Saturday, October 4, 2008

डरना क्यों जरूरी है?

डर, कितना आसान शब्द है, मगर इसके पीछे के चित्र कितने भयानक हैं? ये शायद, सभी अपने-अपने अनुभव से जानते हैं। इस शब्द के बारे मे कोई कभी नहीं बता सकता, या बता सकता है तो याद नहीं दिला सकता। इसे महसूस किया जाता है। अपने गायब और दिखते चेहरो से। मैं भी इस शब्द को लेकर घूमा, मगर मुझे कुछ और ही नज़र आया।

डर जो आँखो को बन्द कर देता है। जो चेहरे पर बैचेनी पैदा करता है। जो शरीर मे एक तरह की कँप-कँपाहट छोड़ता है और भी कई तरीके हैं जब हम डर का सामना करते हैं। लेकिन, क्या है ये डर?

एक शख़्स से इसको लेकर कुछ बात हुई। वे कहते हैं, “ जब हमारे अन्दर डर होता है तो हम आगे के बारे मे सोचते हैं। डर हमारे साथ और जगह मे पनप रही चीजों की दुनिया किसी के गुजर जाने पर और अपने रोज के साधारण रूप मे शरीर के साथ छोटे-छोटे मांसपेसियों मे शामिल है। वैसे देखा जाये तो आम ज़िन्दगी मे डर का रूपक कई तरह के विभाजनो मे है मगर, वे है क्या? कैसा है? ये जिन्दा होने पर ख़त्म होने की एक कभी ना रुकने वाली गती है या नहीं? हम डर को जानते कैसे हैं? इसका होना या ना होना दोनों जरूरी क्यों हैं?

वे अपनी बात को समझाने की कोशिश करते रहे, मगर उनके अपने डर के बारे मे उनका कोई कहना नहीं था। ये डर खाली किसी चीज से खौफ़ खाना नहीं होता। अपने अन्दर से कुछ मिट रहा है उसका अहसास होना भी एक न मिटने वाली चीज से भयानक होता है। उनका डर कुछ और था। मेरे अन्दर उठ रहे सवाल खाली किसी भयानक व खौफ़नाक चेहरे या फिर वक़्त की चेष्टा मे नहीं हैं। वे उस मिट रही चीज या दुनिया को समझने की कोशिश मे है जो गुमनाम है। लोग अपने अन्दर उस गुमनाम जीवन को सम्भाल कर रखते हैं।

ये दुनिया क्या है?

राकेश

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