Monday, October 13, 2008

कुछ बे-सुरे राग

"लोग जैसे दिखते है वैसे होते नहीं"

ये बोल किसी की बनावटों पर अलोचनात्मक छवी दर्शाने के लिए नहीं है। सबका अन्दाज एक अलग तरह का रूप उभारता है। इंसान अपने निश्न्चित जीवन के आगे भी सोचता है। धरती पर पड़ने वाली धूप अपने साथ परछाई लेकर नहीं आती उसे कहीं चीजों का सहारा चाहिये होता है। तभी एक छवि बनती है। हम इसी तरह की खोज़ मे अपने विचारों मे फंसे, माहौल के अनुकूल वातावरण से मुक़्ति पाने की कोशिशो मे लगे रहते हैं। जहां अपने आप को चंद चीजों या जगह से जोड़कर अपने अतीत से अपने आज की भूमिका को काल्पनिक आँख बीच की (आँख) से देखकर सच को उतारने की कोशिश करतें है। ताकी वो कही खो न जाए। उस की रचना मे कुछ भ्रंम की तस्वीरें भी पैदा होने लगती हैं। जो खुली आँखो से दिखता है और बन्द आँखो से भी दिखता है।

जैसे, मोबाईल फोन से हो रही बातों के मुताबिक जो दिशा मे हम चले जाते हैं। जिस मे हमें लगता है की संकेत मिल रहे है और उन के ज़रिये हम जगहों-संभावनाओ को सोच रहे हैं।

ये ही संकेत एक-दूसरे पर मन के भाव प्रकट करते हैं जिससे शायद किसी के होने या आने वाले जीवन की रूपरेखा बनती है। अपने मन के विचारों के मंथनो से समाज मे इंसान साधनो और क्रियाकल्पो के नये और अनंत सुक्षमताओ को सींचता है। इस उम्मीद से की बड़े आकार और परछाईयों में जी सकें। मगर छांव पाने की जिज्ञासाए कहीं दूर ले जाती है।

सामाजिक ढांचा जो जमा या बना हुआ है। जिसमे सब जीवन यापन करते हैं ये कहां से शुरू हुआ? और कहां पर ख़त्म है? इसका कोई पता नहीं है शायद। लेकिन अंकुरित हो रहे जीवन की चमक अधेरों के दरवाजो पर ठक-ठक करती हैं। फिर इन गहरे अन्धेरों मे हाथ पकड़ कर भटकाने वाली लालसाए कहीं और नहीं देखने देती।
ये कौन हैं? जिनके साथ भटकने के बाद अपना पता नहीं मिलता। शायद इसलिये, हम सबसे पहले अपने मन में झाँक कर देखते है। ताकी अपने अन्दर और बाहर का संतुलन बना सकें और मौज़ूदगी से एक सम्पर्क बना सकें।
इसलिये, हम अपने आसपास फैली संसार की नितियों से हट कर किसी को बिना बताये ही अपनी जगह ऐसे स्थान मे बना लेते है जो समाज मे छुपा होता है।

कई रूपो, मुखोटो की अस्लियतों में एक आकार लिए होता है। जिस के पीछे कई समय पुराने निशान मिलते हैं। जीवन के रसो को तरह-तरह से बनाते हैं। लोग जीवन को ठहराव मे जीते कैसे हैं? हम निश्न्चित रहना चाहते हैं लेकिन हम सोचते निश्न्चित नहीं है। हम किसी अनकही को कहना चाह रहे हैं क्या? जिसे लोग पागल कहते हैं उसे गालियों से नवाजते है पर उसे कुछ समझ नहीं आता की आसपास के लोग उसे क्यो, क्या बोल रहे हैं। बस, सब को ख़ामोश होकर देखने और सुनने के मूंड मे पागल होता है। पागल को खाना देना, पागल को पानी देना, पागल से ड़रना, पागल को अपनी बराबरी का न समझना, पागल की आदतों पर हसंना।

ये हमारी दुनिया मे ही होता है फिर भी हम उसे अपने से ज़ुदा करके जीते हैं। अपने को अज़ब से विभाजन मे हम रख लेते हैं जिस का माहौल हम संतुलित चाहते हैं।


राकेश

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