Saturday, September 27, 2008

टेलिफोन की करकश

सोहन लाल जी ने अपना गीत पकड़ा दिया ये कहकर "अभी कच्चा है, काफी समय दिया मगर अब भी ताज़गी नहीं ला पाया हूं। लग रहा है कि थोड़ा फिका छोड़ दिया है। जरा तुम हाथ लगाकर देखो, क्या पता पक जाये।"

घर मे इतनी रोशनी होने के बाद भी आँखों मे नमी रहती लगता है जैसे अंधेरा अब भी गहराया है पुतलियों पर, लो दिमाग में फिर से शायरों कि मुलाकातो का असर होने लगा। पसीनो में अगर बदन तर हो तो पंखे की हवा भी बड़ी सुहावनी लगती है और हमारे घर का ये खैतान का पंखा पिछले 30 सालो से बिना कुछ खाए-पीए हमें हवा खिलाता आ रहा है। वैसे इसके नीचे बैठने से लगता है कि जैसे किसी राजा-महाराजा के यहां पंखे चला करते थे जो हवा देने के लिए नहीं बल्कि खाली मक्ख़ियां उड़ाने के लिए रखे जाते थे। मगर, पसीनो की तराई ने आज तो इस पंखे की हवा को भी किसी टॉपक़्लास कम्पनी के कूलर की तरह से कर दिया था।

इतने मे फोन की घण्टी ने आवाज लगाई। ये मोबाइल फोन भी कमाल है जब हाथों मे नहीं था तो ठीक था मगर, जब से आया है बस, यही दिल की धड़कन बन गया है। आधे से ज़्यादा काम तो इसी पर हल हो जाते हैं या ये कहिये कि इसी की वज़ह से कई लोग मिलते नहीं है मगर, फिर भी कहते है कि मिला था। ये मिलना भी कोई मिलना है। नम्बर दिल्ली का नहीं था और ना ही किसी जानने वाले था। लगता था कि आज किसी नये शख्स कि आवाज सुनने को मिलेगी।

हमने फोन उठाया और कहा,

"हैलो!”

"हैलो!, जी आप सुरेश बोल रहे हैं?”

"हां जी, बोल रहा हूं मगर आप कौन मैंने पहचाना नहीं?”

"जी आप मुझे नहीं जानते मगर मैं आपको जानती हूं। मुझे आपका नम्बर मेरे एक दोस्त ने दिया था। क्या आप विजय को जानते है?”

"कौन सा विजय? मैं दो विजय को जानता हूं। एक तो एक अस्पताल मे काम करते हैं। मगर वे बहुत अच्छे गीतकार हैं। कई दोस्त हैं उनके जो गीत व कवितायें लिखते हैं। विजय जी उन्ही के गीतों को गाते हैं। दूसरे विजय हैं, जिनकी बातों मे ही हर बार एक नई ही बात सुनाई देती है। हर वक़्त कुछ ना कुछ करने की बात करते रहते हैं। कभी ये सीखुंगा तो कभी ये। जितना भी कमाते हैं वे सारा का सारा नये संगीत के इंस्ट्रुमेन्ट खरीदने मे ही जाता है। चाहे बजाना आये या ना आये बस, उन्हे लाना जरूर है। एक बार ड्रम सेट ले आया था और दबादब उसे बजाने लगा। पूरी गली वाले उससे दुखी से रहते है मगर, उसके हाथ नहीं रुकते। वे जागरण मे भी जाते हैं ड्रम सेट को बजाने के पैतरें सीखने और उनके छोटे भाई साहब जो हैं वे बस, उन नई चीजों के साथ मे एक तस्वीर जरूर खिचंवाते हैं।"

" हां, वही विजय! आजकल ये अपने घर में रखी तस्वीरो की एक डायरी बना रहे हैं। काफी पुरानी टाइम की तस्वीरे हैं इनके पास।"

"हां जी, यही है! अब आप कहिये कैसे फोन किया आपने?”

"जी क्या मैं आपसे थोड़ा और देर बात कर सकती हूं? आप अगर कुछ काम है तो पहले कर लिजिये, मैं फिर एक घण्टे के बाद मे फोन कर लुगीं।"

"नहीं, जी आप कहिये आपको क्या बात करनी है? वैसे आप बोल कहां से रही हैं? ये नम्बर दिल्ली का तो नहीं है।"

" जी, मैं अलीगढ़ से बोल रही हूं। मुझे आपके बारे में थोड़ा बहुत विजय ने बताया था। सीधे लफ़्जों मे कहूं तो मुझे आपसे कुछ अपने लिए बात करनी थी। मैं आपसे कुछ मदद चाहती हूं और विजय की बातों से मुझे लगा की सिर्फ़ आप ही हैं जो मेरी कुछ मदद कर सकते हैं या कुछ बातचीत कर सकते हैं जिससे मुझे कुछ आइडिया दे सकते हैं। क्या मैं आपको अपने बारे मे बता सकती हूं?”

"जरूर कहिये, मैं सुन रहा हूं।"

"इस समय मैं एक ऐसे वक़्त से गुजर रही हूं कि मुझे किसी भी बात या पल का पता नहीं चल रहा है। जो भी वक़्त इस दौरान मेरे आगे से गुजर रहा है और उस समय में चलते सारे वाक्या मेरे बिलकुल भी समझ नहीं आ रहे हैं। मैं बुथ बनी बस, देखती जा रही हूं, कुछ भी कह नहीं पाती। क्या करूं मैं इस वक़्त मे वो भी समझ से बाहर है। यहां होते हर वाक्या या हर बात मेरे बहुत ही नजदीक से जुड़े हैं। मेरे पापा से, जो कि अब नहीं रहे। जो वक़्त मेरे सामने है उसमे लोगों की बातें मे और मुझे समझाने मे पापा कही तक नज़र नहीं आते। मैं एक तरफ़ मे अपने पापा की बॉडी को देख रही हूं तो दूसरी ओर लोगों की बातों को सुन रही हूं। दोनों मे कहीं तक भी कोई मेल नहीं है। मेरे पापा ऐसे नहीं है !, मैं ये कैसे समझाऊ? मैं खाली अपने पापा के बारे मे ही नहीं, मैं एक ऐसे शख्स के बारे मे बताना चाहती हूं जो कभी अपने बारे मे नहीं सोचता था, उसके लिए उसके दोस्त, रिश्ते, काम और उनका अकेलापन ही उनका खुद था। उन्होनें जो भी किया आज वे खाली बातों मे था। वे भी ऐसी बातें जो अभी कुछ ही देर की है, उसके बाद मे सब ख़त्म हो जायेगी। क्या करूं सकती हूं मै? मैं लिखना चाहती हूं उनके बारे में?”

"माफ़ किजियेगा, सुनकर दुख हुआ! वैसे क्या लिखना चाहती हैं आप अपने पापा के बारे में?”

" मैं अपने पापा से 4 साल दूर रही हूं। मगर, ऐसा नहीं है कि मेरा और उनका रिश्ता बेगानों के जैसा था। मैं अपने घर से, बड़े होते ही बॉर्डिगं स्कूल मे भेज दी गई। हम घर मे सिर्फ़ तीन ही लोग थे। मैं, पापा और मम्मी। मगर, हमेशा पापा अपने काम और अपने बनाये रिश्तों मे ही गुम रहा करते थे। उनका कभी अपने पारिवारिक रिश्तो मे कसाव महसूस होता था इसलिये उनके घर के बाहर बहुत रिश्ते थे। उन्ही वे बहुत खुश रहते थे। काफी दोस्त थे उनके। हमेशा दोस्तों के किस्से उनकी जुबान पर रखे रहते थे। मेरे से वे बहुत कम मिलने आते थे पर जब भी मिलने के लिए तो बस, दोस्तो के बारे मे ही बताते रहते थे या क्या करवाना है अपने घर के लिए वे ही बोलते रहते थे। मैंने कभी उनको अपने बारे मे बोलते हुए नहीं सुना था। जब भी बोलते तो कभी मुझे लेकर तो कभी औरो को लेकर। मैं हमेशा उनका मुंह ही ताकती रहती थी और देखती रहती थी की ये शख्स क्या है? मुझसे मिलने आये हैं मगर मेरे बारे अभी का कुछ नहीं पुछ रहे बस, दोस्तो का ही जिक्र कर रहे हैं। कभी-कभी उनके ऊपर बहुत गुस्सा भी आता था। पर वो जब चले जाते थे तो मन मे आता था कि वो चाहे किसी और की ही बात क्यों ना करें मगर बस, वे पास में रहे तो कितना अच्छा हो। कभी-कभी बहुत मिस करती थी मैं उनको, उनकी बातों को, जैसे आज बहुत कमी महसूस हो रही है मुझे उनकी लेकिन आज वो सामने होने के बाद भी नहीं है। क्या करू मैं? और यहां पर सारे उनके बारे मे बुरा ही बोल रहे है। लग रहा है की जैसे ये जो शख्स मुझे दिखाया जा रहा है उन्हे तो मैं जानती ही नहीं हूं। मैं सबको बता देना चाहती हूं की जो आप सब मुझसे कह रहे हो मेरे पापा के बारे मे, वो सब गलत है। जो हमेशा आपकी ही बातें करते थे। दोस्तो मे रहते थे, वे ये तो नहीं हो सकते। मैं वो सब मुलाकातें लिखना चाहती हूं जो उन्होने मेरे साथ मे बिताई। जिसमे वो एक पापा नहीं होते थे कोई और ही बने होते थे।"

" एक बात पुछना चाहूंगा मैं आपसे, क्या आपके साथ मे बिताया समय आपके पापा के बारे में बताने के लिए पूरा है? क्या आपके पापा के बोलने और आपके साथ बिताये समय में जो वो शख्स थे, वही यहां घर मे आने के बाद मे भी थे?”

"मैंने अपने पापा के बारे में यहां जो सुना उसको सुनकर तो मैं भी हैरान हूं और मन मे सवाल उठ रहे हैं कि क्या यहां पर पापा कुछ और थे? अगर वो यहां ऐसे थे तो मेरे साथ मे क्या थे? पर हम अगर किसी के साथ मे घण्टो बात करते हैं और उसको सुनते है। सालो मे, महिनो या हफ्तो मे ही सही तो उसके बारे मे कुछ तो बना पाते है ना! ऐसा ही मैंने किया है। मैने उनको सुनकर जो अपने लिए कुछ बनाया है वो मेरे लिए ज्यादा मूल्यवान है। जिसमे कम से कम मे किसी के खराब होने, कोसने व किस को कितने दुख दिये को सोचने से दूर तो हूं। सभी किसी ना किसी को कुछ ना कुछ दुख देते ही आये है। शायद, कभी मैंने और आपने भी किसी ना किसी को दुख तो दिया होगा तो क्या सभी हमें उसी से देखने लगे? बाकि सब गायब हो जाता है क्या?”

"आपकी यादों और उनके बोल में नजर आने वाला शख्स कहीं खो तो नहीं गया है? शायद, हो पर दिखाई नहीं दे रहा हो? आपकी यादें और आपके साथ मे एक शख्स की बातचीत उसके कई ऐसे रूप उभारती है जिसको बताने के लिए शायद उस वक़्त मे किसी के पास शब्द ना हो।"

"कोई क्यों नहीं दिखाई देता? अगर देखने के शब्द होते है तो वो फिर यहां पर क्यों नहीं है? मैं दूंगी शब्द वो जिससे उनका कोई तो रूप नज़र आये। मैंने शुरूवात कि है अपनी उन मुलाकातों को लिखने की। मगर, आंसू पीछा नहीं छोड़ रहे। हंसी खिलती है तो आंसू बनकर छलक जाती है। मैं चाहती हूं की आप वो सब पढ़े और देखे जो मैं किसी के बारे मे बता रही हूं वो कौन है और कैसे है? क्योंकि यहां जितने भी लोग है उनके ऑखों पर एक पर्दा है जो उस शख्स को देखने नहीं देगा। आप देखें। मैं कैसे पढ़ा सकती हूं आपको वो सब?”

"मैं जरूर पढ़ूंगा! मैं आपको अपनी मेल आई.डी देता हूं। lakhmi_cm2005@yahoo.co.in आप मुझे इसपर मेल कर सकती हैं। आपने कहा था ना की दुख, दर्द और कोसने से दूर हूं तो आँसूओं को काबू करना होगा। बहुत नजदीक का रिश्ता है तो थोडा मुश्किल होगा मगर, यही चुनौती है जो आप खुद ले सकती हो। मैं अपने एक दोस्त का लेख आपको भेजूंगा जो उन्होने अपने पापा को लिखा है। बहुत गहरा समय है उस लेख मे। आप मुझे अपना आई. डी. भेज दिजियेगा। आपका नाम क्या है?”

"मेरा नाम नेहा है। मैं अपनी आई.डी भेज दूगीं। मुझे प्लीज़ जरूर भेजियेगा। अपने दोस्त का लेख। थेंक्यू सुरेश जी। बहुत अच्छा लगा मुझे आपसे बात करके। विजय को आज दिल से थेंक्यू कहूगीं जो उसने मेरी आपसे बात कराई।"

"मुझे भी बहुत अच्छा लगा आपसे बात करके। आज पहली बार टेलिफोन पर मैंने किसी के अहसास को सुना है। आप लिखियेगा जरूर। चाहे कितने ही ऑसूं आये मगर, रूकना नहीं। बस, लिखते रहियेगा और हां, मेल करते रहियेगा। ठीक है, फिर से बात होगी। बॉये टेक केयर।"

"बॉये सुरेश जी।"


इस बातचीत में पहली बार मैंने अपने को हकिकत के बहुत नजदीक पाया। ये कोई लेख की बात नहीं हो रही थी। ये कोई खास अहसास था। जिसे खाली बातचीत करके छोड़ा नहीं जा सकता था। कोई क्यों नहीं दिखाई देता?, कोई क्यों गायब है?, कोई बातों मे है मगर रू-ब-रू नहीं है, ऐसा क्यों?

लख्मी

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