Wednesday, October 29, 2008

E.M.U दिल्ली का एक प्रसिद्ध सफ़र

ये एक निहायती थकावट मे चूर कर देने वाला समय था। फ़र्श की उखड़ी सतह पर पानी बहता हुआ चबूतरे से नीचे की नालियों मे गिर रहा था। कुछ उठा-पटक की आवाजें उस जगह से विक्रम को सुनाई दे रही थी। मगर उसे जल्दबाजी मे बहुत कुछ छूटता मालूम हो रहा था। जहाँ समय का अंदाजा लगाना मुश्किल था। विक्रम गर्म किट पहने मूंह मे पता नहीं क्या चबा रहा था। उसने कमर से एक बैग टांगा हुआ था और हाथों मे उन्ही दस्तानो को पहना हुआ था जो उसने पिछली रात मे भी पहने हुए थे। वो हथैलियों को मसल रहा था। उसके पीछे एक आवाज आई "चाय वाले, चाय वाले" और ठंडी हवा चल रही थी। गर्म चाय लेकर उसने बिना कुछ कहे पैसे दे दिए। वो चाय वाला केतली लिए चला गया। सभी स्टेशन की तरह यहाँ भी सूचना देता म्युज़िक बज रहा था। चाय के स्टॉलों से भगोनों मे से उबलती चाय की भाप उड़ रही थी। खिड़कियों की लाइट बुझी हुई थी। एक काले कोट वाले शख़्स ने रूम से बाहर आकर दीवार पर एक पेपर को चिपकाया फिर वो अंदर चला गया। छज्जो मे लगे बल्ब जल रहे थे। खाकी पौशाक पहने पुलिश वाले डन्डा पटकाते हुए स्टेशन पर गश्त लगा रहे थे। विक्रम खड़े-खड़े थक गया था। उसने एक बेंच पर बैठना जरूरी समझा। अभी दूसरी गाड़ियों की भारी होर्न की आवाज स्टेशन पर गूंज रही थी। विक्रम बेंच पर घुटनों को ऊपर-नीचे रखे हुए पट्टरियों की तरफ़ देखने लगा। ओश अभी तमाम जगहों पर जमी हुई थी। वो वहीं बैठा हुआ धुंए की तरह फैली हुई धुंध के पीछे कुछ तलाशने की कोशिश कर रहा था।

ट्रेन एक लम्बा सफ़र तय करती हुई अपने आने का आगमन देते हुए बड़ी भारी होर्न का आवाज सुनाती हुई तेजी से प्लेटफार्म एक जोरदार धक्के के साथ आकर लगी। ट्रेन के प्लेटफार्म पर लगते ही दरवाजे से चिपके हुए पेसेंजर अपना बोरी बिस्तर लादे हुए झट से खींचा-तानी करते हुए उतरने लगे। इस दौरान जो ट्रेन का इंतजार कर रहे थे। वो लोग भी दरवाजे पर ऐसे टूट पड़े जैसे सब्जी मंडियों मे सब्जियों पर कोई टूट पड़ता है। मोटे पतले हल्के भारी थेले, सूटकेस, बक्सा लेकर दरवाजे के बीच मे ही अंदर जाने वाले लोग भीड़ की परवाह करे बिना ही घुस गए। एक ही साथ जैसे प्लेटफार्म पर मधुमक्खियों के छत्ते की तरह भिनभिनाते और जैसे मधुमक्खियों को किसी ने छेड़ दिया हो। इस उथल-पुथल को समझ पाना बेहद मुश्किल था।

रोशनी पर अंधेरा छाने लगा था। विक्रम सोच नहीं पा रहा था के अंदर जांऊ कैसे? इनकी तरह जबरदस्ती तो घुस नहीं सकता। भला किसी को टक्कर मारकर कैसे बड़ सकता हूँ। ट्रेन के ड्रावरने इंजन के दरवाजे से सीटी बजाई। ट्रेन ने जोर का झटका धीरे से लिया। झंडी बाबू ने ट्रेन को हरी झंडी दिखाई। अंनाऊसमेंट के शोर मे ना जाने कहाँ-कहाँ से डुबकियाँ मारती आवाजें गूंजती हुई शरीर मे एक झंझनाहट सी पैदा कर रही थी। ट्रोली खींचते हुए लोडिंग बॉय ने वैटिंग रूम के पास ट्रोली को खड़ा करके दीवार से सटाकर और दरवाजे को पूरा खोलकर वो अंदर चला गया। अभी पैसेंजर ठीक से चढ़े नहीं थे। ट्रेन ने धीरे-धीरे करके खिसकना शुरू किया। लटके हुए लोगों अंदर दरवाजे पर ही नहीं अंदर गेट पर भी खड़े हो गए और एक रफ्तार भरा कदम उठाकर ट्रेन ने स्टेशन को छोड़ दिया। सभी लोग किसी ना किसी तरह ट्रेन मे चढ़ चुके थे। विक्रम भी ट्रेन के अंदर ही भीड़ मे फंसा हुआ खड़ा हो गया था। सीटें फुल हो गई थी। ठंड के कारण डब्बे मे लोगों के शरीर एक दूसरे से सटे हुए थे। इसलिए ठंड भी ज़्यादा नहीं लग रही थी। रूक-रूककर खड़े हुए और सीटों पर बैठे पेसेंजरो की गर्दन हौले-हौले हिल रही थी। बीच मे और सीटों के पास लगे लोहे के पाईपो को खड़े हुए शख़्सो ने पकड़ा हुआ था।

शहर से बाहर निलकते ही ट्रेन ने एक लम्बा होर्न बजाया और धका-धक छुक-छुक करते हुए पटरियों को बदलती हुई तेज रफ्तार मे चल रही थी। बीढ़ी-सिगरेट पीने वालो ने अब तसल्ली की सांस ली और अपने जेब से तम्बाकू पीने वालों शख़्सो ने कश लगाकर धुंआ छोड़ा और इसी के साथ बातों ही बातों मे किस्सो की पोटली खुल गई। भीड़ के धक्के को झेलते हुए बड़ी मुश्किले से जबरन डब्बे मे घुसना पड़ा। ट्रेन हवा को अपनी तेज रफ्तार से चिरती हुई शहरों और गांव से गुजर रही थी। नदियो और नहरो को पार करते हुए डब्बे मे जब सांय-सांय की आवाज होती तो किसी और ठहरी जगह का अहसास करा जाती।

भीड़ मे काले जूते पहने हुए वो मोटे शरीर वाला भारी मूंछे और घुंघराले बाल थे। उसने काला कोट डाला हुआ था। वो डब्बे मे बैठे लोगों को धक्का मारकर साइड मे होने को कह रहा था। उसकी आँखो मे गुस्सा और ज़बान पर ओझी भाषा थी। विक्रम को उसने तिरछी नज़र से डरावने अंदाज से अपने भारी हाथ को उसके कंधो पर रखकर उसे जगाया। "अरे सुनो, सो रहे हो क्या?“ उस टीटी ने विक्रम से कुछ तहज़ीब से ही पूछा था। बाकियों से तो वह चिढ़ा हुआ सा ही सवाल कर रहा था। विक्रम नींद से जागकर और तंग आँखो को मिड़कर उबासी लेकर बोला, "क्या बात है?” उसका लहजा मुलायम था। डब्बे की घिचपिच मे बैठे हुए लोगों के सामान को ठोकर से वो दायें-बायें सरकाते हुए टिकट मांगता, “जल्दी कर, सुनाई नहीं दिया क्या? अक्ल क्या अपने बाप के घर छोड़कर आया है?“ उसकी कड़क आवाज और मोटी आँखों से लगता कि यह कोई जल्लाद है क्या?

विक्रम उबासी लेकर बोल पाता कि जनाब प्रोबलम क्या है। तभी टीटी उसकी तरफ़ कुछ इतमिनान से देखकर घूमा और आगे चला गया। जहाँ विक्रम बैठा था उसकी सीट के पीछे वाली सीट पर बैठे शख़्स थके हुए से लटके चेहरे लिए ट्रेन के डब्बो के झटको मे झूल रहे थे। उनके बीच मे एक शख़्स कम्बल को सिर से ओढ़े हुए कोहनियों को मोड़ कर कम्बल की गर्माई मे आँखे बन्द कर बैठा था। तभी एक आवाज़ आई "अरे वो टिकट दिखा" उसने फट से पलके खोली पसीने से उसका माथा पसीज़ रहा था। होठों पर पप्ड़ियाँ पड़ी हुई थी। प्यास से मूंह चिपचिपाया हुआ था। टीटी के दो,तीन बार मांगने पर कोई जवाब नहीं दिया। उसके पास बैठे बाकी शख़्स उसे ही देख रहे थे। टीटी फिर गुर्राकर बोला, “सुनाई नहीं देता क्या, कान के पर्दे फट गए?“ अब वो अपनी पर आ गया था और शक करते हुए वो चौड़ा होने लगा।बिमार शख़्स को समझ नहीं आ रहा था आखिर अब करूं क्या? टीटी गुस्से मे उसे कंधे से पकड़ कर उसे उठाता हुआ बोला, "मैं पहले ही समझ गया था कि तेरे पास टिकट नहीं है फिर भी ऐसे ही मैं तुझसे पूछ रहा था।" कम्बल ओढ़े हुए शख़्स ने भर्राती आवाज मे हपकाई लेकर कहा उसकी सांसे भी तेज चल रही थी "टिकट हैं मेरे पास आप ढंग मे रहिए। मेरी तबियत बहुत ख़राब है इसलिए मैं कुछ समझ नहीं पाया। यह रहा टिकट।"

टिकट देखकर टीटी चुपचाप वहाँ से निकल गया। विक्रम मूंह उठाये, यह सब सीट के पीछे वाली जाली से देख रहा था। टीटी के जाते ही खुसर-पुसर शुरू हो चुकी थी। "कमाल है खामखा लोगों को तंग करते रहते हैं।" एक ने सीना चौड़ा करते हुए बोला। वैसे ही डरा रहा था "अच्छा हुआ मान गया वरना”......... ऊपर सीटों पर बैठे लोग मूंह फाड़े नीचे देख रहे थे। डब्बे की छत मे लगे पंखो के ऊपर लोगों ने अपने जूते चप्पल रखे हुए थे। विक्रम गले मे पड़े मफलर को सही करता हुआ ठंड मे सिमटा हुआ बैठा रहा।

राकेश

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