तो दूसरा उस छल को मात देने के लिए गुप्त राजनीति कर रहा था।
तंग पेन्ट पहने और बनियान पहने हुए, लम्बे बाल वाले एक व्यक़्ति ने कहा उसमे कच्चे सूत की माला बनाकर दोंनो हथेलियों मे लेकर बार-बार अपने मूंह से सिद्ध किए मंत्रो का उच्चारण करके नीचे बैठे हुए आदमी के सिर के नीचे डाल दिया। ऐसा वो बार-बार कर रहा था। सबकी आँख उस आदमी को अपने आप ही हिलते हुए देख रही थी। जो कमरे मे इकट्ठा हुई भीड़ के बीच मे बैठा देवी-देवताओं को सुमर रहा था। कमरे मे गर्मी होने का कोई मतलब नहीं था। छत पर पंखा भी तेज चल रहा था। बाहर की तरफ़ चौखट के साथ ही बड़ा सा कूलर जो मुमकिन हवा अन्दर फैंक रहा था। इतना होने के बावज़ूद उस डोली को कपड़ा उड़ाने से पसीना बहुत आ रहा था। नाम तो उसका पता नहीं था पर सब उसे प्रेम कहकर समझा रहे थे। कुछ देर इतना सब देखने के बाद मुझे भी अब उनमे से दो चार लोंगो के नाम याद हो गए । उनकी अपनी बातचीत मे वो एक-दूसरे का नाम लेकर ही काम कर रहे थे। मैं थोड़ा और ध्यान देता कि उस माहौल मे एकाएक उथल-पुथल शुरू हो जाती। जहां बैठकर वहां से ढोलक की आवाज आ रही थी। लोग अपने गले से लम्बे-लम्बे अलाप लेकर दुहाई के गाने गा रहे थे। देवताओं को खुश करने और मनाने-परचाने के लिए। ऐसा माहौल बनाना जरूरी था किसी रोग को मारने के लिए। उसे दोबारा सबके बीच बुलवाने का तरीका ढूंढा जा रहा था। दूर-दराज से आए भगत जीयों को बुलाया गया था। जब समा सुर ताल के साथ बनने लगता तो जोरो से मेरे साथ में बैठा ही एक नौजवान किसी का नाम लेकर खड़ा होकर बोला, “अरे ये सासु का ऐसे नहीं मानेगा। याए तो मैं भ्रमफांस मे डाल दूगां।"
इस तरह से वहां आए सभी शख्सों में एक तरह की गाली-गलोच शुरू होने लगी। ये माहौल भी बड़ा प्रभावशाली बनता जा रहा था।
कन्डों के उपर जोत जल रही थी, जिसके ऊपर एक अजीब सी बू छोड़ता हुआ धूंआ लहरा रहा था। वहीं एक कांच की बोतल जिसमे देसी शराब भी और काम आने वाले लोंग, घी, तेल, जायेफल, नींबू, लाल सिंदूर, काला कपड़ा, पीली सरसों, देवी का सिंगार और तांबे के लोटे में रखा गंगा जल, पचंमिस्ठान जैसी चीजें मौजूद थी। दिमागी शक़्ति ये सब देखकर कुछ समझ नहीं पा रही थी। गानों की आवाजें तेज और तेज होने लगी। ढोलक-मन्जिरे भी जोर-जोर से बज रहे थे। सबके चेहरे पर जोश और उत्साह के घने बादल छाये हुए थे। अपने गले मे गमछा डाले हुए एक और भगत उठा जो दिखने मे जवान था। यानि बीस से पच्चीस साल की उम्र होगी। उम्र का नया-नया जोश खून बनकर उसकी रगो में दौड़ रहा था। दूसरे ने उसे चने के झाड़ पर चड़ाते हुए कहा, “अरे देखता क्या है सुरेश, मार दे मूंह।" इसका मतलब ये था की जो आदमी जनानी कपड़े ओड़ कर बैठा था उसके ऊपर कोई रोग है जो अब उसके सिर पर मंडरा रहा था। ये हरकत सी देखकर दूसरे ने उससे कहा, “सुरेश डर मत। यहां तो सब चलता है।" लेकिन सुरेश अपने को कच्ची उम्र का खिलाड़ी समझ कर आगे कदम उठाने से डर रहा था। कहीं धोखा ना हो जाए और लेने के देने ना पड़ जाए । उसको हिम्मत दिलाते हुए वही व्यक़्ति फिर से बोला, “का सोच रहे हो यार मेरे, वो कहावत है ना ! कि छोटा बड़ा ना जानिये जो गुणवन्ता होए। तुम ये काम करदो, सब यहां पर देखते रह जायेगें।"
गाने बजाने का सिलसिला अभी जारी था। मुझे ये पूरा माजरा समझने मे मुश्किल हो रही थी। लेकिन वहां पर आए कई नौकरी पैशेवर शख्सों को अलग से रूप मे उभरता देख आश्चर्य भी हो रहा था। कमरे के बाहर अन्धेरा हो गया था। चौखट के साथ दरवाजे से पीठ लगाकर चार-पांच महिलाये भी घूंघट की ओट से ये सारी गुथ्थम-गुथ्थी का मन्जर देख रही थी।
सुरेश ने अपनी काबलियत के बल पर उस रोग को वश़ मे करने की कोशिस की। अपने देवी-देवताओं का उच्चारण करते हुए उसने कई फन्दे बनाकर फैंके पर सब तुर्की फन्दे व्यर्थ हो गए। सुरेश ने अपना हाथ उठाया और उस बीच मे बैठे आदमी के सिर पर रख दिया। जिसका मतलब था कि देवता की चौकी देना। इस चौकी को रोगी के सिर पर रखते हुए बोला, “अब चौकी की जिम्मेदारी तेरी है।" यानि देवता जो चौकी मे रखकर दिया गया था वो इस समस्या का हल ढूंढेगा। ये सब एक पहेली की तरह की रहस्य लग रहा था। जिसमे बहुत कुछ अभी छुपा हुआ था। जिसको समझने की हर कोई ताबड़तोड़ मेहनत कर रहे थे। हर एक की अपनी-अपनी नज़र को पहचानने का पैमाना था जो कभी पूरा तो कभी अधूरा होता।
मैं सोचने लगा कि कोई है जो इन्सानों की इस बस्तियों मे अपने होने सूचना देता है। गहरी रहस्य कि गुफाओं की ओर जाता हुआ रास्ता जिसका अन्त नहीं दिखता। जब सोचते-सोचते मैं इस माहौल से अलग होने की कोशिस कर रहा था। मुझे ये माहौल से उठने वाली अदृश्य भूताज़ोन कि चितकारियां वापस इसी माहौल मे धक्का दे रही थी पर मुझे मेरा नामों निशान नहीं मिल रहा था। ठीक वैसे ही जैसे अन्जान जगह पर जमीन के ऊपरी सतह के ऊपर कीडें-मकौड़ो और सांप – बिछ्छुओं के बीच में मैं बार-बार बोखलाता हुआ कुछ ढूंढ रहा हूं। क्या है वो ये मुझे याद नहीं आता? लेकिन उस जमीन पर पेड़-पौधे और टूटी चीजें जो मैं कभी इस्तमाल किया करता था। ये बिखरा तामझाम मे शायद मैं अपने आपको देखने का आईना ढूंढ रहा था। जिससे ये जान सकूं कि मैं कौन हूं और मेरी शक़्ल कैसी है? ये कैसे विड़मबना थी। जिसमे मैं चाहकर भी नहीं अपने को मैं रोकने मे सफ़ल नहीं हो पा रहा था। उस आदमियों से भरी पंचायत मे मैं चुपचाप था। इसके मेरे पास कई कारण थे और एक भी कारण उतना मुश्किल नहीं था। जितना की मैंने खूद ही समझ लिया था।
अब परमेश्वर को याद करके एक बुर्ज़ुग आदमी ने अपने सिर की पगड़ी उतारकर दोनों हाथों को जोड़े बैठे हुए उस आदमी के सामने रख दी। अब कोई चमत्कार देखने कि उम्मीद सी लग रही थी और हुआ भी वैसे ही। मेरी भी आवाज हलक मे ही फंसी रह गई। जब पगड़ी को समाने देखकर देवता अपनी पूरी ताकत के साथ उजागर हुआ तो पूरे माहौल मे जैसे खुशी और राहत की लहर सी दौड़ गई। इससे कुछ फायदा तो हुआ था। इससे पहले बात इतनी नहीं बड़ पाई थी। जोत मे जलते बतासे और घी के साथ जलती लोंगो की महक पूरे कमरे मे छा गई थी। तभी वो आदमी ददकार मारकर तेजी से घूटनों के बल आगे गिरा। उसके साथ दूसरा जो गले मे काले धागे की डोरी पहने हुए था उसका नाम रामसिंह था। रामसिंह ने अपने बालों को सहलाया और हथेली फैलाकर अपने पास ही बैठे प्रेम के साथ देवीये मन्त्रो से देवताओं को प्रकट करने लगा। रामसिंह भी अभी भगत बना था। उसके गूरू मुरारी लाल से मेरी अच्छी बोलचाल थी। दूर का रिश्ता तो था ही और एक कर्म को करने वाले यानि भूताज़ोन के हम साथी थे। इस जन्म मे एक भूताज़ोन मे पड़ने से मेरे पारीवारिक रिश्ते बिलकुल करीब नहीं थे। घर के लोगों ने तो इस काम को अपनाने के बाद ही मुझे ठूकरा सा दिया था। बस, नाम के लिए परिवार वाले घर मे इज्जत थोड़ा रोटी खिला दिया करते थे, वही बहुत था। इसमे उनका भी कोई दोश नहीं था। मैंने अपने राह खुद जो चुनली थी। घर की अधिकत्तर जिम्मेदारियों से मैं धीरे-धीरे दूर होता जा रहा था। मेरी बीवी भी मेरे आने से डर जाती थी। वो गुस्से मे मुझे ताने भी मारा करती थी। लेकिन मुझे इस बात की परवाह नहीं होती थी। मुझे जो करना था वो मैं करने के लिए निकल चूका था। इस विद्या को सीखने के लिए जिसकी मुझे लत सी लग गई थी। वो जादूई विद्या थी। मैं किसी भी हालात मे उसको सिखना चाहता था। मेरे ननिहाल मे मेरी माता कि चचेरे भाई इस विद्या मे निर्पुण थे। उनके पास जाकर मैंने उनसे गुज़ारिश की। उस दिन रात के दस बज रहे थे। बादलों ने आसमान के तारों को अपनी करवट मे छूपा रखा था। थोड़ा झेपतें हुए मैंने उनके घर मे बैठकर अपनी इच्छा रखी तो उन्होंने साफ़ इन्कार कर दिया। वे बोले कि अब मैंने ये रागमाला उतार कर रखदी है। अब इसमे कुछ नहीं बचा।
वे मेरे कन्धों को थपथपा कर फिर बोले, "बेकार है इस जादू मे फंसना।" मेरी सांसे ओर तेज हो गई । उन्होने तिबारा और कहा, “छोड़ दो ये हट, बेकार है और बेकार मे वक़्त बर्बाद कर डालोगें। " उनके बातें मेरे सिर से गुजर रही थी और चोट दिल पर लग रही थी। अब आन्धी भी आ चूकी थी। मूझे अब लगने लगा की यहां कुछ हासिल नहीं होने वाला। जो करना है वो मुझ ही को करना होगा। ज़िन्दगी कितनी भी बेहरहम क्यों ना हो मगर, उसके बनाये हालातों से लड़ना ही पड़ता है।
ऐसा ही प्रेम के साथ कुछ हो रहा था। वो दो घण्टो से इसी उम्मीद मे भीड़ के बीचों-बीच बैठा था। कुछ चीज की उसे जरूरत थी वो उसे मिल नहीं रही थी। शराब की बोतल अब आधी हो चुकी थी। एक दो पैक बनाकर गाने-बजाने वाले आदमी अपने गले की तराई कर रहे थे। ताकि तेज आवाज मे गाने से जो फांस गले मे चुभ रही थी उस फांस को गला दिया जाये। प्रेम सब के मूंह को घून्ना कर देख रहा था ओर कुछ ना कह पाता। उसे लगता की मैं घण्टो बैठे-बैठे परेशान हो रहा हूं और ये आदमी रंग ले रहे हैं। वो चीज जो स्पष्ट रूप से ना आती दिखाई दे और ना जाती। एक ऐसा ही अन्धविश्वास इन भगतों के बीच की दुनिया बना हुआ है। जिसमे हम ज़िन्दगी के सत्य से लड़ते रहते हैं। ये मेरी या इन भगतों कि ज़िन्दगी से ही वासता नहीं रखता। इस जमीन के ऊपर भी कोई है जो जमीन पर रहने वाले हर प्राणी को उसके कर्म अनुसार उसका फल देता है।
मैंने शायद बहुत पाप किए होगें। जब से होश सम्भाला तब से तो नहीं मगर, अन्जाने मे जरूर कोई पाप हुआ होगा। तभी तो ये भूताज़ोन मे मुझे डाल दिया। मैंने ज़िन्दगी से बहुत प्यार किया है और करता भी हूं इसलिये शायद हर तरह से वक़्त के आगे अर्लट रहता हूं। मैं अपनी यादों मे घूम कर जैसे ही वापस आया कि देख अभी का समय सुबह का तीन बज कर चालीस मिनट हो रहे थे। जो मेरे साथ आकर अखाड़े मे बैठे थे। अब तक उनकी आँखें भी पत्थरा गई थी। दीवार से टेक लगाये सुरेश, दयाराम, रामसिंह अब मीठी-मीठी नींद ले रहे थे। देशी दारू पीने की वजह से उनके मूंह से खर्राटों की आवाज आ रही थी। मूंह तो ऐसे खूले हुए थे जैसे ना आने वाली ट्रेन के फाटक खूले हो और मख्खियां-मच्छर जिसमे दौड़ लगाकर वापस बाहर आ जाते। लेकिन नशे मे धुत, इनमे से किसी को इस बात का पता नहीं चल रहा था। प्रेम जगे हुए आदमियों के चेहरे पर नींद की चादर फैली देख रहा था। उनकी आँखों की पलकें झपकते देखकर उसका भी मन आलस से भर रहा था। रात लगभग कर चुकी थी। बस, कुछ देर और सवेरे का इन्तजार करना था। क्षण भर की बात थी फिर पंछी जाग जायेगें और अपनी चहचहाटों की आवाजों से वातावरण को खिला कर रख देगें। लेकिन ये क्षण बिताना मुश्किल हो रहा था।
शायद मुझे कुछ याद आ रहा था। मैंने अपनी पारीवारिक जिम्मेदारियों का त्याग करके उनसे मूंह मोड़ लिया। अपनी खुद की इच्छा पूर्ती के लिए। अन्धो कि भांति मैं बिना कुछ देखे समझे अपने आगे आने वाले हर काम, हर चीज, हर रिश्तों को नज़र अन्दाज करता रहा। अपनी चाहत से बनी दुनिया को पाने के लिए। मैंने शायद कई गुनाह भी किए होगें। मैं घर को छोड़ ही चुका था। मेरा सम्पर्क घर के हर रिश्तों से टूट चुका था। बस, कुछ न कुछ करके ही घर लौटने की कसम खा ली थी मैंने। जगह-जगह घाट-घाट का पानी, कई तरह के मुल्लाह, फकीरों और ओझाओ के साथ रहकर मैंने समय बिताया। अपनी बिरादरी मे जो भी जादूगरी से ताल्लुक रखता था। मैं उसके साथ समय बिता लिया करता था। जहां शाम हुई वहीं डेरा डाल लिया। समय के चक्कर को रोकना मेरे बस के बाहर था। धर्म रीती-रिवाजों से अलग बैठना और तरह-तरह की संगतो मे बैठकर शिक्षा प्राप्त करते हुए मुझे जीवन के आन्नद भी महसूस होते। इससे ये पता चला की जीवन का आन्नद हर जगह, हर कण मे है। उसके लिए इतनी दूर सब कुछ छोड़ कर आने का मतलब कुछ खोना ही था। मैं मेरे अन्दर वो शख्स रहता था जिसे तलाशने मे मैं गांव-गांव, शहर-शहर भटकता रहा। उसकी शक़्ल देखनी थी वो ही मेरी पहचान है। मैं उसे किसी भी तरह से सबके सामने लाना चाहता था। वो पहचान जिसका मैं मरते दम तक तलबगार था। यूं तरह-तरह के लोगों के दरमियां रहकर मुझे कई धर्म और समाजो मे जीने वाले जीवन को जीने के तरीको की जानकारी अच्छे से हो गई। पता लग गया था की लोग धर्म क्यों चुनते हैं? और वर्गाकार जीवन क्यों अपना लेते हैं? जिससे की दूसरे को चोट पंहूचने नहीं देती। मैंने लोगों के पास रात-दिन बिताए और बारह साल तक जैसे एक जंगल नामक स्थान पर वनवास पूरा किया। ये दुनिया मेरे लिए एक तरफा समाज मे, समाज के ही गठबधंनों मे ही बन्ध कर जीना थी और दूसरी तरफ बियावान जंगलों मे जगह-जगह, पत्ता-पत्ता, डाल-डाल का बोध दिलाती कोई साथीदार थी। जिसके उगंली थामे मैं अध्यात्मिक गुणों को एक-एक करके आत्मसाथ के रू-ब-रू करवाता गया। मेरे जीवन का जैसे एक नया धरातल बन गया हो। एक नये जन्म का आभास मुझे होने लगा था और मैं पिछले जन्म के कर्मकाण्डो को भूल गया। मेरे दिमाग की नसो पर आध्यत्मिक बोध का ऐसा प्रहार हुआ कि मैंने अपने शरीर के पुराने वस्त्रो को उतारकर रख दिया और नये वस्त्रो को धारण किया। अब मेरी ज़िन्दगी और कई शुस्त्रो से बन्ध चुकी थी। मगर फिर भी मुझे कहीं से अधूरापन आकर एक अहसास सा आकर छोड़ जाता। मैंने अपने जीवन के पिछवाड़े देखने की कोशिस की मगर एक फीकापन सा लग रहा था।
फिर वही उसने तेजी से डांट मारते हुए उसमे प्रेम की आँखों मे बसने वाली नीन्द को नौंच डाला। "मैंने तुमसे कितनी बार कहा मन लगाकर याद करो आखिर देवी कैसे नहीं आयेगी, हम भी तो उसकी पूजा-आर्धना करते हैं।"
प्रेम अपने पैरों के पन्जों को हिलाकर उन्हे आराम पंहूचा रहा था। काफी देर बैठे-बैठे उसके पैर सुन्न: हो गए। उसे फिक्र थी की वो भगत बन पायेगा या नहीं ! पूरी रात मक्का की तरह रखाते हुए काट दी थी। अब बीते समय के गाने-बजाने की गूंज तक मेरे कानो मे बाकि बची थी। जो खुद एक रस़ बनकर मेरे दिलो-दिमाग पर भी छा चुकी थी। प्रेम के अब कानो को कोई संदेशा देकर भुल गया। उसे नीन्द ने अपनी आगोश़ मे ले लिया। उसके साथ दूसरे आदमी भी अपनी थकान उतारने के लिए बिना बिस्तर के ही वहीं पैर-पसारे सो गए। कोई नतीजा निकला नहीं पूरी रात खिंचातानी होती रही थी। करवटों को लेकर सोने का विचार प्रेम को भी आया, लेकिन उसका बदन आग से फुंक रहा था जिसकी वज़ह से उसे रह-रहकर गुस्सा भी आ रहा था। मैंने उसकी पीठ को सहलाकर कहा, “हिम्मत रखो दोस्त, यूं गुस्सा करने से कुछ नहीं होगा।" उसमे कहा, “तुम ही कोई करतब क्यों नहीं दिखाते?” उसकी बातों को सुनकर मैं थोड़ा सोचकर और जानबूझ कर मैं खामोश रहा। मेरी जुबान से जवाब हां मे निकलने को होता मगर मैं अन्दर ही अन्दर ही अपनी जीभा को खींच लेता
राकेश खैरालिया
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