Friday, September 26, 2008

जख़्मी जूतों का डॉकटर

दक्षिण पुरी में 17 ब्लॉक के बस स्टेंड के पास एक मोची रहता था। जिसे वहां के लोग डॉक्टर कह कर पुकारते थे। किसी ने कह दिया था की "भई तुम कमाल के डॉक्टर हो, क्या खूब मेरे जुतों का ईलाज किया है।"
बस, उसे तभी से मोची के बजाये डॉक्टर कहने लगे। वैसे उसका नाम रमेश है। उस की दुकान मे एक बुर्ज़ुग मकड़ा उसके साथ रहता था। बुर्ज़ुग मकड़े को वह गिरधर दादाजी कहता था। उनके दिन हंसी-खुशी व्यतित हो रहे थे। कब सुबह होती और कब एक-दुसरे के बारे में बतियाते शाम हो जाती। ये पता ही नहीं चलता था।

जहां रमेश की दुकान थी वहां से मोहल्ले के लोग काम के लिये निकलते थे । यानी पूरे दिन रास्ते पर आवाज़ाही रहती थी।

एक दिन रमेश की दुकान पर एक लड़का आया।

"अरे अंकल मेरे पापा के जुतों मे ज़रा सिलाई करदो।"
तभी "औ..हो ये क्या?”

"तुम्हारी दुकान में इतना बड़ा मकड़ी का जाला, इसे तोड़ दो वरना यहां बिमारी फैल जायेगी। पता है इस मे रहने वाली मकड़ी का ज़हर बिमारी कर सकता है।"

उसे चीखता हुआ सुन एक आवाज आई ..

"अबे कौन है बे तु?, जो अपुन के मोहल्ले में अपुन को बिमारी बोलता है। साला अपुन तुम्हारे लिये कितना बड़ा काम करता है।"

"अरे ये कौन सी बला है, ये डरावना बोना कौन है?”

"क्या बकवास करते हो? मुझे तो ख़तरनाक दिखाई देते हो।"
"अच्छा बच्चू, पता है! हम मकड़े प्रतिदिन बिमारी फैलाने वाले मक्खियों-मच्छरों को मार कर खाते हैं ताकि तुम स्वास्थ रहो!”

वो लड़का गिरधर की बात को सुनकर सोच में पड़ गया और बोला, "आप तो कमाल के आदमी है!”
गिरधर, "माफ कीजिये, मै आदमी नहीं हूँ।"

रमेश ने तपाक से पुछा, "दादाजी आप आदमियो पर उंगली क्यों करते हो?”
जब गिरधर ने अपने बीते समय में जाते हुये कहा, ”ये एक लम्बी कहानी है। उस वक़्त तुम भी पैदा नहीं हुये थे। मैं अपने दोस्त शम्भूनाथ यानी तुम्हारे पिता के साथ साईकिल पर उसके कैरीयल पर बैठकर जा रहा था। सड़क पर भारी तादात मे गाड़ियां आजा रही थी। ट्रफिक सिगनल पर सड़क पर ही रहने और जीने वाले लोगों के बच्चे तमाशा दिखा रहे थे। चन्द मिन्टो मे जब उनका खेल ख़त्म हुआ तो वो अपना महनताना लेने कार में बैठे आदमी के पास गये तो । उसने उन्हे गाली दी।
"हराम के जने! ये ले" और एक सिक्का हवा मे उछाल दिया। वो दोनो बच्चे, मुंह ऊपर उठाये देखते रहे फिर क्या था लाईट होते ही "चलो ड्राईवर" इन भिखारियों को मुंह नहीं लगाते। वो निकल गया पर मुझे आश्चार्य हुआ की एक इंसान दुसरे इंसान की जरुरत को नहीं समझता। कुछ देर ही में लगा की ये सारा शहर उन बच्चों की चुप्पी में कहीं खो गया हो। मगर फिर सिगनल हुआ और ये बच्चे फिर से अपनी कला-बाजी दिखाने सड़क पर उतर आये।

रमेश गिरधर की बातों से असहमती दिखाता हुआ बोला, "लेकिन दादाजी इस दुनिया मे हर तरह के लोग हैं। आप सब को एक ही ड़न्डे से नहीं हॉक सकते।"

गिरधर, "मैं कहां हॉक रहा हूँ, दुनिया तो खुद ही चले जा रही है।"

दुकान में बैठा रमेश कीलो को जुते मे ठोकता और दादा जी को हुंकारा भरता ..
तभी दबे पांव उन दोनो के कानों मे कुछ किरकिरी आवाजें आने लगी। चटाक-चटाक, झन्नाती हुई। वही आवाज धीरे-धीरे उनकी ओर बड़ती जा रही थी। कपड़े की गुधड़ी में छोटा सा बच्ची कमर से बांधकर अपने गले में ढोलक लेकर वो बजा रही थी। उस के साथ जो था वो अपनी पीठ पर मोटा चाबुक मार रहा था। रमेश तो उसे देखने लगा उसे कोई हैरत नहीं हो रही थी पर गिरदर ये नजारा समझने का प्रयत्न कर रहा था। वो आदमियों की दुनिया को जानता तो था। उसे हमारी दुनिया में सब कुछ बता कर भेजा था की आदमी क्या है? कैसा दिखता है?उस का रहन-सहन कैसा है? पर जमीन पर आने के बाद उसे आदमी कुछ और ही बनावटों मे दिखा। अपनी उधेड़बुन से जैसे ही वो निकला। उसके सामने बड़े-बड़े पांव थे। रंग-बिरंगे फूलों वाला गोटा लगा हुआ, लहगा पहने वो शख्स खड़ा हुआ था। जिस का आदा शरीर ढ़का हुआ था और आदा उघड़ा हुआ था। गिरधर रमेश से पुछने लगा, ”अब ये क्या है जो बेदर्दी से अपने आप को चाबुकों से जख्मी कर रहा है?"

"ओह भगवान, तुने कैसे-कैसे विचित्र लोग बनाये हैं। "
रमेश बोला, "चौंको मत दादा जी, ये तो काली माई है।
कमर से मोटे घुंगरूओं की बजने की, चाबुक के साथ ढोलक बजने की आवाज मे उनकी आवाज कहीं दम तोड़ जाती। आँखों के नीचे लाल रंग की लकीरें बनी थी। मुंह पर लाल रंग ही लगा था। सिर के बालों का जूड़ा बंधा था
और गले मे बड़े-बड़े रूद्राक्ष की माला डाली हुई थी। उसकी कलाईयों चाकूओं से काटने के निशान साफ़ दिख रहे थे और खुरन्ट जमा हुआ था। उसका चेहरा डरावना था पर वहां कोई इतना संकोच नहीं कर रहा था जितना गिरधर को था। सब बड़ी सरलता से उस दृश्य को ले रहे थे। खुद को चाबुक मारते हुये वो शख्स नाच रहा था। गली मे खडे बच्चे उस से ड़र कर अपने बड़ो के पीछे दुबक गये थे। कोई अपनी माँ की साड़ी के पल्लु को दातों तले चबाता तो कोई गोद मे अपना मुंह छुपाकर बैठ जाता। सच कहा था यमदेव ने इस दुनिया में तमाशेबाज़ बहुत है।

राकेश खैरालिया

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